रंगों में बसे और सादगी का रंग ओढ़े जतिन दास को कौन नहीं जानता। रंगों से खेलना उनकी दिनचर्या है, उनका जुनून है, उनकी आदत है। फिर भी वे खुद को कालाकार नहीं मानते। उनका कहना है कि कला साधना है जिसमें उम्र की आहुति देनी पड़ती है। उनके मुताबिक वह एक चित्रकार हैं और कलाकार बनने के रास्ते पर प्रयासरत हैं। आर्टिस्ट्स एंड फ्रेंड्स विषय पर उन्होंने हाल में नई दिल्ली में 500 कलाकृतियों की प्रदर्शनी लगाई। इस दौरान निशा शर्मा ने उनसे बातचीत की
इस प्रदर्शनी का विषय ‘दोस्त और कलाकार’ क्यों चुना?
जो कलाकार हैं वे भी मेरे दोस्त हैं और जो दोस्त हैं वे कलाकार भी हैं। इस प्रदर्शनी में मेरे दोस्तों के पोट्रेट हैं जिन्हें मैं बनाकर भूल गया था। अकसर मैं अपनी पेंटिंग्स बनाकर रख देता हूं और फिर उन्हें नहीं देखता। ऐसा इन पोट्रेट के साथ भी हुआ। मेरा खुद का स्टूडियो नहीं है तो कई बार आपको स्टूडियो बदलना पड़ता है। ऐसे ही एक बार मैं अपना स्टूडियो बदल रहा था तो मेरे एक असिस्टेंट ने कहा कि आपके पास बहुत पोट्रेट हैं, क्यों नहीं इनकी प्रदर्शनी लगाते हैं। तब मैंने ये पोट्रेट इक्ट्ठा किए जो करीब 800 की संख्या में थे।
क्या आपके दोस्त इस प्रदर्शनी को देखने आए? उनकी कैसी प्रतिक्रिया रही?
कुछ देखने आए लेकिन बहुत से इस दुनिया में नहीं हैं। जिन्होंने देखा वे खुद को मेरे चित्रों में ढला हुआ पाकर बहुत खुश हुए।
आपकी पहली प्रदर्शनी कहां और कब लगी, आपके मित्र कौन-कौन रहे हैं?
जेजे स्कूल में एक नई गैलरी खुली थी जिसके उद्घाटन में मेरे स्केच को जगह मिली थी। वह मेरी पहली सोलो प्रदर्शनी थी। मेरे बहुत मित्र रहे हैं। कला, आर्किटेक्चर और मूर्तिकला के क्षेत्र से अध्यापक और छात्र मेरे दोस्त थे। हम सब में लगन और मेहनत से काम करने का जज्बा था। हम में से किसी का भी कभी यह मकसद नहीं रहा कि हम आर्टिस्ट बनें या पैसा कमाएं। मुझे मेरे दोस्तों ने बहुत कुछ दिया है। एक बार की बात है, साइंटिस्ट डॉ. भाभा मेरे स्टूडियो मेरा काम देखने आए थे। इसके बाद मैंने बॉम्बे आर्ट सोसायटी, जहांगीर आर्ट गैलरी में शो किए। अब तक सिर्फ एक बार मैंने डच एंबेसडर से अपने शो का उद्घाटन करवाया था। उसके बाद आज तक कभी किसी से उद्घाटन नहीं करवाया।
पेंटिग बनाने के लिए आपको सबसे ज्यादा क्या चीज प्रेरित करती है?
रचनात्मकता, मूड, प्रेरणा के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं हैं। मैं रोज सोचता हूं कि मैं पहली बार चित्रकारी करने जा रहा हूं। मैं बहुत कुछ आत्मसात करता हूं जिसमें हमारी संस्कृति, समकालीन रीति रिवाज और बहुत कुछ है जो आपके आस-पास है। मुख्यत: मैं मानव कृति बनाता हूं, मैं रंगों से उस चीज को गढ़ता हूं जो मुझे उत्साहित करती हैं। किसी जगह की सिर्फ आकृतियां ही नहीं, स्वाद और गंध भी मुझे आकर्षित करती है।
आपकी चित्रकारी में किस रंग की क्या खासियत है?
