अधिकारियों की नासमझी के चलते एक छोटे से परिसर की घटना को बेवजह राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया गया. केंद्र सरकार ने अगर थोड़े से धैर्य और अक्लमंदी से काम लिया होता, तो यह मुद्दा कभी बनता ही नहीं. सरकार और विपक्ष को अगर जेएनयू के इतिहास के बारे में जानकारी होती, तो शायद उनसे यह गलती नहीं होती.
तीन साल के बाद आखिरकार भारत विरोधी नारे लगाने वालों के खिलाफ चार्जशीट तैयार हो गई. 1,200 पन्नों की इस चार्जशीट पर अदालत में बहस शुरू होती, उससे पहले ही यह मामला कानूनी प्रक्रिया में उलझ गया. दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार देश के टुकड़े-टुकड़े करने की मंशा रखने वाले आरोपियों के बचाव में उतर आई. दरअसल, दिल्ली पुलिस को चार्जशीट दायर करने से पहले दिल्ली सरकार से अनुमति लेनी होती है, जो अब तक नहीं मिली है. अदालत में पुलिस ने कहा कि वह 10 दिनों में अनुमति ले लेगी, लेकिन खबर यह है कि दिल्ली सरकार इस मामले को तीन महीने तक टालने की फिराक में है. नोट करने वाली बात यह है कि जब 2016 में जेएनयू में भारत विरोधी नारे लगे थे और जब उनके खिलाफ कार्रवाई शुरू हुई थी, तब राहुल गांधी के साथ-साथ अरविंद केजरीवाल भी जेएनयू परिसर जाकर ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ के समर्थन में खड़े नजर आए थे. देश की आम जनता ऐसी राष्ट्र विरोधी नारेबाजी से खासी आहत हुई थी और अब वह आरोपियों को जल्द से जल्द सजा मिले, इसका इंतजार कर रही थी, लेकिन आज भी इस पर पार्टियां अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने में जुटी हुई हैं.
सवाल यह है कि क्या वाकई जेएनयू के अंदर राष्ट्र विरोधी नारे लगे थे या नहीं? नारे लगाने वाले कौन थे? क्या यह कोई सुनियोजित कार्यक्रम था या फिर किन्हीं अज्ञात लोगों ने जेएनयू में घुसकर माहौल खराब करने की कोशिश की थी? इसे समझने के लिए, जेएनयू के अंदर क्या-क्या होता रहा है, यह समझना बहुत जरूरी है. जहां तक बात नारेबाजी की है तो यह 100 फीसद सच है कि जेएनयू में ०९ फरवरी 2016 को लेफ्ट स्टूडेंट्स के ग्रुप्स ने संसद पर हमले के गुनहगार अफजल गुरु और जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) के को-फाउंडर मकबूल भट की याद में एक कार्यक्रम आयोजित किया था. बाकायदा परिसर में इसके लिए पोस्टर्स लगाए गए थे. परिसर के बाहर भी निमंत्रण भेजे गए थे. इसी कार्यक्रम के दौरान ही राष्ट्र विरोधी नारेबाजी हुई. जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करने और बंदूक व हिंसा के दम पर आजादी हासिल करने की बात कही गई. इस घटना का जब वीडियो सामने आया, तो पूरे देश में सनसनी फैल गई. मीडिया और विपक्षी पार्टियों के एक धड़े ने वीडियो को झूठा साबित करने की कोशिश की. और, जब वे इसमें विफल रहे, तो इसे अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़ दिया गया. काफी दिनों तक हंगामा होता रहा. हैरानी की बात यह है कि देश को तोडऩे की हसरत रखने वालों के समर्थन में कांग्रेस एवं वामपंथी दलों के साथ-साथ कई क्षेत्रीय पार्टियां भी खड़ी हो गईं. देश के टुकड़े-टुकड़े करने का नारा देने वालों को समर्थन देकर इन राजनीतिक दलों ने बहुत बड़ी भूल की, जिसका खामियाजा इन्हें अभी भुगतना बाकी है. लेकिन, सरकार ने जो किया, वह भी सही नहीं ठहराया जा सकता है. अधिकारियों की नासमझी के चलते एक छोटे से परिसर की घटना को बेवजह राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया गया. केंद्र सरकार ने अगर थोड़े से धैर्य और अक्लमंदी से काम लिया होता, तो यह मुद्दा कभी बनता ही नहीं. सरकार और विपक्ष को अगर जेएनयू के इतिहास के बारे में जानकारी होती, तो शायद उनसे यह गलती नहीं होती.
