संध्या द्विवेदी।
पचास हजार मांगा हूं। बैंक मैनेजर बोले- पचास नहीं सत्तर लेओ। मोही सत्तर दीन्ह। मैं लेके चला आऊं हूं। …किताब में कितना भरा है मोहीं नहीं पता?’ फतेहगंज के गांव संग्रामपुर के किसान फक्कड़ की पास बुक में कर्ज की रकम दो लाख पचास हजार लिखी है। उन्होंने 2014 में कर्ज लिया था। फक्कड़ को पासबुक में लिखी कर्ज की रकम के बारे में भी कुछ नहीं पता। कर्ज चुकाने के बारे में उनसे पूछा गया तो उन्होंने साफ कहा कि ‘मैं कहां से चुकाऊंगा। सरकार चाहे तो जेल में डाल दे। जिसने मेरा कर्ज दिलवाया था उसने तो कहा था कि यह कर्ज माफ हो जाएगा।’ कर्ज किसने दिलाया था- यह पूछने पर उसने राजाराम गर्ग का नाम लिया। फक्कड़ का कर्ज बैंक तक ही सीमित नहीं है। फक्कड़ ने एक कुंतल चना और एक कुंतल गेहूं करीब के गांव के साहू से उधार लिया था ताकि खेत में उन्हें बो सके। साहू ने पच्चीस प्रतिशत ब्याज की दर से उन्हें यह उधार दिया है। यानी एक कुंतल चना का एक सौ पच्चीस किलो बनेगा। ऐसे ही गेहूं का हिसाब होगा। और यह ब्याज भी चक्रवृद्धि ब्याज की दर से होगा। यानी पहली बार सौ किलो पर ब्याज दो। दूसरी बार एक सौ पच्चीस किलो पर पच्चीस प्रतिशत। ऐसे ही गेहूं और चने की मात्रा बढ़ती जाएगी। फक्कड़ से इस कर्ज की अदायगी के बारे में पूछा तो उसका जवाब बिल्कुल बैंक कर्ज चुकाने जैसा ही था- ‘तीन साल से सूखा है, इस साल भी कुछ नहीं हुआ। साहूकार कुड़की कर ले, अब कुछ है ही नहीं तो हम लौटाएं क्या?’
गांव के सुंदरलाल के साथ भी यही हुआ। उसने साल 2013 में दो लाख रुपए बैंक से लिए। साल 2014 में यह राशि बढ़कर ढाई लाख हो गई। चक्रवृद्धि ब्याज से सुरसा के मुंह की तरह बढ़ रहे कर्ज का बोझ किसानों को या तो डिफाल्टर बना रहा है या फिर सरकार के सामने कर्ज माफी के लिए हाथ फैलाने को मजबूर करता है। यह तो सरकार और किसान के बीच की बात है लेकिन सुंदरलाल को तो कर्ज की पूरी रकम यानी दो लाख रुपए भी नहीं मिले। उन्हें महज एक लाख अस्सी हजार रुपए मिले थे। दस प्रतिशत सुविधा शुल्क के नाम पर दलाल ने पहले ही काट लिए थे। सुंदरलाल को भी दलाल ने यही बताया था कि सरकार कर्ज माफ करेगी। भाऊराम भी दलाल की दलाली का शिकार हैं। साल 2014 में चालीस हजार कर्ज लिया था। लेकिन मेरे हाथ आया तैंतीस हजार रुपए। सात हजार रुपए रक्सा के नरेंद्र ने लिए। नरेंद्र ने ही मुझे कर्ज दिलाया था। वह बैंक में बैंक मित्र है। भाऊराम भी कर्ज चुकाने के सवाल पर हाथ खड़े कर देते हैं। बोलते हैं, ‘तीन साल से सूखा पड़ रहा है, खाने के लाले हैं। बैंक को क्या चुकाएंगे?’ नरेंद्र ने कर्ज न चुकाने के ही तो हमसे सात हजार रुपए लिए थे। शिवराम ने साल 2012 में एक लाख रुपए कर्ज लिए थे। उनका कर्ज बढ़कर अब दो लाख छब्बीस हजार हो गया है। हालांकि शिवराम को भी पूरे एक लाख रुपए नहीं मिले थे। उन्हें दस प्रतिशत सुविधा शुल्क के नाम पर अदा करने पड़े थे। शिवराम ने बताया कि बैंक मैनेजर ने उनसे कहा था कि दस हजार रुपए काटे जाएंगे। पूछने पर जवाब दिया था, ‘इतना पैसा तो चुकाना ही पड़ता है। यह सुविधा शुल्क है। क्या कर्ज लेना इतना आसान है? भई कर्ज दिलाने का मेहनताना तो चुकाना पड़ेगा।’ शिवराम ने भी एक कुंतल चना और एक कुंतल गेहूं साहूकार से लिया है। पच्चीस प्रतिशत की दर से चक्रवृद्धि ब्याज उसे भी चुकाना है। मगर कहां से, न उन्हें पता है और न ही शायद साहूकार को।
गांव के ही ओमप्रकाश त्रिपाठी ने बताया कि जब किसान साहूकार का कर्ज दो चार साल नहीं चुका पाएगा तो वह उनकी जमीन अपने नाम करा सकता है। दरअसल साहूकार जानता है किसान कर्ज चुका नहीं पाएगा। उसकी नजर हमेशा जमीन पर ही रहती है। साहूकार तो हमेशा से ही किसानों का हमदर्द बनकर उन्हें ठगता रहा है, लूटता रहा है, उनकी जमीनों पर कब्जा करता रहा है। लेकिन ये सरकारी साहूकार यानी बैंक भी कुछ अलग नहीं कर रहे हैं। यह सूची लंबी है। यह किसी एक गांव की बात नहीं बुंदेलखंड के ज्यादातर गांवों की दशा यही है। किसान क्रेडिट कार्ड योजना को 1998-99 में शुरू करते समय तत्कालीन वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने कहा था कि किसान क्रेडिट कार्ड योजना में बैंक किसान को एक तरह से गोद ले लेगा। जिससे किसान खेत के लिए उर्वरक खाद, बीज और कीटनाशक खरीदकर अच्छी खेती कर पाएगा। लेकिन जमीनी हकीकत तो यह है कि कर्ज ने किसान को राहत कम आफत ज्यादा दी। किसान का भला करने की जगह बैंक मैनेजर, बैंक मित्र और दलालों के साथ मिलकर दलाली करने लगे। हालांकि यह दोष केवल बैंक मैनेजर, दलाल या बैंक मित्र का नहीं बल्कि उस सियासत का भी है जिसने कर्ज माफी को वोट बैंक को रिझाने के लिए इस्तेमाल किया। गांवों में खुले आम दलाली का खेल चलता रहे और प्रशासन सुस्त पड़ा रहे। विधायक या सांसदों को भनक तक न लगे। यह बात गले नहीं उतरती।
कर्ज पर हुई राजनीति किसानों के गले की फांस बन गई। यह फांस अब तक हजारों किसानों को फांसी के फंदे तक ले गई। बाकी बचे कर्जदार किसान भी कर्ज चुकाने के नाम पर जान देने की बात कहते हैं। कर्ज की यह सियासत अभी कितनों को लीलेगी पता नहीं? इसका नमूना हमें रिपोर्टिंग के दौरान देखने को मिला। हम किसानों से उनके कर्ज के बारे में पूछताछ कर रहे थे। बैंक मैनेजर को न जाने किसने यह सूचना पहुंचा दी। प्रधान रामनरेश पटेल के पास बैंक मैनेजर का फोन आया। बैंक मैनेजर ने पहले प्रधान को फिर गांव वालों को जी भर के गालियां दीं। रामनरेश को धमकाया कि अगर किसी ने कुछ ऊटपटांग बोला तो उसकी खैर नहीं। उसने हमारे बारे में भी पूछा तो प्रधान ने बड़ी चालाकी से कह दिया कि वे लोग तो आकर जा चुके हैं।
