निशा शर्मा । मैं छोटे से गांव की एक लड़की हूं, जो पहाड़ों में पली-बढ़ी। जिसका सपना था कि वो उस दुनिया को जान सके जो मेरे गांव के बाहर की है। पहाड़ों से बाहर की है, वो दुनिया खूबसूरत भी है, आकर्षक भी है। मेरी चाहत थी कि मैं भी उस दुनिया का हिस्सा बनूं। लेकिन मैं एक लड़की थी। एक छोटे से गांव की लड़की।
यही नहीं शायद मैं एक घर में दूसरी बेटी (रंगोली बड़ी बहन के बाद) जिसके होने पर शायद ही किसी ने खुशी जताई हो। लेकिन फिर भी मैंने खुद को खुद – सा जिया है। मैं अपने साथ की उन लड़कियों सी नहीं रही जिन्होने स्कूल जाने के बाद घर संभाला है। मैं अपने हक और असमानता के उस नजरिये के लिए लड़ी हूं। जो मुझमें और मेरे भाई के लिए रखा जाने लगा था। मैं ऐसी ही हूं। बिल्कुल खुद जैसी।
अपनी मंजिलें खुद बनाने ओर तय करने वाली। मैंने अपने घर से बगावत शुरू की थी। सोलह साल की उम्र में अपनी मंजिल को तलाशने की शुरूआत मेरा, परिवार के खिलाफ जाने का बड़ा कदम था। मैं खुद को तलाश रही थी। मुझे अलग दिखने का, अलग लगने का शौक था। मैं कपड़ों का खुद पर एक्सपेरिमेंट करती रही और ऐसे ही मैं मॉडलिंग का हिस्सा हो गई।
मॉडलिंग मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा उस समय से ही थी, जब मैं स्कूल में पढ़ती थी। कपड़ों को अलग औऱ अनूठे तरह से पहनना जब मेरा शौक था। लेकिन ये नीरस था अपने शरीर सा नीरस । उस समय मैं एक सोलह साल की लड़की थी जिसके मुंह पर दाने, शरीर में कईं अनचाहे बदलाव, बोझिल शरीर जिसको ढोने जैसा महसूस होता था।
वक्त दो साल और आगे चला गया मैं उन्नीस की हुई, तब एक बीज जो तह में था फटा और उसमें से एक कलाकार बाहर आने के लिए उत्सुक होने लगा वो मैं थी। मुझे कुछ ऐसा करना था जो मुझे सकून दे सके। कुछ क्रिएटिव हो और एक दिन मेरे कदम थियेटर की ओर बढ़ गए। ये थियेटर मुझे मेरी मंजिल तक ले जाने की पहली सीढ़ी थी। ये वो दौर था जब मैंने मटरगश्ती करते हुए रातों से संवाद किया है । मुझे आवारा कहा जा सकता है, उस चांद की तरह जो रात मैं निकलता है । मेरे लिए ये मायने नहीं रखता कि लोग मुझे क्या कहते हैं, मेरे लिए ये मायने रखता है कि मैं क्या हूं।
ये सच है कि मैं विद्रोही हूं उस समाज मैं जहां लड़कियां सिर्फ घर की इज्जत हैं, मैं विद्रोही हूं उस सिनेमा जगत में जहां लड़कियों को उनकी मंजिल तक जाने के रास्तों को मुश्किल नहीं नामुमकिन किया जाता है। ऐसे ही माहौल मैं खुद को स्थापित करना चुनौती रही मेरे लिए। पर मैं कठोर थी अन्दर से। चकाचौंध से मुझे प्यार जरूर था लेकिन इसका मुझे अनदेखा करने का दर्द असहनीय था। जिसकी कीमत मैंने अपने सकून को देकर चुकाई। मैं कईं बार गिरी, गिरकर कईं बार उठी और कईं बार अपने जख्मों के दर्द को सिर्फ अपने पास रहने दिया ताकि कोई मुझे कमजोर ना समझे।
मैं किसी ऐसे परिवार का हिस्सा नहीं हूं जिसके नाम या काम पर मैंने मुकाम हासिल किया हो। मेरी सफलता में मेरे साथ दुनिया रही लेकिन मैंने असफलता का दुख खुद को मजबूत करके जिया है। मैं लड़ाकी हूं, अपने लिए लड़ना मुझे खूब आता है क्योंकि मैंने अपना मुकाम खुद चलकर तय किया है। कितनी आहें, कितना दुख, कितनी भूख- प्यास मैंने सही है, मेरा आईना इससे वाकिफ है और बहुत अच्छी तरह वाकिफ है।
गाली-गलोच, मार- पिटाई मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा हो सकते हैं। मैं मानती हूं कि मैं सभ्य नहीं हूं, ऐसे दोगले समाज में जो दिखावे की जिन्दगी जीता है। मैं जैसी हूं, मैं वैसी नजर आती हूं। साफगोई मेरी पहचान है। मैं नहीं कहती कि कोई मुझे खुद सा जाने। मैं चाहती हूं कोई मुझे, मुझ सा जाने। सभ्यता के उन ठेकेदारों से इतना जरुर कहना चाहती हूं कि मैं उन सबकी तरह हक रखती हूं, जो रिश्ते अपने हिसाब से रखते और तोड़ते हैं। ऐसा सभी अपनी जिन्दगी में करते भी हैं और मैंने भी किया है। ये सच है कि मैं हर उस विद्रोह का हिस्सा हूं, या मैं विद्रोही हूं उसके लिए जो एक औरत की गरिमा को ठोस पहुंचाता है। मुझमें लड़की होने का डर नहीं हैं, मैं इस समाज मैं बेखौफ हूं। इतनी बेखौफ कि अगर तुम सर्वहारा पुरूष हो इस जगत के, तो मैं भी कंगना हूं ।