भारत-पाक बंटवारे की मार अब भी बरकरार

विजय क्रांति

हर साल नवंबर के चौथे रविवार को नई दिल्ली के लाजपत नगर रेलवे स्टेशन के सामने एक भवन में एक अनूठी प्रार्थना सभा होती है। इस प्रार्थना सभा में चार पीढ़ियों के लोग हिस्सा लेते हैं। सबसे बजुर्ग पीढ़ी वह जिसे जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के बावजूद अपने घर और अपनी जड़ों को खोकर शरणार्थी बनना पड़ा था। विभाजन के दंगों की आग बुझने के तीन महीने बाद उनके राज्य पर हुए पाकिस्तानी हमले के कारण उन्हें उस इलाके से भागना पड़ा जिसे आज भारत में पाकिस्तान अधिकृत जम्मू कश्मीर (पीओके) कहा जाता है और पाकिस्तान उसे आजाद-कश्मीर कहता है। बाकी लोग उन तीन पीढ़ियों के हैं जिनका अपने इस पुश्तैनी इलाके से रिश्ता केवल सुनी हुई यादों और भारत-पाकिस्तान के आपसी विवादों में बसता है।

यह प्रार्थना सभा उन पचास हजार से ज्यादा लोगों की याद में होती है जो पाकिस्तानी सेना और उसके कबायली सहयोगियों के हाथों सिर्फ इस कारण मारे गए क्योंकि तत्कालीन भारत सरकार और जम्मू-कश्मीर सरकार के भाग्यविधाता अपने इन नागरिकों की जान बचाने और उनके इलाके की रक्षा के लिए पुलिस, फौज और प्रशासन की तैनाती ही भूल गए थे। इतिहासकार आज तक इस सवाल का जवाब नहीं ढूंढ पाए कि विभाजनजनित दंगों के खत्म होने के तीन महीने बीतने के बावजूद और ऐसे दंगों का ताजा अनुभव होते हुए भी भारतीय इतिहास के इस सबसे बड़े हत्याकांड को क्यों नहीं रोका जा सका? स्वाभाविक है कि वक्त बीतने के साथ इस नरसंहार के चश्मदीद गवाहों की संख्या हर साल लगातार कम होती जा रही है।

शेख अब्दुल्ला सरकार ने इन लोगों को यह कहते हुए राज्य से बाहर भागने पर मजबूर कर दिया कि उसके पास इतनी बड़ी संख्या में शरणार्थियों का पुनर्वास करने की सुविधा नहीं है

10 फीसद बनाम 90 फीसद

मीरपुर बलिदान भवन के नाम से मशहूर यह छोटा सा भवन अपनी हवा में जम्मू-कश्मीर के इतिहास के एक महत्वपूर्ण अध्याय की इबारत को बसाए हुए है। यह वह अध्याय है जिसे न तो भारत सरकार के बड़े नेताओं ने कभी याद रखने की कोशिश की और न जम्मू-कश्मीर के विवाद की आग में आए दिन बारूद झोंकने वाले उन कश्मीरी नेताओं, अलगाववादियों और भारत के स्वयंभू बुद्धिजीवियों ने देश को याद करने दिया जो इस राज्य के मात्र 10 फीसदी इलाके में फैली कश्मीर घाटी को छोड़ बाकी 90 प्रतिशत इलाके में बसे जम्मू और लद्दाख की हैसियत स्वीकार करने को भी तैयार नहीं हैं।

इस बलिदान भवन में नवंबर, 1947 के दौरान मीरपुर में शहीद हुए लोगों की स्मृति में स्तंभ बनाया गया है। लेकिन पिछले कुछ साल से मीरपुर के अलावा मुजफ्फराबाद, भिम्बर, कोटली, देव बटाला और पीओके के दूसरे शरणार्थी समाजों के सदस्य भी यहां हर साल श्रद्धांजलि देने आते हैं। ऐसे ही कुछ भवन चंडीगढ़, पठानकोट और कुछ अन्य शहरों में भी हैं जहां पीओके समाज के लोग जा बसे हैं। इन स्मारकों का निर्माण उस छोटे से मीरपुरी शरणार्थी समाज ने किया है जिसे पहले तो 1947 में पाकिस्तानी सेना और कबायली हमलावरों ने मीरपुर और आसपास वाले इलाके से खदेड़कर भगा दिया था। बाद में शेख अब्दुल्ला की सरकार ने इन लोगों को यह कहते हुए राज्य से बाहर भागने पर मजबूर कर दिया कि उसके पास इतनी बड़ी संख्या में शरणार्थियों का पुनर्वास करने की सुविधा नहीं है।

