संध्या द्विवेदी
सोने के सिक्कों, चांदी के सिक्कों की अर्थव्यवस्था। अनाज के बदले जरूरत की चीजों को खरीदने की अर्थव्यवस्था। गिलट के, एल्युमिनियम के, लोहे के सिक्कों की अर्थव्यवस्था। कागज के नोटों की अर्थव्यवस्था। अब कुछ ही प्रतिशत सही पर प्लास्टिक के कार्ड की अर्थव्यवस्था। इस अर्थव्यवस्था को बिना नकदी की अर्थव्यवस्था कहते हैं। जहां रकम का स्वरूप कागज या कोई धातु न होकर इलेक्ट्रॉनिक हो जाता है। यानी अर्थव्यवस्था एक बार नहीं बल्कि कई बार बदली है। या यों कहें कि अर्थव्यवस्था परिवर्तनीय है। अर्थव्यवस्था की इस परिवर्तनीय व्यवस्था का जिक्र इसलिए जरूरी था क्योंकि नोटबंदी के बाद देश में कैशलेस इकोनॉमी यानी नकदी विहीन अर्थव्यवस्था की चर्चा जोरों पर है। फरवरी में केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली ने भी इसका जिक्र किया तो कुछ महीने पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मन की बात में भी इसका जिक्र किया था। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि नकदी अर्थव्यवस्था की तरफ कदम बढ़ाने की बात कही गई है, न कि कोई तुगलकी फरमान जारी किया गया है। कैशलेस इकोनॉमी का जिक्र होने के बाद अर्थशास्त्री दो धड़ों में बंट गए। एक धड़ा इसका धुर विरोधी है तो दूसरा धड़ा इसका समर्थक।
लोग आगे आकर अपनाएंगे
सीआरआईएसआईएल यानी क्रेडिट रेटिंग इनफॉर्मेशन आॅफ इंडिया लि. के चीफ इकोनॉमिस्ट डी.के. जोशी बिना नकदी अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ते कदमों को अर्थव्यवस्था के लिए सकारात्मक बदलाव मानते हैं। उनसे जब पूछा गया कि क्या भारत जैसे देश में कैशलेस इकोनॉमी मुमकिन है? तो उनका जवाब था, ‘बिल्कुल मुमकिन है। पूरे विश्व में इस तरह की अर्थव्यवस्था के उदाहरण मौजूद हैं।
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