कैसे बचेगा माय और महागठबंधन

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जैसा किसी ने नहीं सोचा, वैसा जनादेश बिहार की सियासत की नई पटकथा लिखने वाला है. एनडीए सूबे में 33 से ऊपर जाएगा, यह कहने वाले लोग तो कई थे, लेकिन उनके दावे में भरोसा कम झलकता था. वे पार्टी लाइन पर ऐसे दावे कर रहे थे, जबकि दूसरी तरफ  महागठबंधन खुलेआम खुद को आधी यानी 20 सीटों का दावेदार बता रहा था. लेकिन, जब ईवीएम से मोदी का जिन्न निकला, तो दोनों खेमे सिर्फ देखते रह गए. नरेंद्र मोदी का इतना ‘अंडर करेंट’ कोई खेमा महसूस नहीं कर सका.

नरेंद्र मोदी के जिन्न ने इस बार जाति का बंधन भेद दिया और सवर्ण, दलित, पिछड़े एवं अति पिछड़े यानी सभी उसमें समाहित दिखे. विश्लेषकों ने माना कि मोदी मैजिक ने सूबे में जाति का बंधन, खासकर मायसमीकरण बिखेर कर रख दिया. लालू प्रसाद की गैर हाजिरी ने मोदी के जादू को और भी प्रभावी बना दिया. यही वजह थी कि 40 में से 39 सीटों पर एनडीए का परचम लहरा गया. ऐसा पहली बार हुआ कि लोकसभा चुनाव मेें राजद अपना खाता तक नहीं खोल पाया. कांग्रेस की इज्जत किशनगंज में किसी तरह बच गई. उपेंद्र कुशवाहा, जीतन राम मांझी एवं मुकेश सहनी की पार्टी का तो सूपड़ा साफ  हो गया. तीनों खुद तो चुनाव हारे ही, बाकी उम्मीदवारों के लिए भी कुछ खास नहीं कर पाए. चुनाव में पड़े वोटों का सूक्ष्म विश्लेषण करने से पता चलता है कि रालोसपा, हम एवं वीआईपी राजद के मायके भरोसे ही रह गईं. उन्हें लगा कि मायका साथ मिलने से उनका दिल्ली का टिकट पक्का हो गया. लेकिन झटका तब लगा, जब मोदी के जिन्न ने मायको ही बिखेर दिया. हद तो तब हो गई, जब यादव बहुल क्षेत्र राघोपुर में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव के उम्मीदवार शिवचंद्र राम लगभग नौ हजार वोटों से पिछड़ गए. मोदी मैजिक का असर यह हुआ कि एनडीए के यादवों को जनता ने दिल्ली पहुंचा दिया और राजद के यादव योद्धा देखते रह गए. उजियारपुर से नित्यानंद राय, बांका से गिरिधारी यादव, मधेपुरा से दिनेश यादव, मधुबनी से अशोक यादव और पटना साहिब से राम कृपाल यादव चुनाव जीत गए. वहीं महागठबंधन खेमे की उम्मीदवार एवं लालू प्रसाद की बेटी मीसा भारती को पटना साहिब, तेज प्रताप के श्वसुर चंद्रिका राय को छपरा, जय प्रकाश यादव को बांका, शरद यादव को मधेपुरा, रंजीत रंजन को सुपौल, अर्जुन राय को सीतामढ़ी, गुलाब यादव को झंझारपुर, राजू यादव को आरा और विभा देवी को नवादा में शिकस्त खानी पड़ी.

