प्रदीप सिंह/जिरह
हरियाणा में आरक्षण की मांग कर रहे जाटों ने जो किया उसकी कोई माफी नहीं हो सकती। आपका ध्येय कितना भी बड़ा और वाजिब हो वह किसी निर्दोष की हत्या, महिला की अस्मत लूटने और आगजनी-लूट की इजाजत नहीं देता। आंदोलनकारियों ने जिस तरह का व्यवहार किया उससे लगता था कि उनकी अपनी मांग से ज्यादा रुचि पूरे प्रदेश में अराजकता का माहौल बनाने में है। आंदोलनकारियों ने यह सब करके अपना ही मामला बिगाड़ा है। धन और बाहुबल से सम्पन्न ऐसी जाति को पिछड़ा वर्ग में कैसे और क्यों शामिल किया जाना चाहिए। आंदोलनकारियों ने जातीय संघर्ष और उन्माद पैदा करने की पूरी कोशिश की। खोज खोज कर गैर जाटों के घर और व्यावसायिक प्रतिष्ठान जलाए और लूटे। उनका कोई नेता रोकने के लिए आगे नहीं आया। इस हिंसा का नेतृत्व करने वाले पर्दे के पीछे रहे। जो हुआ वह आरक्षण की मांग को मनवाने के आंदोलन से ज्यादा राजनीति और सामाजिक विद्वेष पैदा करने की कोशिश था।
हरियाणा के लोगों ने सिर्फ वही नहीं देखा जो जाट आंदोलनकारियों ने किया। राज्य की मनोहर लाल खट्टर की सरकार ने जो नहीं किया वह भी हरियाणा और देश के लोगों ने देखा। तीन दिन तक ऐसा लगा कि राज्य में प्रशासन नाम की कोई चीज नहीं है। लोग मारे जाते रहे, दूकानें, घर जलते रहे, रेलवे स्टेशन फूंके जाते रहे और पुलिस कहीं दिखाई नहीं दी। सरकार के जैसे हाथ पांव फूल गए। अर्ध सैनिक बलों और सेना को बुला लिया गया। फिर भी हालात सुधरने में समय लगा। या यह कहना ज्यादा सही होगा कि दंगाई आंदोलनकारियों ने जब बस कर दिया तभी हिंसा का सिलसिला रुका। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि इतने बड़े पैमाने पर हिंसा के बावजूद किसी एक जाट की फसल को नुक्सान नहीं हुआ। राज्य सरकार ने अभी तक किसी पुलिस या प्रशासनिक अधिकारी के खिलाफ मामला दर्ज नहीं किया है। सवाल है कि अधिकारियों को कोई आदेश ही नहीं दिया गया या उन्होंने आदेश मानने से मना कर दिया। दोनों ही स्थितियां खतरनाक हैं। जो सरकार अपने मंत्री के घर की सुरक्षा न कर सके उससे आम आदमी की सुरक्षा की उम्मीद कैसे की जा सकती है। इस हिंसा के लिए कौन जिम्मेदार है। क्या आंदोलन के नेताओं और प्रशासन दोनों को दोषी ठहराना गलत होगा। गुजरात के बाद हरियाणा दूसरा प्रदेश है जहां आरक्षण की मांग को लेकर हिंसा हुई है। गुजरात में पटेल और हरियाणा में जाट दोनों ही किसान जातियां हैं। दोनों के पास जमीन और दूसरी सम्पत्ति हैं। दोनों ही राजनीतिक रूप से भी दबंग जातियां हैं। खेती में घटता मुनाफा, शिक्षा और रोजगार के अवसरों में कमी इन्हें विकल्प तलाशने के लिए मजबूर कर रही है। लेकिन आरक्षण के लिए जो संवैधानिक व्यवस्था है उस पैमाने पर ये जातियां खरी नहीं उतरतीं। दरअसल इनके आरक्षण की मांग का आधार सामाजिक भेदभाव या सम्पत्ति जुटाने के अवसरों की कमी नहीं है। इनकी मांग शुद्ध रूप से आर्थिक है। जनतंत्र में सबसे ज्यादा कारगर हथियार आपकी संख्या है। संख्या बल के साथ साथ अगर आप संगठित भी हैं तो संविधान, कानून और तर्क के आधार पर नहीं ताकत के बल पर आप अपनी बात मनवा सकते हैं। यही कोशिश पटेलों की है और जाटों ने भी उसी रास्ते को चुना है।
हरियाणा में जाटों के आरक्षण की मांग के आंदोलन में जो कुछ हुआ उसमें कई और मुद्दे शामिल हैं। उसमें जाटों के हाथ से सत्ता जाने का मलाल और जाट नेतृत्व को हथियाने की होड़ भी शामिल है। कांग्रेस और इंडियन नेशनल लोकदल में जाटों के जनाधार की लड़ाई है। पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के नेता भूपेन्दर सिंह हुड्डा के राजनीतिक सलाहकार का कारनामा और उनकी गिरफ्तारी इसका प्रमाण है। लेकिन हिंसा की इतनी बड़ी तैयारी चलती रही और प्रदेश का खुफिया विभाग सोता रहा यह कम आश्चर्य की बात नहीं। खासतौर से ऐसे समय जब पूरे बाजार में दंगाइयों ने पहले से चेतावनी दे रखी हो कि तीन दिन दुकान बंद रखना नहीं तो जला दी जाएगी। कहा तो यहां तक जा रहा है कि कई जिलों में पुलिस और प्रशासन ने मुख्यमंत्री कार्यालय के आदेश की अनसुनी कर दी। यह पूरा घटनाक्रम मुख्यमंत्री खट्टर की प्रशासनिक अनुभवहीनता ही नहीं अक्षमता को भी दर्शाता है। राजनीति के खेल भी विचित्र होते हैं। जब वह अपनी लक्ष्मण रेखा लांघती है तो उसे पार्टी हित के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता। जाट प्रभावशाली वोट बैंक हैं इसलिए इतनी बड़ी घटना पर राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया ऐसी है मानो यह रोजमर्रा की बात हो। कोई जाटों को नाराज नहीं करना चाहता। सबकी नजर 2017 में होने वाले उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों पर है। इसलिए इस बात में भी शक है कि दंगाइयों के खिलाफ कोई प्रभावी कार्रवाई होगी। न्यूज चैनलों को शिकायतकर्ता मिल रहे हैं पर पुलिस को नहीं। भाजपा में भी सन्नाटा पसरा है। हरियाणा को कोई नेता या मंत्री कुछ बोलने को तैयार नहीं है। विपक्ष भी सरकार को घेरने से कतरा रहा है। सवाल है कि पीड़ित किसके पास जाएं।