“मैं तब तक लड़ती रहूंगी जब तक सांस है” (महिला दिवस पर विशेष)

निशा शर्मा।

भारत प्रशासित जम्मू-कश्मीर में साठ साल की परवीना आहंगर पिछले 27 सालों से अपने बेटे की खोज में हैं। परवीना का आरोप है कि 18 अगस्त, 1990 की रात को सेना के जवान 17 साल के उनके बेटे जावेद अहमद आहंगर को उठा कर ले गए थे और अब तक उनके बेटे का पता नहीं चल पाया है। दो दशक से परवीना महीने की दस तारीख को श्रीनगर के प्रताप पार्क में सैंकड़ों लोगों के साथ खामोशी से प्रदर्शन करती हैं।

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परवीना कहती हैं कि मुझे उम्मीद है कि मेरा बेटा एक दिन जरुर लौटकर आएगा। अल्लाह के घर में देर हैं अधेर नहीं। जिस दिन मैं अपने बेटे को ढूंढने निकली थी तो मैंने अल्लाह से कहा था कि ‘मैं एक औरत हूं मेरी हिफाज़त करना, मुझे मरना है डरना नहीं’।

मेरे साथ खड़ा होने वाला कोई नहीं था मैं अकेली थी। मेरे सच को झूठ बनाकर पेश किया जाता रहा और वो अपने झूठ को सच बनाकर पेश करते रहे। एक अकेली औरत क्या कर सकती थी, पर मैंने अपना हौसला नहीं छोड़ा। मैंने हर वो दरवाजा खटखटाया जहां से मुझे उम्मीद की एक किरण दिखाई दी। लेकिन मुझे मेरा बेटा नहीं मिल पाया। सब कानून, प्रशासन, हकूमतें बदली पर मुझे इंसाफ नहीं मिला।

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परवीना ने बीते दो दशक के दौरान ऐसे सैकड़ों लोगों को एकजुट किया है जिनके परिजन सालों से लापता हैं। परवीना कहती हैं कि ‘मैंने ‘एसोसिएशन ऑफ़ पैरेंट्स ऑफ़ डिसएपियर्ड पर्सन्स (एपीडीपी)’ बनाई ताकि मेरे जैसे परेशान लोगों को एक जगह मिल जाए बात करने के लिए, अपनी आवाज़ बुलंद करने के लिए और हम सब जब महीने की दस तारीख को मिलते हैं तो मिलकर अपनी बात को रखते हैं। एक साथ इक्ट्टठे होकर एक दूसरे को तसल्ली देते हैं कि हमारे खोये हुए हमें एक दिन जरुर मिलेंगे।”

सरकार से आपने गुजारिश की ? क्या कहती है सरकार के जवाब में परवीना का गला भर जाता है वह कहती है दो दशक से ज्यादा मुझे कश्मीर में अपने हक के लिए लड़ते हुए हो गए। हमारे लिए हुकूमतों ने कुछ नहीं किया, बस मुआवजों की पेशकश के अलावा। बेटे के बदले एक लाख की पेशकश कौन-सी मां स्वीकार कर लेगी बताइये। कोई कानून  नहीं बना उन दरिंदों के लिए जिन्होंने बेटियों की इस्मत लूटी, जिन्होंने हमारे बच्चों को अगवा कर लिया, जिन्होंने उन बच्चियों की आंखे छिन ली जो जिन्दगी भर के लिए मां-बाप के लिए बोझ हो गईं। हमारे लिए कानून है। उनके लिए कानून क्यों नहीं जो मानवता को कुचलते हैं? मैं कहती हूं सरकार से मुझसे पांच लाख रुपए ले लो। मैं अपना घर बेच दूंगी लेकिन मेरा बेटा लौटा दो।

मेरी लड़ाई पैसे के लिए नहीं है, नौकरी के लिए नहीं है अपने हक के लिए है। एक मां से पूछो, मुझसे पूछो जिसको रात को नींद नहीं आती है यह सोचकर कि उसका बच्चा कहां होगा, किस हाल में होगा। मेरे पास वो जख्म हैं जिनका दर्द मुझे आज भी जिंदा रखे हुआ है।

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यहां अगर कोई आर्म फोर्स का बंदा मर जाएगा तो उसे शहादत मिलती है, कब्रिस्तान मिलता है। मेरे बेटे को तो वह भी नसीब नहीं क्योंकि कोई नहीं बताता कि हमारा बच्चा जिंदा है या मार दिया गया। लेकिन मेरी उम्मीद कहती है कि मेरा बेटा एक दिन जरुर वापिस आएगा।

मैं अपने इस हक के लिए लड़ती रहूंगी और तब तक लड़ूंगी जब तक मुझ में आखिरी सांस है।

परवीना का नाम 2005 में नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामित हो चुका है। महज पांचवीं तक पढ़ीं परवीना ने 27 सालों तक शांति का रास्ता अपनाया है। हालांकि उन्हें अफसोस नहीं है कि उनके हाथ क्या लगा लेकिन वह उन लोगों का विरोध जरुर करती हैं जो अपने हक की बात करने के लिए पत्थरबाजी जैसे तरीके अपनाते हैं। वह कहती हैं कि यहां पत्थरबाजी से आज के युवा अपना बहुत कुछ गवा चुके हैं। उन्हें शांति प्रदर्शन का रास्ता अपनाना चाहिए ताकि देश ही नहीं दुनिया भी उनकी बात सुने।

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