अजय विद्युत
बुधवार को कुंवर नारायण जी की चिता में अग्नि लगी भी नहीं थी कि लोगों ने फोटो खींच कर फेसबुक पर पोस्ट करना शुरु कर दिया। उसे देख नवनीत पांडेय (बीकानेर, राजस्थान), कृष्ण मोहन झा (सिलचर, असम) एवं प्रकाश चंद्र गिरि (बलरामपुर, उत्तर प्रदेश) ने धिक्कार भरी भाषा में अनाप शनाप लिखना शुरु कर दिया। दिल्ली के सारे महत्वपूर्ण लेखक लोदी श्मशान गृह में अपने प्रिय कवि को अंतिम विदाई देने के लिए मौजूद थे जबकि फेसबुक पर लिखा जा रहा था कि वहां केवल 10-15 लोग ही थे। साहित्यकार नवनीत पांडे ने कुछ लोगों की भ्रामक रपट के आधार पर इकतरफा दिल्ली वालों को कोसना शुरु कर दिया। एक बड़े कवि की चिता की राख भी ठंडी न होने दी कि शव पर सियासत चालू हो गयी। उस पर कुछ अग्निधर्मा लोगों ने और आग लगानी शुरु कर दी। आज इस प्रकरण पर क्षुब्ध लेखक डा ओम निश्चल ने अपनी व्यथा दर्ज की है। हम दोनों पोस्ट इस आशय से यहां दे रहे हैं कि एक ऐसा लेखक जो किसी वर्ग विचारधारा नही जुडा, सबको प्यार करता रहा, उसकी अंतिम विदाई पर कैसे कैसे लोग बवाल काटने आ पहुंचे।
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अंतिम यात्रा में मात्र बीस- पच्चीस लोग
सबसे पहले नवनीत पांडेय की पोस्ट देखिए…
‘एक करोड़ से अधिक की आबादी वाली दिल्ली में एक सुप्रसिद्ध राष्ट्रीय हस्ताक्षर की अंतिम यात्रा में मात्र बीस- पच्चीस लोग..सोशल मीडिया पर सैंकड़ों संवेदना संदेश.…..मंथन करें, हम कहाँ है, कितने आत्ममुग्ध हैं…
Vimal Kumar, Prakash Chandra Giri की पोस्ट हमें अपना आईना दिखाने वाली है’
जब कई साहित्य संस्कृति से जुड़े लोगों की सोशल मीडिया पर कुंवर नारायण के बहाने साहित्यकारों के प्रति अभद्र टिप्पणियों की भरमार हो गयी तो अंतिम संस्कार में शामिल रहे कवि ओम निश्चल ने उनको आड़े हाथों लिया-
शवयात्रा के जनगणनाकार!
‘कल कुंवर नारायण जी इह लोक से प्रयाण कर गए। वे अरसे से बीमार थे। हिंदी के हीं नहीं, भारतीय भाषाओं के बड़े लेखकों में एक थे। लेकिन उनके निधनोपरांत शवयात्रा की टोह लेने वाले व उनके दाहसंस्कार की इक्की दुक्की फोटो देखकर अपना निर्णायक मत थोप कर दिल्ली के लेखकों को संवेदनाहीन कहने वाले फेसबुक पर आसन जमा कर बैठ गए। यह भी न सोचा कि दिवंगत को तुम्हारी जनसंख्या से क्या मतलब! केवल चार कांधे चाहिए किसी को भी चिता पर रखने के लिए और कुछ लकड़ियां। फिर जीवन भर निर्विवाद रहे कुंवर नारायण से जीवन में जो भी कभी मिला, वह उनसे प्रभावित हुए बिना न रह सकता था। सुबह निधन की सूचना भी उनके विश्वासपात्रों से ही मिली। उन्हें खो चुके व चार माह से उपचार में चूर शोकाकुल परिवार को डिस्टर्ब करना उचित न लगता था । तथापि दोपहर तक एक दूसरे से जानकारी हासिल करते सायं 5 बजे दाह संस्कार का पता चल गया और दिल्ली के अधिकांश लेखक पत्रकार संस्कृतिकर्मी पहुंचे।
