मारिया पूजो ने जब गॉडफादर लिखी होगी, उस समय उन्हें इस बात का भान शायद ही रहा हो कि यह शब्द सिर्फ किताब की दुनिया तक महदूद नहीं रहना है। इसे व्यापक स्वीकार्यता मिलनी है भारत जैसे तीसरी दुनिया के मुल्क के बिहार जैसे सूबे में जिसे एक कालखंड के बाद बंटवारा देखना बदा था। हैरत नहीं होनी चाहिए कि समूचे देश के मानचित्र पर अगर पहली बार यह शब्द अपराध की दुनिया में संस्थागत हुआ तो वह तत्कालीन बिहार का कोयलांचल ही रहा होगा और इसके किंगपिन थे सूरजदेव सिंह। लगभग तीन दशक तक कोयलांचल पर उनकी हुकूमत चली। सरकार चाहे किसी की भी हो और मंत्री चाहे कोई भी हो, सूरजदेव सिंह का काम कभी रुकता नहीं था।
उत्तर प्रदेश के बलिया से आकर एक साधारण कोयला मजदूर के रूप में काम शुरू करने वाले सूरजदेव सिंह ने कोयला मजदूरों की ट्रेड यूनियन की अगुवाई कर इतनी शोहरत हासिल की कि धनबाद की धरती पर पत्ता भी उनकी मरजी के बिना नहीं हिलता था। जितने दबंग, उतने ही सामाजिक कार्यों में रुचि दिखाने वाले सूरजदेव सिंह की लोकिप्रयता का आलम यह रहा कि वह विधायक भी बन गए। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से नजदीकी के कारण उनका राजनीतिक रसूख परवान पर था। उनके निधन के बाद उनकी पत्नी कुंती देवी को लोगों ने धनबाद जिले के झरिया विधानसभा क्षेत्र से दो बार विधायक बनाया। उनकी राजनीतिक जमीन झरिया में इतनी पुख्ता थी कि उनके बेटे संजीव सिंह को लोगों ने हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा के टिकट पर जिता दिया।
सूरजदेव सिंह का धनबाद में बना आवास सिंह मेंशन आज भी है, फर्क सिर्फ इतना ही है कि सिंह मेंशन में रहने वाले पांच भाइयों में चार का कुनबा आज बिखर गया है। सूरजदेव सिंह पांच भाई थे। एक भाई विक्रमा सिंह बलिया के अपने पैतृक गांव में ही रह गये। एक बार वह कांग्रेस के टिकट पर विधायक भी चुने गए थे। धनबाद में सूरजदेव सिंह, राजन सिंह, बच्चा सिंह और रामधीर सिंह का परिवार सिंह मेंशन में साथ रहता था। बाद में बच्चा सिंह ने सूर्योदय बना लिया तो राजन सिंह के परिवार ने रघुकुल। रामधीर सिंह का बलिया-धनबाद आना-जाना लगा रहा, लेकिन उनकी पत्नी इंदू देवी और बेटा शशि सिंह मेंशन में ही रहते हैं।
बच्चा सिंह रहते तो सूर्योदय में हैं, लेकिन उनकी हमदर्दी अपने भतीजों— नीरज, एकलव्य और गुड्डू के प्रति ज्यादा है। सूरजदेव सिंह के परिरवार से राजन सिंह के पुत्रों और चाचा बच्चा सिंह ने दूरी बना ली है। दोनों घरानों में राजनीतिक और कोयला यूनियन पर वर्चस्व की लड़ाई ने सूरजदेव सिंह की कोयला नगरी पर बादशाहत पर बट्टा लगा दिया।
इस घराने का राजनीतिक रसूख ऐसा रहा कि बच्चा सिंह झारखंड सरकार में मंत्री बने और रामधीर सिंह बलिया में जिला परिषद के अध्यक्ष हैं। रामधीर की पत्नी और सूरजदेव सिंह की पत्नी सगी बहनें हैं। नगर निगम बनने पर रामधीर सिंह की पत्नी इंदू देवी मेयर भी चुन ली गईं। इस बार मेयर का पद आरक्षित हो जाने के कारण उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा। अलबत्ता इसी घराने के एकलव्य सिंह डिप्टी मेयर बने हैं। इससे पहले एकलव्य के बड़े भाई नीरज सिंह डिप्टी मेयर थे। राजनीति और रंगदारी में रसूख का जो सिलसिला सूरजदेव सिंह ने शुरू किया था, वह चल तो रहा है, लेकिन कभी साथ रहे सिंह मेंशन और रघुकुल की आपसी तनातनी के कारण रंगदारी का रुआब अब समाप्तप्राय है।