मैं रंग देखकर चित्रकारी नहीं करता। जहां मुझे लगता है वो रंग उसमें भरता हूं। हर रंग अपने में खास होता है। हर कलाकार का अपना तरीका होता है अपनी कला के लिए। इसमें कोई गणित नहीं है जो सब के लिए एक जैसा हो।
आपकी मंजिल मुंबई थी तो दिल्ली आना कैसे हुआ?
हां, मेरी मंजिल मुंबई जरूर थी। मैं अपने पैतृक प्रदेश ओडिशा से मुंबई की ओर निकला था। जब आप अपने काम में मशगूल होते हैं तो आपको पता नहीं होता कि आप कहां हैं और किस शहर में हैं। ऐसा मेरे साथ होता है। मैं जहां हूं वहां होकर भी नहीं होता। एक बार मेरी मित्र पुपुल जयकर ने मुझे दिल्ली में हैंडक्रॉफ्ट और हैंडलूम एक्सपोर्ट कॉरपोरेशन का आर्ट कंसल्टेंट बनने के लिए बुलाया। उस समय दिल्ली की कुमार आर्ट गैलरी सबसे मानी और सम्मानजनक गैलरी हुआ करती थी। उन्होंने मेरे काम को लोगों के सामने रखा। मकबूल फिदा हुसैन पहले ऐसे कलाकार थे जो मुंबई से दिल्ली आए थे और मैं दूसरा, जिसने मुंबई से दिल्ली का रुख किया था। इसी तरह कई कलाकार दिल्ली आए और हमने उनके लिए जगह तलाशी। नई दिल्ली मुंबई से बिल्कुल अलग शहर है। जब मैं दिल्ली आया था तो यह एक सोता हुआ शहर था, यहां मुंबई की तरह भागदौड़ नहीं थी। यहां हम सब दोस्त मिलकर कॉफी पीने या घूमने निकलते थे। निजामुद्दीन कलाकारों के लिए खास जगह बन गया था क्योंकि हम सभी कलाकार एक दूसरे के आस-पास ही रहते थे। राम कुमार, राज रेवॉल, अल्काजी, कृष्णा खन्ना, डागर ब्रदर्स, उस्ताद असद अली खान जैसे कलाकारों का गढ़ बन गई थी यह जगह। ऐसा नहीं था कि हम सिर्फ आर्ट को लेकर ही बातें करते थे। हम एक साथ मिलकर सब्जियां, मीट खरीदते थे। सब एक दूसरे की मदद के लिए एक साथ खड़े होते थे।
क्या आपको लगता है कि कला और कलाकारों में बदलाव आया है?
बिल्कुल, बहुत बदलाव आया है। अब लोग पैसे के लिए कलाकार बन रहे हैं। अगर आप किसी को अपना काम देखने के लिए बुलाते हैं तो उसे क्लाइंट कहा जाता है। अब इस खेल में बहुत खिलाड़ी आ गए हैं। कला के छात्र कमर्शियल आर्ट में ज्यादा रुचि ले रहे हैं और विदेशों में जाकर कला में निवेश की पढ़ाई कर रहे हैं। ऐसे शब्द हमारे समय में नहीं थे। हमारे समय में लोग हमारा काम देखने के लिए स्टूडियो आते थे, कई बार आते थे और पैसे किस्तों में देते थे। पर कोई कम या ज्यादा पैसे की बात नहीं करता था। वह समय सौहार्द का था न कि व्यापार का। आज का युवा कहता है कि हम अपनी जीविका के लिए समझौता कर लेते हैं। हालांकि मैंने अपना बहुत कम काम बेचा है। मैं सोचता हूं कि मैं कला के व्यापार मेले में नहीं हूं जहां मैं अपना काम बेचूं क्योंकि मैं बेचने के लिए पेंटिंग नहीं बनाता हूं और न ही पैसा कमाने के लिए। मैं बनाता हूं, वह फिर बिकती हैं, न कि बिकती हैं इसलिए बनाता हूं। इस बात को समझिए, आजकल की मार्केट का सारा मामला समझ में आ जाएगा।
कला क्षेत्र में शिक्षा के योगदान पर क्या कहना चाहेंगे?
