बनवारी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी हाल की अमेरिका यात्रा में भारत-अमेरिकी संबंधों को गहराई देते हुए कहा कि भारत और अमेरिका ने अपने संबंधों में अब तक के इतिहास की हिचकिचाहट को दूर कर लिया है। अंतरराष्ट्रीय राजनय में शब्दों और मुहावरों का बहुत महत्व होता है। इसलिए अमेरिका में नरेंद्र मोदी के इस कथन को काफी गंभीरता से लिया गया और अमेरिकी सरकार के एक प्रवक्ता ने उसे मोदी सिद्धांत की संज्ञा दी। नरेंद्र मोदी ने यह बात अमेरिकी कांग्रेस को संबोधित करते हुए कही थी। अमेरिकी कांग्रेस ने नरेंद्र मोदी को कितनी गंभीरता से लिया था यह इसी बात से स्पष्ट है कि उनके 45 मिनट के भाषण में 64 बार तालियां बजीं और 9 बार कांग्रेस के सदस्यों ने खड़े होकर तालियां बजार्इं। कांग्रेस के इतिहास में ऐसा कम ही हुआ है जब किसी विदेशी राजनेता के संबोधन पर इतना उत्साह दिखाया गया हो।
लेकिन नरेंद्र मोदी ने अब तक के इतिहास की जिस हिचकिचाहट का उल्लेख किया था वह क्या थी? क्या वह हिचकिचाहट दोनों ओर से थी और क्या वह अब सच में दूर हो गई है? इन प्रश्नों की गंभीरता से समीक्षा की जानी चाहिए क्योंकि इस समीक्षा को किए बिना हम यह नहीं समझ सकते कि भारत-अमेरिकी संबंधों में सचमुच कोई सार्थक मोड़ आया है या नहीं। दोनों देशों में आज के अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य से संबंधित बहुत सी बातों पर सहमति हो सकती है और कुछ बातों पर असहमति भी हो सकती है। ऐसा अंतरराष्ट्रीय संबंधों में होता रहता है। आमतौर पर जो राष्ट्र किसी गठबंधन में बंधे होते हैं उनके बीच भी परस्पर महत्व के अनेक मुद्दों पर सहमति-असहमति हो सकती है। भारत और अमेरिका के बीच तो कोई गठबंधन भी नहीं है। दोनों आपसी सहयोग से एक कदम आगे बढ़ाकर साझेदारी के स्तर पर आए हैं। नरेंद्र मोदी के कांग्रेस में दिए गए भाषण में 13 बार साझेदारी शब्द आया था। जबकि कांग्रेस में हुए मनमोहन सिंह के भाषण में इससे आधी बार ही यह शब्द दोहराया गया था। अटल बिहारी वाजपेयी ने तो अपने भाषण में इस शब्द का केवल तीन बार उल्लेख किया था।
भारत-अमेरिकी संबंधों में आई निकटता के एक उदाहरण के तौर पर यह बताया गया है कि अमेरिका सैनिक और असैनिक उभय उपयोग वाली जिस उन्नत प्रोद्यौगिकी को केवल नाटो गठबंधन के देशों को उपलब्ध करता था। उसे अब वह भारत को भी बिना किसी बाधा के उपलब्ध करेगा। लेकिन अमेरिका द्वारा यह प्रस्ताव आज से 12 वर्ष पहले किया गया था। 2004 में अमेरिका ने भारत और पाकिस्तान दोनों के सामने यह प्रस्ताव रखा था कि उभय उपयोग वाली उन्नत प्रोद्यौगिकी के बारे में वह उन्हें गैर-नाटो सहयोगी देश का दर्जा देने के लिए तैयार है। अमेरिका के इस प्रस्ताव को उस समय पाकिस्तान ने तुरंत स्वीकार कर लिया। भारत ने उसे अस्वीकार कर दिया। यह उचित ही था क्योंकि वैसा करना पिछले दरवाजे से अमेरिकी गठबंधन में सम्मिलित होना रहा होता। अब बिना किसी औपचारिक दर्जे के भारत और अमेरिका उन्नत प्रोद्यौगिकी के बारे में परस्पर सहयोग के लिए तैयार हो गए हैं। लेकिन व्यवहार में अमेरिका किस तरह का सहयोग करेगा यह बहुत सी अन्य बातों पर निर्भर करेगा।