तत्कालीन बिहार के सामाजिक परिवेश से सरोकार रखने वाले या समझने वाले यह कबूल करने से नहीं हिचकेंगे कि सूरजदेव सिंह की पहचान कोयलांचल में एक सवर्ण माफिया की थी। वैसे सवर्ण माफिया का रुतबा हासिल करने के लिए सवर्ण दबंग ही आपस में जूझते रहे। हत्याओं का लंबा सिलसिला चला। करीब आधे दर्जन राजपूत बिरादरी के लोग मारे गये। वर्चस्व कायम करने में सूरजदेव सिंह का ही घराना कामयाब रहा। लेकिन उनकी मौत के बाद उनका बड़ा बेटा राजीव रंजन लापता हुआ तो आज तक उसका कोई सुराग नहीं मिला। माना जाता है कि वर्चस्व की जंग का वह शिकार बन गया। उसकी विधवा से सूरजदेव सिंह के छोटे बेटे और भाजपा के टिकट पर फिलहाल झरिया के विधायक संजीव सिंह ने रीति-रिवाज से परे जाकर पिछले साल शादी रचा ली। इस शादी को परिवार का पूरा समर्थन मिला।
सूरजदेव सिंह के निधन के बाद परिवार का राजनीतिक रुतबा तो बना रहा, लेकिन वर्चस्व में यह घराना पीछे छूटने लगा। झरिया से सटे कतरास का एक दलित युवक कोयलांचल में सिंह मेंशन के वर्चस्व को चुनौती देने लगा। यह युवक कोई और नहीं, बल्कि दो बार से धनबाद जिले के बाघमारा क्षेत्र से विधायक बन रहे ढुलू महतो हैं। ढुलू के उदय के बाद कोयलांचल में सवर्ण माफिया का राज खत्म हो गया और कोयले से रंगदारी का वर्चस्व दलित दबंग के हाथ में चला आया।
ढुलू महतो के उदय और आगे बढ़ने की कहानी बेहद दिलचस्प है। ढुलू ने दो दशक पहले अपने हमउम्र बेरोजगारों की एक बड़ी फौज टाइगर फोर्स के रूप में खड़ी कर ली। जानकार बताते हैं कि टाइगर फोर्स में करीब पांच हजार सदस्य हैं। कोयले के खनन के लिए जब आउटसोर्सिंग कंपनियां इस इलाके में आईं तो उनकी कमियों को लेकर ढुलू ने टाइगर फोर्स के जरिये विरोध करना शुरू किया। बिना व्यवधान काम करने की चाह में कंपनियां ढुलू के दबाव में आने लगीं।
इसका फायदा ढुलू ने उठाया। उन्होंने अपने लोगों को इन कंपनियों में काम पर लगवा दिया। टाइगर फोर्स के जवानों को आउटसोर्सिंग कंपनियों में काम मिलने लगा। इसके साथ ही जनता के सवाल पर आंदोलन और विरोध का हथियार ढुलू ने टाइगर फोर्स को बनाया। ढुलू की लोकप्रियता यहीं से बढ़नी शुरू हुई।
2009 के विधानसभा चुनाव में भाजपा से अलग होकर झारखंड विकास मोर्चा बनाने वाले बाबूलाल मरांडी के साथ ढुलू हो गये। उन्होंने झाविमो के टिकट पर चुनाव लड़ा और जीत गए। इस बीच राज्य में जो भी सरकारें बनीं, उनका रुख ढुलू महतो के प्रति नरम नहीं रहा। नतीजतन, उनकी लगभग सारी कथित सक्रियता सरकारी काम में बाधा पैदा करने के घेरे में आ गईं। उनके खिलाफ दस मामले दर्ज हो गए। एक मामले में तो नौ महीने तक उन्हें जेल में भी रहना पड़ा।
आगे बात और बिगड़े, इससे पहले ही 2014 का विधानसभा चुनाव उनके लिए वरदान बन कर आया। उन्होंने भाजपा का दामन थाम लिया। राज्य में सरकार बनाने के लिए लालायित भाजपा ने उनकी पृष्ठभूमि को दरकिनार कर दिया। यह सुयोग रहा कि विपक्ष के तमाम विरोध और ढुलू की दबंग छवि को मुद्दा बना कर हराने की विरोधियों की कोशिश नाकाम हो गई। ढुलू भाजपा के टिकट पर एक बार फिर विधानसभा पहुंच गए।
