अनूप भटनागर
हाई कोर्टों और सुप्रीम कोर्ट के किसी पीठासीन न्यायाधीश को कदाचार और न्यायिक दुर्व्यवहार के कारण उस पर संसद में महाभियोग चलाकर पद से हटाने का एक और प्रयास विफल हो गया लगता है। यह मामला एक महिला न्यायाधीश के कथित यौन उत्पीड़न से संबंधित था जिसकी वजह से न्यायपालिका में सनसनी पैदा हो गई थी। इस मामले में मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के न्यायाधीश पर गंभीर आरोप लगे थे। इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टों के न्यायाधीशों पर लगे कदाचार और भ्रष्टाचार के आरोपों पर उन्हें महाभियोग के माध्यम से पद से हटाने के प्रयास किए गए लेकिन सफलता नहीं मिली।
स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार 1993 में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश वी रामास्वामी को पद से हटाने के लिए महाभियोग की कार्यवाही संबंधी प्रस्ताव लोकसभा में पारित नहीं हो सका था। इसके बाद 2011 में कलकत्ता हाई कोर्ट के जज सौमित्र सेन के मामले में यह प्रस्ताव राज्यसभा से पारित हो गया था लेकिन लोकसभा में इसे पेश किए जाने से पहले ही उन्होंने पद से इस्तीफा दे दिया था। इसी तरह के अन्य प्रयास में सिक्किम हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पीडी दिनाकरण ने पद का दुरुपयोग करके संपत्ति अर्जित करने सहित कदाचार के आरोपों की जांच के लिए राज्यसभा के तत्कालीन सभापति द्वारा 2011 में ही न्यायाधीश जांच कानून के तहत गठित समिति के समक्ष पेश होने की बजाय पद से इस्तीफा देना बेहतर समझा था।
मगर मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के न्यायाधीश एसके गंगले का मामला थोड़ा अलग था क्योंकि उन पर एक महिला न्यायाधीश के यौन उत्पीड़न के गंभीर आरोप थे। इन आरोपों के मद्देनजर ही राज्यसभा के सदस्यों ने उन पर महाभियोग चलाने के लिए एक प्रतिवेदन सभापति को दिया था। इस प्रतिवेदन के आधार पर न्यायाधीश जांच कानून के प्रावधान के अनुरूप समिति गठित होने के बावजूद जस्टिस गंगले ने इस्तीफा देने की बजाय जांच का सामना करना उचित समझा। जांच समिति के समक्ष यौन उत्पीड़न का एक भी आरोप साबित नहीं हो सका। सुप्रीम कोर्ट की न्यायाधीश आर भानुमति की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय जांच समिति की रिपोर्ट पिछले साल 15 दिसंबर को राज्यसभा के पटल पर रखी गई। इस समिति में कलकत्ता हाई कोर्ट की मुख्य न्यायाधीश, जो बाद में बंबई हाई कोर्ट की मुख्य न्यायाधीश पद से सेवानिवृत्त हुर्इं जस्टिस मंजुला चेल्लूर और वरिष्ठ अधिवक्ता केके वेणुगोपाल (अब देश के अटार्नी जनरल) शामिल थे।
ग्वालियर की अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश संगीता मदान द्वारा मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की ग्वालियर पीठ के प्रशासनिक नयायाधीश पर लगाए गए यौन उत्पीड़न के आरोपों से न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका हतप्रभ थी। इसी मुद्दे को लेकर इस महिला न्यायाधीश ने मध्य प्रदेश उच्चतर न्यायिक सेवा से इस्तीफा भी दे दिया था। मामले की गंभीरता को देखते हुए पहले मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने दो वरिष्ठ न्यायाधीशों की समिति गठित की थी। बाद में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एचएल दत्तू ने तीन न्यायाधीशों की समिति बनाई थी। यह प्रकरण लगातार तूल पकड़ता रहा और इसी बीच 17 मार्च, 2015 को राज्यसभा के 58 सदस्यों ने जस्टिस गंगले पर यौन उत्पीड़न के गंभीर आरोपों के आधार पर उन्हें पद से हटाने के लिए एक प्रस्ताव तत्कालीन सभापति हामिद अंसारी को दिया। इस प्रस्ताव को राज्यसभा ने पास किया था। इस प्रस्ताव पर विचार के बाद सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय समिति गठित की गई थी।