जेएनयू परिसर से जुड़ी कुछ घटनाओं के बारे में बताता हूं, जिन्हें जानकर आपका दिमाग हिल जाएगा. लोग हवाला कांड से वाकिफ हैं, क्योंकि उसमें लालकृष्ण आडवाणी का नाम आया था. लेकिन, कोई यह नहीं बताता कि इसका पर्दाफाश कैसे हुआ. यह घटना 1991 की है. पुलिस को एक हवाला नेटवर्क का पता चला, जिसके जरिये कश्मीर के आतंकवादियों को दिल्ली से पैसा भेजा जा रहा था. पुलिस ने छानबीन की, तो पता चला कि इस हवाला रैकेट का सरगना जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पीएचडी का छात्र है. उस छात्र का नाम शहाबुद्दीन गौरी था. वह जेएनयू परिसर के अंदर कावेरी हॉस्टल में रहता था. रातोंरात पुलिस विश्वविद्यालय परिसर में घुसी और शहाबुद्दीन को गिरफ्तार करके ले गई. पुलिस को वह हवाला डायरी, जिसमें सबके नाम थे, इसी होनहार छात्र के कमरे से मिली थी. उसके गिरफ्तार होने के बाद वामपंथी संगठनों ने काफी उपद्रव मचाया था. शहाबुद्दीन को बेकसूर बताकर उसकी गिरफ्तारी को सत्ता का दमन करार दिया गया था. बाद में इस होनहार छात्र पर केस चला और सजा भी मिली. वामपंथी छात्र नेता उससे मिलने तिहाड़ जेल भी जाया करते थे.
सवाल शहाबुद्दीन गौरी का नहीं है, किसी भी संस्थान में ऐसा शख्स पाया जा सकता है. सवाल तो यहां के वामपंथी छात्र संगठनों और प्रोफेसरों पर है, जो आतंकी संगठनों के साथ रिश्ता रखने, आतंकियों को पैसा मुहैय्या कराने वालों के भी समर्थन में खड़े हो गए. 90 के दशक में ऐसे और भी कई छात्र थे, जिन्हें आतंकवादियों को समर्थन देने के जुर्म में पुलिस चुपचाप गिरफ्तार करके ले गई. संसद पर हमला करने वाले आरोपियों, चाहे वह अफजल गुरु रहे हों या फिर एसए आर गिलानी, हमले से पहले इन सबका जेएनयू परिसर में आना-जाना था. जब उन्हें आरोपी बनाया गया, तब भी वामपंथी संगठनों ने उन्हें बेकसूर बताया था. 2015 में भी अफजल गुरु की फांसी के विरोध में नक्सली छात्र संगठन डीएसयू ने एक कार्यक्रम आयोजित किया था, जिसमें गिलानी को बुलाया गया था. इस पर काफी हंगामा हुआ था. वामपंथी संगठनों द्वारा आतंकवादियों को प्लेटफॉर्म देने की यह अकेली घटना नहीं है. 90 के दशक में वामपंथी संगठनों ने लगभग सभी कश्मीरी अलगाववादियों एवं आतंकवादियों को बुलाकर सेमिनार कराया और कश्मीर को भारत से अलग देश बनाने की मांग का समर्थन भी किया. आजम इंकलाबी सहित कई कश्मीरी आतंकवादी जेएनयू के सेमिनार में शामिल हो चुके हैं. जेएनयू में यह सब खुलेआम होता रहा है, लेकिन कभी एक्शन नहीं लिया गया.