भारत और अमेरिका के बीच परस्पर सहयोग को लेकर अब तक दोनों देशों के बीच ही हिचकिचाहट रही है। हमारी हिचकिचाहट अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों की समझ पर कम आधारित थी, वह विचारधारात्मक अधिक थी। हमारी विदेश नीति मुख्यत: जवाहर लाल नेहरू के समय निर्धारित हुई थी और उस पर जवाहर लाल नेहरू के विचारधारात्मक आग्रहों का बहुत अधिक प्रभाव था। जवाहर लाल नेहरू की शिक्षा-दीक्षा यूरोप में हुई थी और वे यूरोप की उदारवादी विचारधारा के प्रभाव में थे। यूरोपीय उदारवादियों से उन्होंने दो प्रभाव आंख मूंदकर ग्रहण कर लिए थे। वे पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों से समान दूरी पर दिखना चाहते थे। इसे अंतरराष्ट्रीय राजनय की एक नई धारा का स्वरूप देते हुए उन्होंने गुट-निरपेक्ष आंदोलन आरंभ किया। इस आंदोलन का अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर तो कोई प्रभाव नहीं पड़ा। भारत काफी समय तक अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अकेला पड़ा रहा। जवाहर लाल नेहरू ने यूरोपीय उदारवादियों से दूसरा प्रभाव शांतिवादी पूर्वाग्रह के रूप में ग्रहण किया था। उनके इस पूर्वाग्रह के कारण ब्रिटिश भारतीय सेना के भारतीयकरण के द्वारा उसे शक्तिशाली राष्ट्रीय सेना का स्वरूप देने की कोशिश नहीं हुई और न ही हम नाभिकीय शक्ति बनने की दिशा में समय रहते कदम उठा पाए।
भारत जब स्वतंत्र हुआ तब तक अमेरिका विश्व की प्रधान शक्ति के रूप में उभर आया था। उसने यह स्थिति मुख्यत: हिरोशिमा और नागासाकी पर नाभिकीय बम डालकर अर्जित की थी। यह युद्ध के इतिहास की सबसे लोमहर्षक और जघन्य घटना थी। लेकिन अमेरिका में इसे लेकर कोई पछतावा नहीं था। अमेरिका ने इसके लिए यही सफाई दी कि ऐसा करना द्वितीय महायुद्ध को समाप्त करने के लिए आवश्यक था। अमेरिका की देखादेखी उस समय की सभी प्रमुख शक्तियां नाभिकीय शक्ति से संपन्न हो गर्इं। भारत के नेताओं को यह बात समझ में आनी चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय शक्ति का संतुलन आगे काफी कुछ नाभिकीय क्षमता से परिभाषित होने वाला है। स्वतंत्र होने के बाद हमें नाभिकीय शक्ति बनने के लिए अपने वैज्ञानिक प्रतिष्ठान को लगा देना चाहिए था। पूर्व विदेश सचिव एम. के. रसगोत्रा ने कहा था कि अमेरिकी राष्ट्रपति जान एफ कैनेडी भारत को नाभिकीय शक्ति से संपन्न बनाने के लिए उत्सुक थे। उन्होंने नाभिकीय परीक्षण में भारत की सहायता करने का प्रस्ताव किया था, लेकिन नेहरू ने उसे स्वीकार नहीं किया। लेकिन हमें इसके लिए अमेरिकी बैसाखी की आवश्यकता ही क्यों होनी चाहिए थी। अगर चीन 1964 में नाभिकीय परीक्षण कर सकता था तो हम भी कर सकते थे। लेकिन हमारे उस समय के नेता अंतरराष्ट्रीय राजनीति में नाभिकीय शक्ति होने का महत्व जानते ही नहीं थे। हमने अपनी गलती काफी देर से समझी। 1974 में हमने पहला नाभिकीय परीक्षण किया। लेकिन तब तक नाभिकीय शक्तियां एक क्लब बनाकर शेष देशों को नाभिकीय शक्ति न बनने देने का अंतरराष्ट्रीय तंत्र खड़ा कर चुकीं थीं। 1970 में नाभिकीय अप्रसार संधि लागू कर दी गई थी।
