भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का गौरव हासिल है. यदि 1975 के आपातकाल को छोड़ दिया जाए, तो यहां नियमित रूप से चुनाव हुए हैं और जब कभी मौका आया, तो बिना किसी अड़चन के सत्ता परिवर्तन भी हुआ. यह कोई मामूली उपलब्धि नहीं है, क्योंकि कई पाश्चात्य समीक्षकों ने शुरुआती दौर में ही भारतीय लोकतंत्र के बिखरने की भविष्यवाणी कर दी थी. देश की जनता ने न सिर्फ ऐसे निराशावादियों को गलत साबित किया, बल्कि भारतीय लोकतंत्र को मजबूती प्रदान कर इसे दुनिया में एक मिसाल भी बना दिया. फिलहाल, 1७वीं लोकसभा के लिए चुनाव प्रक्रिया जोर-शोर से चल रही है. ऐसे में, यह देखना दिलचस्प हो जाता है कि हमारे देश ने एक मजबूत लोकतंत्र बनने की दिशा में अपना पहला कदम कैसे बढ़ाया था?
भारत 1947 में अंग्रेजों के दमनकारी शिकंजे से आजाद तो हो गया, लेकिन इस आजादी के लिए हमें भारी कीमत चुकानी पड़ी. देश न सिर्फ दो हिस्सों में विभाजित हुआ, बल्कि उसके नतीजे में हुए सांप्रदायिक दंगों में लाखों लोग मारे गए और बड़ी संख्या में लोग बेघर हो गए. दंगों की आग में झुलसे लोगों के जख्म पूरी तरह भरे नहीं थे और अपनी जड़ों से उखड़े लोगों का पूरी तरह पुनर्वास भी नहीं हुआ था कि देश ने दुनिया का सबसे बड़ा चुनाव कराने का बीड़ा उठा लिया. उस समय देश की आबादी 36 करोड़ के आसपास थी. जाहिर है, भारत जैसा विशाल देश, जो 200 सालों की उपनिवेशवादी लूट-खसोट से आजाद हुआ था, उसके लिए यह काम एक हिमालयी मिशन से कम नहीं था. फिर भी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू 1951 की शुरुआत में यह कवायद पूरी कर लेना चाहते थे, लेकिन इतने अल्प समय में लोकसभा और विधानसभा चुनाव करा लेना आसान काम नहीं था, खास तौर पर भारत की सामाजिक एवं भौगोलिक विविधता को देखते हुए यह निहायत ही मुश्किल था.
26 जनवरी 1950 को भारत गणतंत्र बना, लेकिन उसके एक दिन पहले यानी 25 जनवरी 1950 को चुनाव आयोग का गठन हो गया था. अप्रैल आते-आते लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम पारित हो चुका था, जिसके तहत मतदाता सूची तैयार की गई थी, विधानसभा और लोकसभा क्षेत्रों की संख्या तय की गई थी. चुनावी प्रक्रिया को निष्पक्ष और शांतिपूर्ण ढंग से संचालित करने की जिम्मेदारी बंगाल के आईसीएस अधिकारी सुकुमार सेन दी गई. उन्हें 21 मार्च 1950 को देश का पहला चुनाव आयुक्त बनाया गया था. जैसा कि ऊपर जिक्र किया जा चुका है, प्रधानमंत्री नेहरू जल्द से जल्द चुनाव करा लेना चाहते थे. लेकिन, देश की भौगोलिक, आर्थिक एवं सामाजिक विविधताओं पर यदि एक नजर डाली जाए, तो कहा जा सकता है कि नेहरू सुकुमार सेन से ‘चमत्कार’ की उम्मीद कर रहे थे. सुकुमार यथार्थवादी शख्स निकले. वह जानते थे कि इतना बड़ा काम आज तक किसी भारतीय मूल के अधिकारी ने नहीं किया. उन्होंने नेहरू के सामने एक यथार्थवादी लक्ष्य रखा और तय पाया कि चुनाव 25 अक्टूबर 1951 से 21 फरवरी 1952 तक कराए जाएंगे. यानी चुनाव चार महीने की अवधि और 68 चरणों में संपन्न होंगे.