जहां तक बात नक्सलियों की है, तो जेएनयू में कई ऐसे लोग हैं, जो खुलकर खुद को नक्सली और नक्सलियों का समर्थक बताते हैं. जेएनयू के छात्र नक्सली गतिविधियों में संलिप्त हैं और यह कोई छिपी हुई बात नहीं है और न यह कोई आरोप है. विचारधारा चुनने की स्वतंत्रता तो होनी ही चाहिए. सच्चाई यह है कि कई छात्र नक्सली संगठनों के साथ मिलकर काम करते हैं. 90 के दशक में कई लोगों की गिरफ्तारियां भी हुई थीं. 25 अगस्त 2013 को गढ़चिरौली में जेएनयू का एक छात्र हेम मिश्रा नक्सलियों के साथ पकड़ा गया. इस मेधावी छात्र के पास से एक माइक्रो चिप भी मिली थी, जिसमें संवेदनशील जानकारियां थीं. इसी तरह 10 मई 2014 को पुलिस ने दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जी एन साईबाबा को नक्सलियों को मदद पहुंचाने के आरोप में गिरफ्तार किया. इसके बाद जेएनयू के वामपंथी संगठनों ने दिल्ली में प्रदर्शन किया और साईबाबा की रिहाई की मांग की.
इस घटना के ठीक दो दिनों बाद यानी 12 मई 2014 को नक्सलियों ने पुलिस दस्ते पर हमला करके सात कमांडो की हत्या कर दी. नक्सलियों ने ऐलानिया कहा कि यह हमला साईबाबा की गिरफ्तारी का बदला है. नक्सलियों का यह हमला उसी गढ़चिरौली में हुआ, जहां जेएनयू का वह मेधावी छात्र नक्सलियों के साथ पकड़ा गया था. इससे पहले भी जेएनयू के एक छात्र बंसीधर सिंह उर्फ चिंतन को फरवरी 2010 में सात नक्सलियों के साथ पुलिस ने कानपुर में गिरफ्तार किया था. यह बात भी सच है कि जेएनयू के नक्सल समर्थक छात्र संगठनों ने 2010 में छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में हुए नक्सली हमले में सीआरपीएफ के 75 जवानों की मौत का खुलेआम जश्न मनाया था. एक फिल्म भी प्रदर्शित की गई थी. यह भी सच है कि यहां के वामपंथी संगठन कश्मीर और नॉर्थ-ईस्ट से सेना हटाए जाने के समर्थन में पर्चे छापते हैं.
29 अप्रैल 2000 को जेएनयू परिसर में दो मिलिट्री ऑफिसर्स को वामपंथी छात्रों ने पीट-पीट कर अधमरा कर दिया था. यह वाक्या उस वक्त हुआ, जब सीपीएम की छात्र विंग स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया के कार्यकर्ताओं ने विश्वविद्यालय से मिले आर्थिक सहयोग से ‘इंडिया-पाकिस्तान मुशायरा’ का आयोजन किया था, जिसमें भारत और पाकिस्तान के कई शायर शामिल हुए थे. हुआ यह कि पाकिस्तान से आए एक शायर ने कुछ भारत विरोधी बातें कह दीं. इस पर कुछ लोगों ने विरोध किया. विरोध करने वालों में बाहर से आए दो शख्स सबसे मुखर थे. उन्हें वामपंथी छात्रों ने घेर लिया. दोनों ने अपने पहचान-पत्र दिखाकर छात्रों को बताया कि वे आर्मी के मेजर हैं और कारगिल में पाकिस्तानियों से लडकऱ छुट्टी बिताने दिल्ली आए हैं. वामपंथी छात्रों ने पत्थर चलाने शुरू कर दिए. दोनों लहूलुहान हो गए. लेकिन, अगले दिन सुबह अंग्रेजी के अखबार ‘द हिंदू’ में यह खबर छपी दिखी कि दो लोगों ने जेएनयू में घुसकर ‘भारत-पाकिस्तान मुशायरा’ में विघ्न डालने की कोशिश की. साथ में वामपंथ समर्थक आयोजकों की तरफ से अखबार ने बताया कि मुशायरे को असफल बनाने के लिए दोनों को उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने भेजा था. इतना ही नहीं, इसके बाद पाकिस्तानी मीडिया ने भारत सरकार पर आरोप लगाया कि आडवाणी ने योजनाबद्ध तरीके से मुशायरे को बाधित कराया. काफी दिनों तक परिसर में तनाव व्याप्त रहा.