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किसी भी समय न तो सारे लेखक शहर में होते हैं न सभी इतने स्वस्थ कि वे शव यात्रा में शामिल हो सकें अथवा अंत्येष्टि स्थल पर पहुंच सकें। तथापि दिल्ली के वयोबृद्ध कवि केदारनाथ सिंह से लेकर मंगलेश डबराल ,विष्णु खरे, विष्णु नागर, प्रयाग शुक्ल, गिरधर राठी, अशोक वाजपेयी, विमल कुमार, गीतांजलिश्री ,सुधीर चंद्रा, पुरुषोत्तम अग्रवाल, सविता सिंह, असद ज़ैदी ,रश्मि वाजपेयी, सरबजीत गरचा, पंकज बोस, हीरालाल नागर, अभिनव प्रकाश, अजय आनन्द, अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी, जितेंद्र रामप्रकाश, भानु भारती ,अजय कुमार शर्मा, रणजीत साहा, लीलाधर मंडलोई, ओम निश्चल, सत्यानंद निरुपम ,रवीश कुमार, विनीत कुमार, सुधांशु फिरदौस ,अच्युतानंद मिश्र, ब्रजेन्द्र त्रिपाठी, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, रेखा अवस्थी, हरीश त्रिवेदी, नलिनी तनेजा, अनुराग वत्स, सुनील कुमार मिश्र, मुकेश जगूड़ी,
अखिलेश जैन, प्रबंध न्यासी, भारतीय ज्ञानपीठ, प्रकाशक अशोक महेश्वरी एवं अरुण माहेश्वरी पत्रकार, संस्कृतिकर्मी व विभिन्न चैनलों के प्रतिनिधि तक कुंवर जी की अंत्येष्टि में शामिल हुए। युवा लेखकों छात्रों की संख्या भी अच्छी खासी थी। हालांकि शवयात्रा जैसी कोई बात होती और समय रहते यह बात पता लगती तो निश्चय ही उन्हें पढने वाले, पसंद करने वाले और ज्यादा संख्या में आते ।
पर इसके बावजूद 100 से अधिक पर इसके बावजूद 100 से अधिक लोग दो घंटे में दिल्ली की दूरियों व जाम के बावजूद पहुंचे, यह कम नही है। और वैसे भी—
कम लोग भी हों तो क्या इससे लेखक की सारी रचनात्मक कमाई व्यर्थ हो जाती है ?
क्या उसके लिखने की फलश्रुति महज यह हो कि उसके मरने पर अंत्येष्टि में कितना लंबा जुलूस चलेगा?
क्या किसी लेखक को कसौटी पर कसने का यही मानदंड होना चाहिए?
क्या ऐसी अवमानकारी पोस्ट लिखते हुए दनादन अपने पित्त का गुबार निकालने पर तुल जाना चाहिए था?
क्या लिखने वालों ने सोचा कि अभी यमराज उन्हें बुलाने आ जाएं तो कितने लोग उनकी शवयात्रा में शामिल होंगे?
जिस समाज में लेखक सत्ता का प्रतिपक्ष हो, उसकी अंत्येष्टि से सत्ताएं भी विमुख रहें तो आश्चर्य क्या ?