भारत की स्वतंत्रता के समय केवल भारत की स्थिति ही जर्जर नहीं थी। यूरोप के सभी प्रमुख देश, जापान और चीन सभी जर्जर अवस्था में थे। भारत अगर पराधीनता के लंबे दौर के कारण जर्जर था, तो यूरोप, जापान और चीन दूसरे महायुद्ध के कारण जर्जर थे। इन सभी का शायद ही कोई शहर ध्वस्त होने से बच पाया हो। सोवियत रूस और चीन को छोड़कर बाकी सभी देश अमेरिकी सहायता और अपने संकल्प से अपना कायाकल्प करने में सफल हुए। सोवियत रूस और चीन साम्यवादी तानाशाही होने के कारण एकाग्र होकर महाशक्ति बनने के प्रयत्न में लग गए। भारत को उस समय उसके गौरवशाली अतीत, विशाल जनसंख्या और बौद्धिक क्षमता के कारण महत्वपूर्ण देश समझा जाता था। विशेषकर अमेरिकी यह मानते थे कि भारत में विश्व की महाशक्ति बनने की सभी योग्यताएं हैं। इसलिए अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल पर भारत को जल्दी स्वतंत्र करने का दबाव डाला था। अमेरिका को लगता था कि स्वतंत्र होकर भारत तेजी से उन्नति कर पाएगा और वह विश्व शक्ति संतुलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकेगा। उस समय अमेरिका की सबसे बड़ी चिंता सोवियत रूस थी। तब तक रूस मध्य एशिया और मध्य पूर्व में अपने राजनैतिक विस्तार में लगा रहा था। अमेरिका उसकी इस आकांक्षा से आशंकित था और उसके विस्तार को रोकने में भारत का सहयोग चाहता था। भारत निश्चय ही अमेरिकी राजनीति का मोहरा नहीं हो सकता था। लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्थिति पर उसे अमेरिका से सहमति-असहमति के बिंदुओं पर किसी भी संवाद के लिए तैयार होना चाहिए था। लेकिन नेहरू वैचारिक आग्रहों के कारण साम्यवाद की चुनौती के मामले में अमेरिका की बात तक सुनने के लिए तैयार नहीं हुए। 1949 में नेहरू की अमेरिका यात्रा इसीलिए पूरी तरह असफल हुई। इस सबका फायदा पाकिस्तान को मिला और वह बेहिचक 1955 में सेंट्रल ट्रीटी आॅर्गनाइजेशन में सम्मिलित होकर अमेरिका का सहयोगी राष्ट्र हो गया।
भारत को बराबरी के स्तर पर अमेरिका से संबंध बनाने में समर्थ होना चाहिए था। उससे उन्नत प्रोद्यौगिकी के क्षेत्र में सहयोग आवश्यक था। क्योंकि वह उस समय की सबसे बड़ी शक्ति था। हमने उसके सामने अनाज के लिए हाथ पसारने में संकोच नहीं किया। उससे आर्थिक अनुदान भी हम लेते रहे। इस सबने हमारी स्थिति कमजोर ही की। 1959 में अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहावर भारत आए और फिर कैनेडी ने भारत से संबंध दृढ़ करने की कोशिश शुरू की। लेकिन 1963 में कैनेडी की हत्या के कारण वह सिलसिला रुक गया। 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण किया और भारत को अपना अकेलापन चुभा। 1971 में हमने रूस से मैत्री संधि की। यह बांग्लादेश के निर्माण में रही भारतीय भूमिका की दृष्टि से आवश्यक था। पाकिस्तान के विभाजन में भारत की भूमिका ने अमेरिकी प्रशासन को इतना पूर्वाग्रहग्रस्त कर दिया कि फिर लगभग दो दशक तक भारत और अमेरिकी संबंध सुधर नहीं पाए। इस बीच पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो की सहायता से अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन चीन से संपर्क जोड़ने में सफल रहे क्योंकि चीन और सोवियत रूस के संबंध तब तक तनावग्रस्त हो चुके थे।