इस दौरान विश्वविद्यालय के वामपंथी प्रोफेसर हमलावर छात्रों के समर्थन में आ गए. उनकी तरफ से एक पर्चा भी बांटा गया, जिसमें बताया गया कि पाकिस्तानी शायर ने कोई गलत बात नहीं कही और दूसरा यह कि वामपंथी छात्रों की कोई गलती नहीं है, क्योंकि दोनों आर्मी ऑफिसर्स ने शराब पी रखी थी और उन्होंने बिना अनुमति के परिसर में घुसकर हंगामा किया. मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग सरकार के विरोध में लामबंद हो गए. ठीक वैसे ही, जैसा आज हो रहा है. उस केस में आज तक न कोई गिरफ्तार हुआ और न किसी को सजा मिली. जेएनयू परिसर में भारत विरोधी गतिविधियों की कई कहानियां हैं. कई बार यहां आतंकवादियों, नक्सलियों और अलगाववादियों के समर्थन में कार्यक्रम हुए. जेएनयू में भारत विरोधी नारे कई सालों से लग रहे हैं. वामपंथी संगठन भारत के टुकड़े-टुकड़े करने की बात करते रहे हैं. भारतीय सेना को भला-बुरा कहना यहां आम बात है. यह कोई नई बात नहीं है. अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर इस परिसर में आतंकवादियों और कश्मीरी अलगाववादियों को बुलाकर प्लेटफॉर्म दिया जाता रहा है. लेकिन, पहली बार एक्शन हो रहा है. कई बार विवाद हुए, लेकिन मीडिया और राजनीतिक दलों का एक धड़ा हर बार उन्हें बचाने में कामयाब रहा. लेकिन, इस बार भारत विरोधी नारेबाजी और भाषणबाजी के वीडियो सामने आ गए, जिनकी जांच भी हो चुकी है और उन्हें सही पाया गया. जो लोग इस घटना को अभिव्यक्ति की आजादी के चश्मे से देखना चाहते हैं, उन्हें यह बताना चाहिए कि देश की अखंडता और संप्रभुता को ही ध्वस्त करने की मंशा रखने वालों को संविधानिक सुरक्षा कैसे दी जा सकती है. हो सकता है कि ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ का नारा देने वाले अदालत में बच जाएं, लेकिन जनता की अदालत में वे गुनहगार साबित हो चुके हैं.
समझने वाली बात यह है कि जेएनयू नक्सलवाद और तमाम अलगाववाद का बुद्धिजीवी मुखौटा है. भारत विरोधी नारेबाजी यहां कई दशकों से हो रही है. जेएनयू एक ऐसा विश्वविद्यालय है, जहां के छात्र हर किस्म की विचारधारा से जुड़े हैं. और, इसमें कोई बुराई भी नहीं है. अगर सरकार ने इस घटना को नजरअंदाज कर दिया होता, तो यह मामला राजनीतिक मुद्दा न बनता. ऐसी घटनाओं को अगर रोकना था, तो उसके लिए जेएनयू के अंदर मूलभूत परिवर्तन करने की जरूरत थी. लेकिन, सरकार ने नासमझी वश पुलिस एक्शन के जरिये छात्रों को रोकने की कोशिश की, इसलिए मामला बिगड़ गया. उम्मीद यही करनी चाहिए कि जल्द से जल्द इस मामले पर अदालत में सुनवाई शुरू हो और जो दोषी हैं, उन्हें सजा मिले.