कुछ आवाजें हमारे पूरब से आ रही थी। वे कितने लेखक हितैषी हैं, कल उजागर हो रहा था। कल लेखक पत्रकार दयानंद पांडेय जी ने शवदाह से लौटते हुए सचाई जाननी चाही तो मैने सारी बात उन्हें बताई। उनसे ही पता चला कि तमाम जनवादी लेखक संगठनों के होते हुए भी अदम गोंडवी की अंत्येष्टि में महज पांच छह लोग ही थे। तभी मुलायम सिंह ने उनके परिवार को सलाह दी थी कि इन्हें गोडा तक जाने का प्रबंध कर देता हूँ वहां ज्यादा संख्या में लोग मिलेंगे तथा वे सहायक भी होंगे । पर परिवार ने मजबूरी में लखनऊ में संस्कार किया और गिनती के लोग दहाडने वाले जन कवि की अंत्येष्टि में शामिल हो सके। यह राजधानी लखनऊ का चेहरा है और क्या बलरामपुर गोंडा व प्रतापगढ इलाहाबाद में स्थिति अलग होगी? ऐसा सामान्य व्यक्ति के साथ भी हो सकता है। पर लेखक कम से कम, राजनेता भले ही चाहे, कभी किसी जुलूस का मुखापेक्षी नही होता।
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प्रसंगत: याद आया कि कवि कैलाश वाजपेयी की अंत्येष्टि में भी बहुत कम संख्या में साहित्यकार उपस्थित हुए थे जिस पर क्षोभ भरी प्रतिक्रिया हुई थी। ’उनकी स्मृति में आयोजित सभा में हिंदी के सिर्फ दो साहित्यकार थे – अशोक वाजपेयी और मृदुला गर्ग। मित्रों की ओर से बोलने वाले राजनारायण बिसारिया। बाकी सब दिवंगत कवि के घर-परिवार के लोग थे, मित्र-बांधव, पत्नी रूपा वाजपेयी और बेटी अनन्या के परिचित। उनके अंतिम संस्कार में भी साहित्यकारों की उपस्थिति बड़ी दयनीय थी। … इतना बड़ा कवि क्षितिज गुंजा देने वाला अभिव्यक्तिसमर्थ कवि, इतनी बड़ी दिल्ली और साहित्यकारों का इतना छोटा दिल?’’ तब एक पत्रकार ने पूछा था, क्याक हो गया है हमारे समाज को? सारे धूप दीप नैवेद्य फेसबुक पर ही चढ़ा कर इतिश्री कर लेने का चलन बढ़ा है। और तब याद आया चाणक्य का नीति श्लोक : ‘’राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः ‘’ और यहां इतने बड़े साहित्यिक परिवार कहे जाने वाले समाज से सिर्फ दो या तीन लोग ! क्या साहित्य में इतने बंधु-बांधव नहीं बचे कि वे श्मशान तक विदा देने आ जाएं।
पर कुंवर नारायण के दाह संस्कार में तो पर्याप्त संख्या में लेखक पत्रकार संस्कृतिकर्मी व छात्र मौजूद थे। तब ऐसे अपविरुद फैलाने का क्या प्रयोजन ?
हो सकता है कुछ राज्यों में, कुछ भाषाओं के लेखकों को उनके लोगों का ज्यादा सम्मान हासिल हो और उनकी अंत्येष्टियो्ं में ज्यादा भीड़ उमडती हो पर जब हिंदी में जीते जी ही दसूरों का उपहास करने की प्रवृत्ति चल पड़ी हो और लोग ‘ ये आग लगाएंगे वे हवा देंगे’ की तर्ज पर परम आनंद का अनुभव करते हों और मरने पर ताल में वंशी डाले मछुआरे की तरह अंत्येष्टि की जनसंख्या गिनने पर आमादा हिंदी के ही लेखक हों तो एक दिवंगत लेखक के लिए तो इसका कोई फर्क नही पड़ता पर इससे हिंदी वालों की संकीर्ण मानसिकता और व्यर्थ छाती कूटने की मंशा का पता जरूर चलता है। मुझे ऐसे लोगों के प्रति जो इसी काम में अपनी रचनात्मक मेधा को हर संवेदनशील मौके पर प्रतिनियुक्त किए रहते हैं, अत्यंत क्षोभ है।’
कुल मिलाकर हिंदी के एक प्रतिष्ठित स्तम्भ के प्रति हिंदी बिरादरी का यह रवैया बताता है कि हिंदी इतनी दयनीय स्थिति में क्यों है।