क्या थे आरोप
राज्यसभा के सभपति को दिए गए प्रस्ताव में जस्टिस गंगले पर महिला न्यायाधीश का यौन उत्पीड़न करना, उनकी गैरकानूनी और अनैतिक मांगों के समक्ष नहीं झुकने की वजह से महिला न्यायाधीश का मानसिक उत्पीड़न, प्रशासनिक न्यायाधीश के रूप में अपने पद का दुरुपयोग करके महिला न्यायाधीश का शोषण करने के लिए उनका ग्वालियर से सीधी तबादला करने सहित अधीनस्थ न्यायपालिका का इस्तेमाल करने जैसे आरोप थे। समिति ने दो जुलाई, 2016 की कार्यवाही में जस्टिस गंगले के खिलाफ कदाचार के ये आरोप तैयार किए थे। जस्टिस गंगले पर आरोप थे कि उन्होंने शिकायतकर्ता संगीता मदान का यौन उत्पीड़न किया जिसकी वजह से उनके पास पद से इस्तीफा देने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं बचा था। जस्टिस आर भानुमति की अध्यक्षता वाली समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि जस्टिस गंगले के खिलाफ लगाए गए आरोप साबित नहीं हुए हैं। उन्हें महाभियोग के जरिये हटाने की कार्यवाही में उच्च स्तर के सबूत चाहिए कि उन्होंने शिकायतकर्ता को परेशान किया और यह सुनिश्चित किया कि उनका तबादला ग्वालियर से किया जाए। समिति ने कहा कि किसी भी न्यायाधीश को पद से हटाना बहुत ही गंभीर मामला है। सांविधानिक पद पर आसीन न्यायाधीश को संरक्षण प्रदान करने का एक उद्देश्य होता है। किसी न्यायाधीश को भ्रष्टाचार या यौन उत्पीड़न के आरोप में हटाए जाने से न सिर्फ न्यायाधीश का व्यक्तित्व प्रभावी होता है बल्कि काफी हद तक न्यायपालिका की छवि भी प्रभावित होती है। इसलिए ऐसे मामले में उच्च स्तर के साक्ष्यों की आवश्यकता होती है। इस रिपोर्ट से जस्टिस गंगले को बड़ी राहत मिली है।
क्या है समिति की रिपोर्ट
समिति ने पहले आरोप के संदर्भ में कहा कि शिकायतकर्ता ने जस्टिस गंगले को 30मई, 2014 को फोन करके अपने यहां चपरासी की समस्या से अवगत कराया। न्यायाधीश गंगले ने उनसे कहा कि वह छुट्टी पर हैं और लौटने के बाद इसे देखेंगे। जस्टिस गंगले का यह भी कहना था कि यदि उन्होंने शिकायतकर्ता का पहले यौन उत्पीड़न किया होता तो उसने उत्पीड़न की घटना के बाद उनके कथित अपराधी से संपर्क ही नहीं किया होता। समिति को उनके इस तर्क में वजन नजर आया। समिति ने कहा कि शिकायतकर्ता ने यौन उत्पीड़न के बारे में जिन चार घटनाओं का जिक्र किया है जिनमें (1) जस्टिस गंगले की विवाह की 25वीं वर्षगांठ पर 10 और 11 दिसंबर, 2013 को महिला संगीत और मुख्य आयोजन, (2) जिला रजिस्ट्रार के माध्यम से व्यक्तिगत संदेश भेजकर शिकायतकर्ता को मिलने के लिए कहना, (3) न्यायिक अधिकारी शिवानी शर्मा के 22 अप्रैल, 2014 के विवाह समारोह की कथित घटना और (4) न्यायमूर्ति नवीन सक्सेना की अप्रैल, 2014 में विदाई समारोह के दौरान उत्पीड़न के आरोप थे वे समुचित संदेह से परे साबित नहीं हो सके।