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इसी तरह महागठबंधन से मैदान में उतरे कटिहार से तारिक अनवर, शिवहर से फैसल अली, दरभंगा से अब्दुल बारी सिद्दीकी, सीवान से हिना शहाब और अररिया से सरफराज आलम जैसे मुस्लिम उम्मीदवारों को भी हार का सामना करना पड़ा, जबकि खगडिय़ा से लोजपा के महबूब अली कैसर भारी बहुमत सेे जीत गए. महागठबंधन के उम्मीदवारों का यह हाल देखकर आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि लालू प्रसाद और राजद की पूंजी मायसमीकरण के वजूद पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं. यही पूंजी दूसरे दलों को राजद की ओर खींचती है. जब यह पूंजी ही लुट जाएगी, तो फिर पार्टी बचेगी कैसे और महागठबंधन का वजूद कैसे बचेगा? चुनाव शुरू होने से पहले लालू प्रसाद ने यह प्रयास किया था कि मायसमीकरण का दायरा बढ़ाया जाए. इसी कड़ी में जीतन राम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश सहनी को जोड़ा गया. लेकिन, चुनावी नतीजे बताते हैं कि इन नेताओं के वोट पूरी तरह एक-दूसरे को नहीं मिले. उक्त नेता राजद के वोट बैंक पर आश्रित होकर रह गए. इसके अलावा महागठबंधन के नेताओं के पास चुनाव प्रचार का कोई प्लान नहीं था. नामांकन के अंतिम दिन तक उम्मीदवार खोजे गए. तेेजस्वी को लगा कि मायका दायरा बढ़ाकर उन्होंने अपनी जीत सुनिश्चित कर ली है, इसलिए उन्होंने कभी इस चुनाव को पूरी गंभीरता से नहीं लिया. हद तो यह कि वह अपना वोट डालने तक नहीं गए. तथाकथित बड़े नेताओं ने अपने-अपने हिसाब से प्रचार किया. बड़ी जिम्मेदारी तेजस्वी के कंधे पर थी, क्योंकि वह महागठबंधन के नेता थे, लेकिन कई मौकों पर उन्होंने बचकाना हरकतें कीं. राहुल गांधी की जनसभाओं में उनका न पहुंचना दर्शाता है कि वह अहंकार से भरे थे. कुछ जनसभाओं में वह खराब स्वास्थ्य का हवाला देकर नहीं गए. गरीब सवर्णों को दस प्रतिशत आरक्षण को लेकर राजद का विरोध भी महागठबंधन की चुनावी संभावनाओं पर भारी पड़ा.

कांग्रेस के प्रवक्ता हरखू झा ने इस हार के लिए सीधे-सीधे तेजस्वी यादव को जिम्मेदार ठहराया है. हरखू झा के बयान से संकेत मिलने लगा है कि कांग्रेस अब बिहार में अपना रास्ता अलग करने वाली है. इस लोकसभा चुनाव में ही कांग्रेस पर स्वतंत्र रूप से लडऩे का जबरदस्त दबाव था, लेकिन अंतिम वक्त में राहुल गांधी ने मना कर दिया. लेकिन जैसे परिणाम आए हैं, उन्हें देखकर कांग्रेसी कहने लगे हैं कि अगर 2020 के विधानसभा चुनाव में कुछ करना है, तो पार्टी को अपने बलबूते मैदान में उतरना होगा. उपेंद्र कुशवाहा, जीतन राम मांझी एवं मुकेश सहनी को भी एहसास होने लगा होगा कि राजद अब उन्हें पहले जैसी तवज्जो नहीं देगा. बताया जाता है कि लालू प्रसाद ने उक्त नेताओं के खराब प्रदर्शन को काफी गंभीरता से लिया है, इसलिए निकट भविष्य में उक्त नेता सुविधानुसार अपना नया ठिकाना तलाश सकते हैं. वैसे भी मायसमीकरण के बिखराव से उक्त नेताओं का दिल छोटा हुआ है. अभी तो मिलकर लडऩे एवं आत्मचिंतन की बातें हो रही हैं, लेकिन जल्द ही इससे पर्दा उठेगा और सही तस्वीर सामने आ जाएगी. जानकार बताते हैं कि मीसा भारती और चंद्रिका राय की हार से लालू प्रसाद के पारिवारिक विवादों में इजाफा हो सकता है. तेज प्रताप इस मामले को लेकर आक्रामक हो सकते हैं. तेज प्रताप शुरू से चंद्रिका राय को टिकट देने का विरोध कर रहे थे और उन्होंने पटना साहिब में मीसा भारती के खिलाफ  भितरघात की आशंका भी जताई थी. इसलिए लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव को दोहरी चुनौती का सामना करना पड़ेगा. अपने समर्पित कार्यकर्ताओं का गिरा हुआ मनोबल उठाकर मायसमीकरण को एक बार फिर एकजुट करना और महागठबंधन को बचाना बहुत बड़ा टास्क है. साथ ही पारिवारिक विवादों को सुलझा कर एक बेेहतर माहौल बनाने की चुनौती भी सामने है. बिना शक, लालू यादव एवं तेजस्वी के लिए आने वाले दिन काफी कठिन हंै.