दरअसल, देश ने शुरुआत में ही फैसला कर लिया था कि वह अपने हर वयस्क नागरिक को, जो 21 साल या उससे अधिक आयु का होगा, मताधिकार देगा. चुनाव आयोग के सामने जो सबसे बड़ी चुनौती थी, वह यह कि देश की 36 करोड़ आबादी में से 17 करोड़ वयस्क मतदाताओं की सूची तैयार करना. आज के दौर में जब संचार की उन्नत तकनीक हर जगह उपलब्ध है, तो यह कोई मुश्किल काम नजर नहीं आता. लेकिन, 1951 में जब चुनाव आयोग को यह काम सौंपा गया था, तो उस समय सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के किसी भी देश के लिए यह मुश्किल काम था. सबसे बड़ी बाधा यह थी कि 1951 में देश के अधिकतर लोग अपना नाम तक लिखना नहीं जानते थे. महिलाओं की स्थिति और भी खराब थी. उस समय पुरुषों के 25 प्रतिशत की तुलना में सिर्फ आठ प्रतिशत महिलाएं साक्षर थीं. इसका एहसास मतदाता सूची तैयार करते समय हुआ. इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में लिखते हैं कि उत्तर भारत में तकरीबन 28 लाख महिलाएं ऐसी थीं, जिन्होंने मतदाता सूची में अपना नाम देने के बजाय ‘अमुक शख्स की पत्नी’ या ‘अमुक शख्स की मां’ दर्ज कराया था. चुनाव आयोग ने ऐसी सभी महिलाओं के नाम मतदाता सूची से काट दिए. इसका फायदा यह हुआ कि अगले चुनाव में ऐसी गलती नहीं दोहराई गई.
वयस्क मताधिकार एवं मतदाताओं में साक्षरता के निम्न स्तर के चलते एक और समस्या खड़ी हो गई. अब तक दुनिया के दूसरे लोकतंत्र में होने वाले चुनाव में बैलट पेपर पर उम्मीदवारों के नाम दर्ज होते थे. लेकिन, यहां तो उलटी गंगा बह रही थी. भारत में गुप्त मतदान कराना था और 85 प्रतिशत मतदाता अपना नाम लिखना-पढऩा नहीं जानते थे. इस स्थिति से निपटने का तरीका यह निकाला गया कि हर उम्मीदवार को एक चुनाव चिन्ह दिया जाए. ये चुनाव चिन्ह प्रतिदिन इस्तेमाल होने वाली वस्तु या जानवर के रूप में दिए गए. पहली बार मताधिकार का प्रयोग कर रहे अशिक्षित मतदाताओं को उलझन से बचाने के लिए हर उम्मीदवार के लिए अलग-अलग मतपेटी बनाई गई, जिन पर उनके चुनाव निशान चिपकाए गए. बाद में एक ही बैलट पेपर पर सभी उम्मीदवारों के नाम एवं उनके चुनाव निशान दिए जाने लगे. यह प्रथा ईवीएम के दौर में भी जारी है. बहरहाल, हर पार्टी और हर उम्मीदवार को अलग-अलग चुनाव चिन्ह आवंटित किए गए थे. किसी को दो बैलों की जोड़ी मिली तो किसी को उगता हुआ सूरज, किसी को शेर मिला तो किसी को झोंपड़ी, कोई हाथी की सवारी कर रहा था तो कोई ऊंट की.
देश भर में कुल दो लाख 24 हजार मतदान केंद्र बनाए गए, 25 लाख मतपेटियों की व्यवस्था की गई और 62 करोड़ मतपत्र छापे गए. धांधली रहित एवं शांतिपूर्ण चुनाव कराने के लिए तकरीबन 10 लाख कर्मचारी तैनात किए गए, जिनमें 56 हजार पीठासीन अधिकारी, दो लाख 80 हजार सहायक और दो लाख २४ हजार पुलिस के जवान शामिल थे. मतदाता सूची तैयार करने के लिए 16,500 कर्मचारियों को छह महीने के लिए अनुबंधित किया गया था. आज मतदान के दौरान जो स्याही इस्तेमाल की जाती है, उसका आविष्कार भी उसी जमाने में हुआ था. 1951-52 के चुनाव में
एक अंदाज के मुताबिक, ऐसी स्याही की चार लाख से कुछ कम शीशियां तैयार की गई थीं. आज चुनाव आयोग मतदाताओं को जागरूक करने के लिए अखबार एवं टीवी आदि माध्यमों का सहारा लेता है. उस जमाने में यह काम रेडियो, सिनेमा एवं अखबारों के जरिये अंजाम दिया गया. यही नहीं, मतदान कर्मियों, मतपेटियों-मतपत्रों को मतदान केंद्रों तक पहुंचाने के लिए यातायात के हर उपलब्ध साधन का इस्तेमाल किया गया. सुदूर ग्रामीण इलाकों में पहुंचने के लिए नदियों पर पुल बनाए गए. छोटे-छोटे द्वीपों तक पहुंचने के लिए नौसेना के जलयान भी इस्तेमाल किए गए.