जहां तक संगीता मदान के ग्वालियर से सीधी जिले में तबादले का संदर्भ है तो समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि सामने आए तथ्यों से पता चलता है कि उनका तबादल तत्कालीन जिला न्यायाधीश कमल सिंह ठाकुर की सिफारिश पर आधारित था। न्यायाधीश ठाकुर का यह विश्वास करने के अपने कारण थे कि शिकायतकर्ता अपने सटाफ के खिलाफ शिकायत करने की आदी है और वह अन्य न्यायाधीशों, विशेषकर दीवानी न्यायाधीशों से मधुर आचरण नहीं करती हंै। उन्होंने जिला न्यायाधीश से और गुमनाम शिकायतें की और सार्वजनिक रूप से यह कहा कि पहले वाले जिला न्यायाधीश की तुलना में मौजूदा जिला न्यायाधीश की प्रशासनिक क्षमता पर्याप्त नहीं हैं। अत: उन्होंने उनके तबादले की सिफारिश की थी। समिति ने कहा कि तबादला करने वाली समिति ने जिला न्यायाधीश कमल सिंह ठाकुर की सिफारिशों पर पूरी तरह भरोसा करके और इस बारे में किसी तरह की जांच किए बगैर ही उनका सत्र के मध्य में तबादला करके अनियमितता की। साथ ही उनका प्रतिवेदन भी अस्वीकार करना अनुचित था और हमारी राय में यह दंडात्मक था। समिति का कहना था कि चूंकि शिकायतकर्ता का पहला आरोप ही साबित नहीं हुआ है, इसलिए उनके तबादले को न्यायमूर्ति गंगले के हस्तक्षेप से नहीं जोड़ा जा सकता है।
मध्य प्रदेश उच्च न्यायिक सेवा के लिए 2011 में चुनी गर्इं संगीता मदान ने अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश नियुक्त होने से पहले दिल्ली में 15 साल वकालत की थी। ग्वालियर में अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश पद पर नियुक्ति होने के बाद वह अपनी दो बेटियों और वृद्ध माता पिता के साथ ग्वालियर आ गर्इं जबकि पेशे से आर्किटेक्ट उनके पति ने दिल्ली में ही रहना पसंद किया। उन्हें कई अन्य जिम्मेदारियों के साथ ही जिला विशाखा समिति का अध्यक्ष भी बनाया गया था। जबकि जस्टिस एसके गंगले को 11 अक्टूबर, 2004 को हाई कोर्ट का न्यायाधीश बनाया गया था। शुरू में वह हाई कोर्ट की इंदौर पीठ में नियुक्त थे। जून, 2006 में उनका तबादला ग्वालियर पीठ में हो गया जहां 25 जून, 2011 को उन्हें प्रशासनिक न्यायाधीश मनोनीत किया गया था।
संगीता मदान ने यह भी आरोप लगाया था कि वह जस्टिस गंगले के कहने पर ही यौन उत्पीड़न का प्रतिवाद कर रही थीं। यह भी आरोप था कि उन पर लगातार गहरी निगाह रखी जा रही थी और उनके आधिकारिक काम में समस्याएं पैदा की जा रही थीं। इसके अलावा, जस्टिस गंगले के कहने पर जुलाई, 2014 में उनका तबादला ए श्रेणी के शहर ग्वालियर से सी श्रेणी के शहर सीधी कर दिया। इस संबंध में दिया गया प्रतिवेदन अस्वीकार होने के बाद कोई अन्य विकल्प नहीं होने की स्थिति में संगीता मदान ने 15 जुलाई, 2014 को अपने पद से इस्तीफा दे दिया जिसे राज्य सरकार ने 17 जुलाई को स्वीकार कर लिया था। इसके बाद संगीता मदान ने एक अगस्त, 2014 को सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश को एक पत्र लिखकर सारे तथ्यों का पता लगाने के बाद उचित कार्रवाई करने, उन परिस्थितियों पर पुनर्विचार करने जिनकी वजह से उन्हें इस्तीफा देना पड़ा, अधीनस्थ सेवा के न्यायिक अधिकारियों की इस तरह की शिकायतों के निदान के लिए उचित व्यवस्था करने का अनुरोध किया था। प्रधान न्यायाधीश ने इस पत्र पर मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की प्रतिक्रिया मंगाई। हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने नौ अगस्त, 2014 को सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश को सूचित किया कि उन्होंने इस बारे में शिकायत मिलने पर दो वरिष्ठ न्यायाधीशों की समिति गठित की थी। समिति ने प्रारंभिक जांच के लिए 19 अगस्त, 2014 को संगीता मदान को बुलाया था। इसके जवाब में शिकायतकर्ता ने यह स्पष्टीकरण मांगा कि कानून के किस अधिकार के अंतर्गत यह समिति गठित की गई है। यही नहीं उन्होंने न्यायाधीशों की समिति की निष्पक्षता पर भी सवाल उठाए थे।