भाजपा को भाता है जदयू का साथ

नडीए के नेताओं का जोश इस समय सातवें आसमान पर है. मोदी मैजिक ने उन्हें सफलता के चरम शिखर पर पहुंचा दिया है. जानकारों के मुताबिक, इसमें कोई शक नहीं कि वोट नरेंद्र मोदी के नाम पर पड़े हैं, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि नीतीश कुमार के वोट बैंक ने सोने पे सुहागावाला काम किया. भाजपा को जदयू का साथ हमेशा रास आया है. 2009 में इन दोनों दलों को 32 सीटें मिली थीं. 2014 में एनडीए से अलग होकर मैदान में उतरे जदयू को मात्र दो सीटों से संतोष करना पड़ा था, जबकि एनडीए को 31 सीटें मिली थीं. इस बार जदयू के फिर साथ आने से एनडीए की ताकत बढ़ गई, उसे लगभग 53 प्रतिशत वोट मिले. इसमें भाजपा के 23.6, जदयू 21.8 और लोजपा के 7.88 प्रतिशत वोट शामिल हैं. 2014 में तीन प्रतिशत वोट हासिल करने वाली रालोसपा ने जब एनडीए का साथ छोड़ा, तो पिछली बार 15.80 प्रतिशत वोट पाने वाला जदयू उसके साथ जुड़ गया. इस बार के नतीजों से साफ  है कि जदयू के साथ होने का असर पड़ा और एनडीए की सीटें 31 से बढक़र 39 हो गईं. राजद को 15.38 और कांग्रेस को 7.7 प्रतिशत वोट मिले, जबकि अन्य को 21.68 प्रतिशत.

2009 में कांग्रेस और राजद अलग-अलग चुनाव लड़े, तब भी कांग्रेस को 10.26 प्रतिशत वोटों के साथ दो सीटें मिलीं. 2014 में दोनों दल एक साथ लड़े, तब भी दो सीटें मिलीं. जबकि वोट प्रतिशत घटकर 8.4 रह गया. 2009 में लोजपा के साथ 28 सीटों पर चुनाव लडक़र राजद ने 19.30 प्रतिशत वोटों के साथ चार सीटें जीती थीं और 2014 में वह कांग्रेस के साथ मिलकर 27 सीटों पर चुनाव लड़ी, लेकिन विजय सिर्फ चार सीटों पर मिली. वोट प्रतिशत (20.10) में मामूली सुधार जरूर हुआ. लोजपा को 2009 में 12 सीटों पर महज .45 प्रतिशत वोट मिले, लेकिन जीत एक भी सीट पर नहीं मिली. 2014 में एनडीए का हिस्सा बनकर सात सीटों पर लडऩे वाली लोजपा छह पर विजयी हुई और उसके वोटों की हिस्सेदारी बढक़र हो गई 6.40 प्रतिशत. जाहिर है, यह मोदी का करिश्मा था. इस बार भी लोजपा उम्मीद से ज्यादा यानी सौ प्रतिशत मैदान मार ले गई. जदयू 2014 में एनडीए से अलग होकर अकेले चुनाव लड़ा. 38 सीटों पर उसके उम्मीदवारों को 15.80 प्रतिशत वोट मिले, लेकिन जीते मात्र दो. जबकि 2004 और 2009 में एनडीए के साथ जदयू ने क्रमश: 24 में छह और 25 में 20 सीटें जीती थीं. 2004 में भाजपा ने 16 में पांच और 2009 में 15 में 12 सीटें जीती थीं. इस बार एनडीए के घटक दलों में भाजपा (17 सीटें) और लोजपा (6 सीटें) का स्ट्राइक रेट 100 प्रतिशत रहा, वहीं जदयू का स्ट्राइक रेट 94 प्रतिशत (17 में 16 पर जीत) रहा.

One thought on “कैसे बचेगा माय और महागठबंधन

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