मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद तुरंत नया मुख्यमंत्री न चुने जाने की स्थिति में अभी वहां राष्ट्रपति शासन है? पीडीपी-भाजपा सरकार फिर से बन पाएगी?
मुझे शक है। वजह बताऊं तो मुफ्ती मोहम्मद सईद जिस कद के राजनीतिक थे- घाघ, अनुभवी, जहीन, चालबाज और मिलनसार- वैसा नेता अब पीडीपी के पास नहीं है। उनकी सरकार को हुर्रियत का भी समर्थन था और भाजपा का भी। अब जैसी खबरें चल रही हैं, मैं उनको सही-गलत नहीं कहूंगा, लेकिन मुफ्ती के बाद पीडीपी की अपेक्षाएं काफी बढ़ गई हैं और पार्टी के तमाम नेता पद और अधिकार पाने के लिए बेताब हैं। इसलिए भाजपा और पीडीपी का गठबंधन आगे चल पाएगा इसमें बहुत बड़ा शक है।
क्या ऐसा पीडीपी में ही है?
नहीं, भाजपा में भी ऐसा है कि उन्हें अपना अस्तित्व बचाने का संकट है। जम्मू में पच्चीस सीटों का आंकड़ा अब उन्हें मिलने वाला नहीं। वो मोदी जी का जादू था और जादू बार-बार नहीं चलते। जनता में भाजपा की ऐसी किरकिरी हुई है कि उन्होंने सरकार में तो हिस्सा पा लिया, पद पा लिए, लेकिन जनता का भरोसा खो बैठे हैं। आज चुनाव हो जाएं तो भाजपा को पांच सीटें भी मिल जाएं तो बहुत बड़ी बात होगी। इसलिए भाजपा भी अब वैसी ही नहीं है जैसी मुफ्ती जी के साथ थी। वह और हिस्सा चाहेगी और कुछ करना भी चाहेगी। तो नए सिरे से समझौता हो सरकार बनाने के लिए। इसमें महबूबा जो अपनी ही पार्टी के कई मामलों में फंसी हैं, भाजपा की बातों पर कितना गौर कर पाएंगी, कहना मुश्किल है। आज जम्मू की स्थिति यह है कि जैसे वह कश्मीर का गुलाम हो। उसकी इस स्थिति में भाजपा की पीडीपी के साथ सरकार बनाने के बाद भी कोई बदलाव नहीं आया है।
सांत्वना देने आर्इं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की महबूबा से मुलाकात को इतना तूल क्यों दिया गया?
हालांकि मौका तो शोक का था जब सईद साहब के दुनिया से जाने के चौथे दिन तमाम लोग अपनी शोक-संवेदनाएं जताने महबूबा के पास गए थे। महबूबा सबसे रो-रोकर मिल रही थीं। सोनिया गांधी के भी अकेले में गले लगकर वह रोई थीं और जैसी कि खबरें हैं कि सोनिया ने उनको कहा कि कांग्रेस पूरी तरह उनके साथ है। इस समय कांग्रेस किसी भी तरह से जम्मू कश्मीर में सरकार में आने को बेताब है। उन्होंने पहले भी सरकार बनाई है। हां, विधायक उनके केवल बारह ही हैं पर शायद वे नेशनल कांफ्रेंस को राजी कर लेंगे, ऐसा वे मानते हैं। पर इस मामले पर अभी ज्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता।
आप जम्मू कश्मीर टूटने की बात किस आधार पर करते हैं?
पूरे जम्मू में इस बात पर बेचैनी है कि कश्मीर से अलग हुए बिना वे अपनी गुलामी की दशा से मुक्त नहीं हो सकते। भाजपा से उन्हें आस थी लेकिन अब उन्हें यह पार्टी भी पीडीपी, नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस से किसी माने में अलग नहीं लग रही है। संस्कृति, सोच, राजनीतिक हालात, बोलचाल कुछ भी कश्मीर से नहीं मिलता और उन्हें गुलामों जैसी दशा में रहना पड़ रहा है। वे आजादी चाहते हैं और भारत के दूसरे नागरिकों की तरह रहना चाहते हैं। इसलिए इसे तो अलग होना ही है और इसे कोई नहीं रोक सकता। केंद्र से पैसा और मदद की इफरात है लेकिन वह सारा का सारा घाटी में बंट जा रहा है और जम्मू के हिस्से में आता है फेंका हुआ एक टुकड़ा। अब उन्हें इज्जत चाहिए, आजादी चाहिए। और यह आग घर-घर सुलग रही है।
आपको ऐसा क्यों लगता है कि जब मुफ्ती ने भाजपा से गठबंधन को उत्तरी-दक्षिणी ध्रुव का तालमेल बताते हुए भी सरकार चला ली तो महबूबा नहीं चला पाएंगी?
वैसा करिश्मा केवल मुफ्ती के ही बूते की बात थी। कद था और राजनीतिक चलाकियों और चालबाजियों के वे माहिर थे। उनके ताल्लुकात थे। जहीन और अनुभवी तो थे ही। जम्मू कश्मीर के पहले नेता थे (और शायद आखिरी भी) जो देश के गृहमंत्री बने। वह कम्युुनिस्ट पार्टी में भी रहे, कांग्रेस में भी, फिर अपनी खुद की पार्टी बनाई। आप देखिए कि हुर्रियत जैसा अलगाववादी संगठन भी उनकी सरकार को सपोर्ट कर रहा था और भाजपा को भी साध रखा था। महबूबा सईद साहब के निधन के चौथे दिन जिस तरह से रो-रोकर लोगों से मिल रही थीं, वह एक पके नेता की निशानी नहीं दिखाता। दूसरा उनकी पार्टी की बढ़ती अपेक्षाएं और भाजपा के आगे अस्तित्व बचाने का संकट। तमाम और चुनौतियां अलग हैं। अब गवर्नर रूल के बाद सरकार बनाने की कवायद नए सिरे से चलेगी और यह इतना आसान नहीं है। मान लीजिए कि पीडीपी-भाजपा सरकार बन भी जाती है तो दो-तीन महीने बाद जब विधानसभा का सत्र शुरू होगा, वह पहले सत्र में ही गिर जाएगी। इतना तय जानिए क्योंकि कुछ ही दिनों में मामला अब काफी आगे बढ़ चुका है।