मीरपुर में शहादत देने वालों की स्मृति में बना स्तंभ
मीरपुर में शहादत देने वालों की स्मृति में बना स्तंभ

शेख अब्दुल्ला की कट्टरपंथी असलियत

लेकिन इस समाज की मान्यता है कि कट्टरपंथी इस्लामी विचारधारा के लिए बदनाम हो चुके शेख अब्दुल्ला ने इन लोगों को जम्मू-कश्मीर से बाहर महज इस कारण भगा दिया था क्योंकि ये सभी शरणार्थी या तो हिंदू थे या सिख। इस आरोप पर सहमति की सबसे बड़ी मुहर मुजफ्फराबाद से भगाया गया शरणार्थी समाज लगाता है जो पाकिस्तानी हमले का सबसे पहला शिकार हुआ था। इस हमले के पहले चार दिन के भीतर 25 से 30 हजार लोग मारे गए। श्रीनगर से एकदम सटे हुए मुजफ्फराबाद पर 23 नवंबर के पहले हमले के बाद जो बचे खुचे हिंदू और सिख शरणार्थी श्रीनगर पहुंचे, उन्हें राज्य के तत्कालीन प्रीमियर शेख अब्दुल्ला ने यह कहते हुए कश्मीर घाटी में नहीं रुकने दिया कि घाटी में इन लोगों के बसने से कश्मीर घाटी की कश्मीरियत फीकी हो जाएगी।

शरणार्थी का हक नहीं

मुजफ्फराबाद और मीरपुर से आने वाले शरणार्थियों जैसी हालत का सामना पाकिस्तान के कब्जे में छूट गए भिम्बर, कोटली और देव बटाला जैसे दर्जनों इलाकों के अलावा पुंछ, झंगड़ और राजौरी के सीमावर्ती इलाकों से आए उन शरणार्थियों को भी करना पड़ा जिनके गांवों पर या तो पाकिस्तान ने कब्जा कर लिया था या जो इस युद्ध की सीधी चपेट में आ गए थे। एक अनुमान के अनुसार पीओके से आए शरणार्थियों की कुल संख्या लगभग 20 लाख थी। इनमें से केवल 8 लाख लोग ऐसे थे जो राज्य में बसने में कामयाब रहे। लेकिन अपने पुश्तैनी जम्मू-कश्मीर से भगाए जाने के बाद शेष भारत में बसे ऐसे शरणार्थियों की संख्या आज 12 लाख के करीब है जो दिल्ली, मुंबई, भोपाल, पठानकोट, चंडीगढ़, कोलकाता और बनारस समेत पूरे भारत में फैले हुए हैं। 68 साल बीतने के बाद इस समाज के सदस्यों को जम्मू-कश्मीर का नागरिक माना जाना तो दूर, केंद्र और राज्य सरकार उन्हें आज तक शरणार्थी का दर्जा देने को भी तैयार नहीं हैं।

इस समाज के सदस्यों को शरणार्थी का दर्जा देने का सवाल उठते ही कश्मीर घाटी का नेतृत्व भारत का नक्शा दिखाते हुए केंद्र सरकार के इस दावे को दोहराता है कि पीओके भारत का अभिन्न अंग है। लिहाजा ये लोग शरणार्थी नहीं बल्कि अपने ही देश के विस्थापित लोग हैं। यही कारण है कि इन शरणार्थियों को आज तक पीओके में छूट गई उनकी संपत्तियों का हर्जाना नहीं दिया गया, जैसा पश्चिमी पंजाब, पूर्वी बंगाल, सिंध, मुलतान और झंग से आने वाले हिंदू-सिख शरणार्थियों को दिया गया था। यहां तक कि मीरपुर में बने मंगला डैम में समाने वाली जमीनों के लिए जब विश्व बैंक ने भारत में मीरपुरी शरणार्थियों को हर्जाना देने का प्रस्ताव रखा तो भारत सरकार ने उन्हें हर्जाना लेने से इस आधार पर रोक दिया कि इससे पीओके पर भारत का दावा कमजोर हो जाएगा।

अपने पुश्तैनी जम्मू-कश्मीर से भगाए गए ऐसे शरणार्थी 12 लाख के करीब हैं जो दिल्ली, मुंबई, भोपाल, पठानकोट, चंडीगढ़, कोलकाता, बनारस समेत पूरे भारत में फैले हुए हैं