पढ़ाई से पहले चाहत आपको कलाकार बनाती है। आपके आस-पास इतना कुछ है लेकिन आप देख ही नहीं पाते हैं। अगर अपने आस-पास की चीजों की धड़कन ही सुन ली जाए तो आप कलाकार हो जाएंगे। हम दबाव देकर बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर बनाते हैं लेकिन हम कभी नहीं कहते कि कलाकार बनो। पढ़ाई सिर्फ नौकरी के लिए की जा रही है, किसी कला के लिए नहीं। तो वे कैसे कलाकार बनेंगे। अपनी संस्कृति को लोग भूल रहे हैं। आज के समय में अपनी मातृभाषा बच्चों को नहीं आती, अपने रीति रिवाजों का नहीं पता, अपने खाने-पहनावे का नहीं पता, ऐसे में वे कैसे अपनी कला में विविधता ला सकते हैं। मैं यह नहीं कहता कि अंग्रेजी मत सीखो, पश्चिम की संस्कृति को मत अपनाओ लेकिन अपनी संस्कृति को भी याद रखो। मुझे कई भाषाएं आती हैं, अपने घर की, समाज की कई चीजों से मैं वाकिफ हूं। लेकिन अब बच्चों में न ऐसा सीखने की ललक है न जानने की। फिर वे मुझसे कहते हैं कि आप कैसे ऐसी पेंटिंग्स बना लेते हैं। इसके लिए जरूरी है अपने आस-पास की चीजों को समझना और प्रकृति से प्रेम करना, लोगों से प्रेम करना, अपनी संस्कृति को बचाए रखना।
क्या कारण है कि अब आप बहुत कम शो करते हैं?
पहला कारण तो यही है कि कला व्यापार हो गया है इसलिए मैं व्यापार से दूर रहता हूं। दूसरा मुंब्६ाई में जब शो करता था तो मेरे दोस्त जिनमें सुखदेव, चारी, प्रताप शर्मा, डॉम मोरेस, लीला नायडू आदि जो अब इस दुनिया में नहीं हैं, मेरे शो को देखने आते थे। यह उसी तरह है जैसे एक संगीतकार गा रहा होता है और श्रोताओं की भीड़ में अपने दोस्तों को देखता है और कहता है आगे की पंक्ति में बैठो क्योंकि वह जानता है कि उसके दोस्त उसके संगीत को समझते हैं और बाद में उसकी प्रशंसा करेंगे। इसी तरह जब मैं शो करता हूं तो सोचता हूं कौन मेरा शो देखेगा। हालांकि शो सबके लिए खुला है लेकिन जब मैं अपने दोस्तों के बारे में सोचता हूं कि वे होते तो क्या कहते। यह बहुत व्यक्तिगत अनुभव है लेकिन मैं ऐसा मानता हूं। साथ ही मैं मानता हूं कि किसी भी रचनात्मक इंसान को लाइम लाइट, लोगों की भीड़ से दूर रहना चाहिए ताकि वह खुद को आजाद महसूस करे और अपनी अभिव्यक्ति को कला में उतार सके।
अब दिल्ली में कब आपका शो देखने को मिलेगा?
अब मैं जल्दी दिल्ली में कोई शो नहीं करूंगा क्योंकि मेरे स्टूडियो में मेरे लिए काम बहुत बचा हुआ है जिसे करना है।
पंखा संग्रह पर क्या कहना चाहेंगे?
हाथ के बने पंखों का संग्रह मैंने देश-विदेश से किया है। करीब 6,000 पंखों का संग्रह मेरे पास है। इसे मेरी मूर्खता ही कहेंगे। करीब 40 साल पहले मुझे किसी ने हाथ का बना पंखा दिया था जिसके बाद मैंने सोचा कि इन पंखों को इकट्ठा करूंगा। हर पंखे की अपनी कहानी है। अब जब मैं देखता हूं तो पाता हूं कि दुनिया में मेरे पास सबसे बड़ा पंखा संग्रह है। इस संग्रह को यूरोप और दक्षिण एशिया में दिखाया जा चुका है। अगर सरकार इसके लिए म्यूजियम बनवा दे तो मैं यह संग्रह मुफ्त में देने के लिए तैयार हूं।