इस बीच, उनके खिलाफ दर्ज कुछ मामलों में कोर्ट में ट्रायल शुरू हो गया तो कुछ जांच के दायरे में थे। ढुलू को लगा कि अगर उनके खिलाफ दर्ज मामलों में फैसला प्रतिकूल आता है तो न सिर्फ विधायकी जायेगी, वरन आगे का राजनीतिक रास्ता भी बंद हो सकता है। उन्होंने अपने खिलाफ चल रहे मामले वापस लेने की अर्जी लगा दी। चूंकि राज्य में भाजपा की सरकार है और ढुलू भाजपा के ही विधायक हैं, इसलिए माना यह जा रहा है कि सरकार सारे मामले वापस ले लेगी।
ढुलू ने जिस मामले को वापस लेने की अर्जी लगाई, वह धनबाद जिले के कतरास थाने में दर्ज कांड संख्या 120/2013 है। पड़ोसी बरोरा थाने की पुलिस ने रंगदारी के एक मामले में ढुलू के समर्थक राजेश कुमार को 12 मई 203 को गिरफ्तार किया था। उसके खिलाफ गैरजमानती वारंट था। आरोप लगा कि राजेश की गिरफ्तारी की सूचना मिलने पर ढुलू महतो ने अपने 30-40 समर्थकों के साथ पुलिस दल पर हमला बोल दिया। पुलिस वालों की वरदी फाड़ दी और जबरन राजेश को पुलिस की जीप से उतार ले गये।
इस घटना के बाद ढुलू महतो फरार हो गये। उन्होंने हाईकोर्ट में अग्रिम जमानत की अर्जी लगाई, जो नामंजूर हो गई। आखिरकार उन्होंने सरेंडर किया और जमानत के लिए सुप्रीम कोर्ट में दस्तक दी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ उनकी जमानत अर्जी खारिज कर दी, बल्कि यह टिप्पणी भी की कि 6 महीने तक उन्हें जमानत नहीं मिल सकती। इसके बाद नौ महीने तक ढुलू को जेल में ही रहना पड़ा।
वैसे ढुलू के खिलाफ दस आपराधिक मामले दर्ज हैं, लेकिन उनकी बेचैनी इसी मामले को लेकर ज्यादा है, क्योंकि इसमें पुलिस ने चार्जशीट सौंप दी है और अदालत में ट्रायल चल रहा है। कहीं सजा हो गयी तो उनकी विधायकी चली जायेगी और आगे का राजनीतिक कैरियर दांव पर लग जाएगा।
बहरहाल, ढुलू के आवेदन पर गृह विभाग ने 22 जून, 2015 को धनबाद के उपायुक्त का मंतव्य मांगा। उपायुक्त ने सरकारी वकील और बाघमारा के एसडीपीओ की राय पूछी। सरकारी वकील ने राय दी है कि ऐसा प्रतीत होता है कि ढुलू महतो पर दर्ज मामला राजनीतिक और निजी कारणों से प्रभावित है। इसमें ढुलू और उनके सहयोगियों को फंसाया गया है। वर्तमान में ढुलू महतो जनमत से लोकहित में विधायक चुने गये हैं। उन पर इस तरह का मामला चलने से लोकहित पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। मामला वापसी के योग्य है।
इस तरह राजनीति में ढुलू महतो का बढ़ा हुआ कद तो नजर आता ही है, अफसरों का मनोबल तोड़ने में भी इस तरह की कोशिश उनका कारगर हथियार बनेगी। जाहिर है कि सत्ता और प्रशासन जब ढुलू के साथ हैं तो जन जमात की क्या औकात कि उनके खिलाफ आवाज बुलंद कर सके।
अपनी दबंगई से जो रसूख सूरजदेव सिंह ने कायम किया था और कोयलांचल की राजनीति सवर्ण माफिया के हाथ में मानी जाती थी, फिलवक्त वही रुतबा ढुलू ने हासिल कर लिया है। अब सिंह मेंशन में दरबार नहीं लगता। अपने पारिवारिक झगड़ों और सामाजिक मसलों को लेकर अब कोई सिंह मेंंशन का रुख नहीं करता। सच तो यह है कि सिंह मेंशन और इससे जुदा हुए रघुकुल के लोग ढुलू से नजदीकियां बनाने में खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं।
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