जम्मू-कश्मीर में शेख अब्दुल्ला और उनके साथियों द्वारा तय किए गए कानूनों के कारण इस समाज के सदस्य अपने इस पुश्तैनी राज्य की नागरिकता हासिल नहीं कर सकते। स्टेट-सब्जेक्ट (राज्य का नागरिक) न होने के कारण उन्हें वहां जमीन खरीदने का अधिकार भी नहीं है। नतीजतन, इस समाज के बच्चे राज्य के शिक्षा संस्थानों में एडमिशन नहीं ले सकते, वहां नौकरी के लिए आवेदन करने का भी उन्हें अधिकार नहीं है, वे किसी को-आॅपरेटिव का सदस्य भी नहीं बन सकते, अपना काम धंधा शुरू करने के लिए राज्य सरकार के किसी वित्तीय संस्थान से उधार मांगने का भी उन्हें अधिकार नहीं है और यहां तक कि वे किसी स्थानीय पंचायत का सदस्य नहीं बन सकते।

असेंबली की बंदरबांट और अनैतिक बहुमत

सोने पर सुहागा यह है कि 111 सीटों वाली जम्मू-कश्मीर विधानसभा में इस समाज के पुश्तैनी इलाके, पीओके के नाम की 24 सीटें खाली रखी जाती हैं। लेकिन इस समाज के 12 लाख लोगों को वोट देने का अधिकार तक नहीं है। बची हुई 87 सीटों में से 47 सीटें कश्मीर घाटी के लिए रखी गई हैं। 37 सीटें जम्मू क्षेत्र को दी गई हैं जबकि लद्दाख के हिस्से केवल 4 सीटें आती हैं। इस सबका नतीजा यह है कि स्थायी रूप से मिले बहुमत ने राज्य की वैधानिक और शासन व्यवस्था को हमेशा के लिए कश्मीर घाटी का बंधक बना कर रख छोड़ा है। 1987 में राज्य के संविधान में बीसवां संशोधन करते हुए जब इन 24 खाली सीटों का प्रावधान रखा गया तो देश को आश्वासन दिया गया कि जब पीओके को पाकिस्तानी कब्जे से मुक्त कराया जाएगा, तब असेंबली की इन सीटों को भरा जाएगा। लेकिन पिछले 68 साल से कश्मीर घाटी के शिकंजे में जकड़ी राज्य की शासन प्रणाली ने इस बात का पक्का इंतजाम किया हुआ है कि पीओके के शरणार्थी समाज को अर्थहीन बना दिया जाए।

जम्मू-कश्मीर में असेंबली सीटों की इस बंदरबांट की नींव खुद पंडित जवाहर लाल नेहरू ने रखी थी। जम्मू-कश्मीर के शासक महाराजा हरि सिंह द्वारा राज्य के भारत में विलय की घोषणा पर हस्ताक्षर करने के तुरंत बाद नेहरू ने उन्हें राज्य से बाहर निकाल दिया और शेख मोहम्मद अब्दुल्ला को बिना कोई चुनाव कराए राज्य का प्रीमियर नियुक्त कर दिया। उन्होंने शेख को राज्य की चुनाव प्रणाली और नियम तय करने का अधिकार भी दे दिया। 1951 में शेख के फार्मूले पर बनी विधानसभा में 100 सीटें थीं जिनमें से कश्मीर घाटी को 43, जम्मू क्षेत्र को 30 और लद्दाख क्षेत्र को 2 सीटें दी गई थीं।

असेंबली में सीटों के बंटवारे का मौजूदा रूप 1995 में राज्य के दूसरे चुनावी पुनर्गठन के समय अपनाया गया। 2002 में जब भारत के केंद्रीय चुनाव आयोग ने चुनाव क्षेत्रों का चौथा पुनर्गठन किया तो फारुख अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली नेशनल कांफ्रेंस सरकार ने राज्य के अलग कानून का हवाला देते हुए उसे अपने यहां लागू करने से मना कर दिया। लेकिन उसने केंद्र के चौथे पुनर्गठन आयोग के उस नियम को अपना लिया जिसके बूते पर अगले पुनर्गठन को कई साल तक रोका जा सकता था। राज्य असेंबली में घाटी के बहुमत का इस्तेमाल करते हुए उनकी सरकार ने राज्य के संविधान में 29वां संशोधन करते हुए यह सुनिश्चित कर दिया कि मौजूदा फार्मूले को 2031 तक बदला नहीं जा सकेगा। इस बदलाव के फार्मूले की कुछ शर्तें ऐसी हैं जिनके चलते असल में अगले किसी पुनर्गठन को 2036 के  असेंबली चुनाव तक लागू नहीं किया जा सकेगा। साफ है कि जम्मू-कश्मीर असेंबली में कश्मीर घाटी के पूर्ण बहुमत का मौजूदा गणित 2036 तक कायम रहने वाला है।