भारत-अमेरिकी संबंधों में नया मोड़ शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद आया। शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद रूस को अमेरिका ने अपने लिए सामरिक चुनौती की तरह देखना छोड़ दिया। यही वह समय था जब चीन ने अपनी आर्थिक नीतियों की दिशा बदलकर तेज आर्थिक प्रगति करना आरंभ किया था। अमेरिका ने एक महाशक्ति के रूप में उभरते चीन की इस महत्वाकांक्षा को देखकर भारत संबंधी अपनी नीति बदली। अमेरिका सदा ही भारत को भविष्य की एक महत्वपूर्ण महाशक्ति के रूप में देखता रहा है। राष्ट्रपति बुश के कार्यकाल में भारत को फिर अधिक महत्व देने की नीति अपनाई जानी आरंभ हुई। अमेरिका जानता है कि विश्व के चौधरियों की जमात में भारत को शामिल करने के लिए यह आवश्यक है कि भारत को भी एक नाभिकीय शक्ति के रूप में गिना जाए। भारत में कांग्रेस की हिचकिचाहट के बावजूद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बुश प्रशासन के साथ नाभिकीय समझौते पर हस्ताक्षर किए। यह समझौता अब तक बहुत फलदायी नहीं हो पाया क्योंकि सोनिया कांग्रेस अपने नेहरूकालीन राजनयिक पूर्वाग्रहों से निकल नहीं पाई। उसकी अमेरिका संबंधी हिचकिचाहट व्यावहारिक नहीं, विचारधारात्मक है। उसके कारण भारत-अमेरिकी संबंध फिर मंथर गति पर आ गए थे।
नरेंद्र मोदी की राजनयिक सफलता इस बात में निहित है कि उन्होंने भारत-अमेरिकी संबंधों को उस विचारधारात्मक पूर्वाग्रह से मुक्त कर दिया है जो अब तक के भारत-अमेरिकी संबंधों को एक स्वाभाविक दिशा लेने-देने के रास्ते की बाधा बना हुआ था। दोनों देशों के बीच संबंधों की व्यावहारिक बाधाएं भी कम नहीं है। यह कहना सही नहीं है कि दोनों देश अंतरराष्ट्रीय राजनीति के स्वाभाविक सहयोगी हैं। अब तक भारत के प्रति अमेरिकी हिचक भी उतनी ही असंगत रही है। अमेरिका दोनों देशों के लोकतंत्रीय होने की दुहाई देकर भारत और अपने को एक खेमे में दिखाना चाहता है, लेकिन यह तुलना सतही है और उसके आधार पर राजनयिक संबंध बनाने की बात ही राजनय को विचारधारा से जोड़कर देखने वाली है। भारत और अमेरिका दोनों स्वतंत्र शक्तियां हैं और दोनों के स्वतंत्र हित हैं। दोनों के हित कभी मिलेंगे कभी नहीं मिलेंगे। उन्हें व्यावहारिक धरातल पर रखकर ही हम उन्हें मजबूती प्रदान कर सकते हैं।
चीन अपनी सामरिक और आर्थिक शक्ति को जिस आक्रामकता के साथ बढ़ाने में लगा है, उससे हम भी चिंतित हैं। अभी चीन अमेरिका के लिए उतना बड़ा खतरा नहीं है, जितना भारत के लिए है। उसकी आक्रामकता का 1962 में हमें अनुभव हो चुका है। अमेरिका के लिए वह सीधी चुनौती नहीं है, अप्रत्यक्ष चुनौती है। चीन अमेरिकी प्रभुत्व के लिए एक दूरगामी चुनौती अवश्य बन रहा है। लेकिन अमेरिकी हितों को गंभीर क्षति पहुंचाने लायक शक्तिशाली होने में अभी उसे कुछ और समय लगेगा। लेकिन अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां बदलती रहती हैं। उनमें न कोई स्थायी रूप से मित्र होता है, न शत्रु। हम अपने अंतरराष्ट्रीय संबंध चीन को केंद्र में रखकर निर्धारित नहीं कर सकते। कम से कम अभी यह समय नहीं आया है। लेकिन चीन हमारे लिए चुनौती है और उस चुनौती का सामना करने लायक शक्ति और समर्थन हमें अर्जित करना है। चीन की तरह ही पाकिस्तान हमारी समस्या रहा है। अपनी इन समस्याओं से निपटने में हमें जहां से भी शक्ति और सहयोग मिले, हमें लेना चाहिए। इसी व्यावहारिक लक्ष्य को लेकर अगर हमारे संबंध अमेरिका से प्रगाढ़ होते हैं तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। नरेंद्र मोदी ने भारतीय राजनय को विचारधारात्मक पूर्वाग्रहों से निकालकर व्यावहारिक धरातल पर खड़ा करके यही किया है।