पं. भानुप्रतापनारायण मिश्र
ब्रहमवैवर्त पुराण में आदि शक्ति के दो प्रमुख रूपों के विषय में कहा गया है कि यह दोनों रूप, रंग, तेज, गुण और आयु में समान ही हैं। इनके बाएं भाग में लक्ष्मी जी हैं तो दाएं भाग में श्री राधा जी-
एकैव सा द्विधाभूता वर्णरूपवयास्त्विशा। समा वामाशंतो लक्ष्मीर्दक्षिणांशाच्च राधिका।।
श्री राधा भगवान कृष्ण के साथ दो भुजाधारी रूप में विराजमान हैं तो श्री लक्ष्मी चतुर्भुज रूप में भगवान श्री विष्णु के साथ सबकी इच्छाएं पूरी करती हैं-
द्विभुजे राधिका ज्ञेया लक्ष्मीः स्यात्सा चतुर्भुजे। सर्वांशने समौ बोध्यौ कृष्णनारायणो परौ।।
लेकिन लक्ष्मी जी अक्सर नाराज हो कर चली जाती हैं घरों से। क्यों होता है ऐसा? इस पर लक्ष्मी जी ने कहा है-
पितरौ पितरो देवा गुरुरतिथिजना न संतुष्टा:।
मिथ्यावादी स्थाप्यहरश्चालीकसाक्ष्यदाता च।।
अर्थात जहां माता-पिता, पितर, देवगण, गुरुओं और मेहमानों को प्रसन्नता नहीं होती, झूठ बोलने वाले, झूठी गवाही, कसमें खाने वाले होते हैं, मैं वहां निवास नहीं करती। कलियुग में इन बातों की बहुतायत है। ऐसे लोग, ऐसे घर परेशानियों में डूबे नजर आते हैं।
लक्ष्मी जी ऐसे लोगों के यहां भी नहीं जातीं जो सारे शरीर पर तेल मालिश करते समय पहले सिर पर तेल लगाते हैं। मतलब यह है कि हमेशा पैरों से तेल लगाना चाहिए अगर आप लक्ष्मी जी को प्रसन्न करना चाहते हैं। लक्ष्मी कहती हैं कि जो लोग अपनी पत्नी या पति से प्रेम नहीं करते, हिंसा में रुचि रखते हैं, ईश्वर में आस्था नहीं है और जिस घर की स्त्री बहुत गुस्सा और घमंड करने वाली हो, लोग घर में एक-दूसरे के प्रति बुरा नजरिया रखते हों, जलते हो, शाम को सोने वाले, न नहाने वाले, दूसरों की संपत्ति हड़पने वाले, गंदे कपड़े पहनने वाले और दूसरों के कामों में समस्या खड़े करने वाले लोगों को मैं पसंद नहीं करती हूं।
स्वर्ग के राजा इन्द्र के यहां मौजूद समस्त सपंदा और पाताल में मौजूद असुरों के पास जो सपंदा है उसके पीछे भी लक्ष्मी जी ही हैं। गृहस्थ जीवन जी रहे लोगों के यहां मौजूद गृहलक्ष्मी असल में पत्नी या पुत्रवधू ही है। इनमें लक्ष्मी का जी का सोलहवां अंश् होता है जिसमें उस समय कमी होने लगती है जब वह ईर्ष्या वश अधार्मिक और सामाजिक अत्याचार करती है। परिवार में अंहकार के कारण समस्याएं खड़ी करती है, पति और सास-ससुर की हर बात का विरोध करती है।
धनतेरस के दिन शुरू हुई थी श्री यंत्र की पूजा
एक बार लख्मी जी रूठ कर पृथ्वी छोड़कर बैकुण्ठ घाम चली गईं। पृथ्वी पर उनके जाते ही हाहाकार मच गया। वशिष्ट ने उन्हें पृथ्वी पर लाने का प्रण किया। बैकुण्ठ जाने पर लक्ष्मी जी को वशिष्ट जी ने प्रसन्न करने की कोशिश की पर लक्ष्मी जी प्रसन्न नहीं हुईं। जब सारे प्रयत्न असफल हो गए तो वशिष्ट जी ने विष्णु जी की आराधना शुरू की।
विष्णु जी प्रसन्न होकर प्रगट हो गए और लक्ष्मी जी को पृथ्वी लोक पर जाने के लिए मनाने की कोशिश की। लेकिन लक्ष्मी जी ने उनका भी अनुरोध ठुकरा दिया। निराश वशिष्ट जी पृथ्वी पर लौट आए। पृथ्वी लोक में निराशा फैल गई। तब देवगुरु बृहस्पति ने सभी मनुष्यों की पीड़ा दूर करने के लिए वशिष्ट से कहा कि वह श्री यंत्र साधना से लक्ष्मी जी को प्रसन्न करें। उस दिन त्रयोदशी थी। तब से धनतेरस के दिन श्री यंत्र की पूजा प्रारंभ हुई। लक्ष्मी तत्काल प्रगट हुईं और बोलीं-श्री यंत्र मेरा आधार है और इसी में मेरी आत्मा बसती है।