देश ने बहुदलीय लोकतांत्रिक प्रणाली अपनाई थी. जब चुनाव हुए, तो नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी. लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं था कि नेहरू और कांग्रेस के लिए मैदान बिल्कुल साफ था. 489 लोकसभा और 3,283 विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों के लिए 14 राष्ट्रीय एवं 63 क्षेत्रीय दलों के साथ-साथ निर्दलीयों समेत तकरीबन 17,500 उम्मीदवार मैदान में थे. नेहरू को चुनौती देने के लिए जहां स्वतंत्र पार्टी के सी राजगोपालाचारी मौजूद थे, वहीं समाजवादी जय प्रकाश नारायण और आचार्य नरेंद्र देव भी ताल ठोंक चुके थे. चुनाव में हिस्सा लेने के लिए नेहरू कै बिनेट के दो मंत्रियों दक्षिण पंथी श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दलित नेता डॉ. भीम राव अंबेडकर ने त्यागपत्र दे दिया था. चुनाव से ठीक पहले देश की संवैधानिक व्यवस्था में अविश्वास जताने वाली और सशस्त्र क्रांति का असफल प्रयास कर चुकी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भी ताल ठोंक कर चुनाव मैदान में दो-दो हाथ करने के लिए तैयार थी. कांग्रेस की राह इसलिए आसान हो गई, क्योंकि विपक्ष में कद्दावर नेता तो मौजूद थे, लेकिन चुनाव से पहले किसी तरह की विपक्षी एकता की कोई कोशिश नहीं हुई. हां, आज की तरह विपक्षी दलों ने उस जमाने में भी सत्तारूढ़ दल द्वारा सरकारी तंत्र के दुरुपयोग की आशंका जताई थी. लेकिन, कुल मिलाकर यह चुनाव निष्पक्ष और शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न हुए.
दुनिया में आम तौर पर सात अजूबों को मान्यता मिली हुई है, लेकिन जिन परिस्थितियों में और जितनी शीघ्रता के साथ देश में पहला चुनाव कराया गया था, वह निश्चित रूप से दुनिया के अजूबों में शामिल करने योग्य है. इस काम को सफलतापूर्वक अंजाम तक पहुंचाने के लिए यदि किसी एक शख्स को श्रेय दिया जाए, तो वह निश्चित रूप से सुकुमार सेन होंगे. दुर्भाग्यवश, आज उनके बारे में बहुत कम बात होती है. जब चुनाव आयुक्तों की चर्चा होती है, तो ले-देकर टीएन शेषन पर तान टूटती है. लेकिन, भारतीय लोकतंत्र आज जिस मजबूती के साथ खड़ा है, उसकी बुनियाद 1951-52 में हुए चुनाव में रखी गई थी और उसमें सुकुमार सेन का बहुत बड़ा हाथ था. सेन की सेवाओं की अभिस्वीकृति इस बात से भी होती है कि बाद में कई अफ्रीकी एवं एशियाई देशों ने उन्हें अपने यहां होने वाले चुनावों के लिए विशेषज्ञ सलाहकार के तौर पर बुलाया.
१९५१ में भारत की आबादी 36 करोड़ थी
१७ करोड़ थी वोटरों की संख्या
२५ प्रतिशत पुरुष और 8 प्रतिशत महिलाएं थीं सक्षर
६८ चरणों में संपन्न हुए थे पहले चुनाव
२.२४ लाख मतदान केंद्र बनाए गए
२५ लाख मतपेटियां बनाई गईं
६२ करोड़ मतपत्र छापे गए
१० लाख कर्मचारी तयनात किये गए
४८९ लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र बनाए गए
३,२८३ विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र बनाए गए
१४ राष्ट्रीय, 63 क्षेत्रीय दलों ने भाग लिया
१७,५०० उम्मीदवार मैदान में थे