आदिम युग के कानून

कश्मीर घाटी को दिए गए अनैतिक और गैरकानूनी बहुमत का इस्तेमाल ऐसे अनाप-शनाप कानून बनाने के लिए आए दिन किया जाता है जिन्हें सामाजिक नैतिकता, राजनीतिक तर्कशीलता और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार जैसे किसी भी आधार पर न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता। उदाहरण के लिए जम्मू-कश्मीर असेंबली ने एक और कानून पास करके अपने यहां की महिलाओं पर गैर कश्मीरी पुरुषों के साथ शादी करने पर पाबंदी लगा दी। अगर राज्य की नागरिक कोई महिला ऐसा करती है तो उसे राज्य सरकार की नौकरी, उच्च शिक्षा में दाखिले और यहां तक कि अपने पिता के परिवार की संपत्ति में हिस्से से भी बेदखल कर दिया जाएगा। परोक्ष रूप से इस कानून से राज्य के बाहर जाकर बसे पीओके परिवारों की अधिकांश महिलाओं के संभावित नागरिक अधिकार पहले से ही खत्म हो जाएंगे।

राज्य असेंबली ने कश्मीरी बहुमत के आधार पर एक और कानून पास किया जिसमें 1947 में राज्य के भारत में विलय के बाद पाकिस्तान में जा बसे उन पूर्व कश्मीरियों को वापस आकर राज्य की नागरिकता लेने और अपनी पुश्तैनी संपत्तियों पर कब्जा लेने का निमंत्रण दिया गया था।

सेक्युलरिज्म का हाल

मीरपुर की दिल्ली बिरादरी के वरिष्ठ नेता मदन मोहन गुप्ता कहते हैं,‘यह मात्र संयोग नहीं है कि रियासत के जिन शरणार्थियों से उनकी पहचान और मूलभूत अधिकार छीने रखने के प्रयास पिछले 68 साल से श्रीनगर और केंद्र सरकार के स्तर पर चलते आ रहे हैं, वे सब हिंदू और सिख हैं। यह भी मात्र संयोग नहीं है कि जिन लोगों को पाकिस्तान से बुलाकर उन्हें राज्य की नागरिकता देने को घाटी की सरकार उतावली है, वे सभी मुसलमान हैं। इस तरह का खुल्लमखुल्ला सांप्रदायिक पक्षपात अगर भारत के इकलौते मुस्लिम बहुल राज्य में होता है तो यकीनन यह पूरे भारत में बसे मुस्लिम समाज की प्रामाणिकता पर चोट करता है।’

शरणार्थियों का राष्ट्रीय रजिस्टर

इस अन्याय के विरोध में पीओके बिरादरियों के कई संगठन पिछले 68 साल से संघर्ष कर रहे हैं। जम्मू-कश्मीर पीपुल्स फोरम के संयोजक महेंद्र मेहता ने प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को अपने प्रतिवेदन में भारत सरकार से मांग की है कि राज्य के भीतर और बाहर शेष भारत में बसे 20 लाख पीओके शरणार्थियों का राष्ट्रीय रजिस्टर बनाया जाना चाहिए। इस कदम से न केवल इस शरणार्थी समाज को उसके पुश्तैनी राज्य में अपनी खोई हुई जड़ें वापस मिलेंगी, बल्कि पीओके पर भारत के दावे को राजनीतिक, कानूनी और नैतिक मजबूती भी मिलेगी। शहीदी दिवस की मूल भावना के बारे में मीरपुर बलिदान भवन समिति के प्रधान डा. सुदेश रत्न महाजन कहते हैं, ‘इस प्रार्थना का लक्ष्य यह है कि भविष्य में किसी भी समाज को ऐसे भयंकर हत्याकांड का सामना न करना पड़े। एक छोटे से समाज का यह आयोजन सेक्युलर और मानवाधिकारों का दम भरने वाली बिरादरी के सामने बहुत कठिन नैतिक प्रश्न खड़े करता है।’

 

 

 

 

 

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