बैंक मित्र ने खोले कर्ज के काले राज
किसान क्रेडिट कार्ड के जरिए किसान का भला कम और दलालों की दलाली का धंधा ज्यादा चमक रहा है। किसान तो अनपढ़ हैं। जो पढ़े लिखे भी हैं वे भी बैंक-वकील के चक्कर में सीधे नहीं पड़ना चाहते। वे खुद ही दलाल के पास पहुंच जाते हैं। दलाल किसानों को यही बताता है कि कर्ज चुकाना नहीं है। आप किसानों से जाकर पूछिए तो ज्यादातर किसानों के दिमाग में कर्ज अदायगी की बात होती ही नहीं है। कर्ज लेने के एक साल के भीतर उसे रिनियु कराना होता है। एक साल तक सात प्रतिशत ब्याज दर के हिसाब से कर्ज भरना होता है। उसके बाद चौदह प्रतिशत। वह भी चक्रवृद्धि ब्याज। जैसे किसी किसान ने एक लाख रुपए कर्ज लिया है। एक साल तक इसका रिनियु नहीं कराया गया तो एक साल बाद उसका कर्ज बढ़कर एक लाख चौदह हजार हो जाएगा। अब ब्याज इस राशि पर लगेगा। पहली कमी तो सरकार की है कि किसानों की मदद के लिए अगर कर्ज दिया जा रहा है तो ब्याज इतना ज्यादा क्यों? दूसरी बात, ज्यादातर किसान एक बार कर्ज लेने के बाद रिनियु कराने पहुंचते ही नहीं। हर बैंक में दो चार दलाल लगे रहते हैं। इनकी बैंक मैनेजर से साठगांठ होती है। ये दलाल पांच प्रतिशत, छह प्रतिशत, आठ प्रतिशत या दस प्रतिशत तक दलाली खाते हैं। अलग अलग बैंक के दलाल अलग-अलग कमीशन लेते हैं। इसे बैंक मैनेजर और दलाल मिलकर खाते हैं। अभी हाल ही में बदौसा के एक बैंक में एक किसान के नाम पांच लाख का लोन जारी किया गया। मगर उसके हिस्से आए सिर्फ दो लाख रुपए। तीन लाख रुपए बैंक मैनेजर और दलाल खा गए।
गड़बड़ियां कई स्तर पर होती हैं। जैसे इस किसान के पास थी दो हेक्टेयर जमीन। लेकिन बैंक मैनेजर ने इसके खाते में लिखी चार हेक्टेयर जमीन। जमीन के आधार पर लोन पास होता है। किसान को भी नहीं पता होता है कि खाते में क्या लिखा जा रहा है? या यूं कहें कि किसान के सामने जहां दस-दस और सौ-सौ की मोटी गड्डी आती है तो उसे न पासबुक दिखती है और न ही भविष्य में इसे चुकाने का कोई ख्याल आता है। बदौसा का केवल एक मामला है जबकि न जाने कितने ऐसे मामले हैं जहां किसान के नाम खाते पर चढ़े कर्ज का पचास प्रतिशत या उससे भी कम किसान को मिलता है। अब जो किसान कर्ज लेता है उसकी फसलों का बीमा खुद ब खुद हो जाता है। फसल खराब हुई तो उसे उचित बीमा-राशि मिलनी चाहिए। मगर वह मिलती नहीं। पता है क्यों? चक्रवृद्धि ब्याज बढ़-बढ़कर इतना हो जाता है कि बीमा राशि वहीं कट जाती है। इसलिए फसल बीमा किसान के हिस्से कभी आता ही नहीं।
एक और जबरदस्त खेल चलता है। एक किसान तीन-तीन बैंकों से कर्ज लेता है। इसमें भी दलाल और वकीलों की भूमिका होती है। जैसे एक किसान को पहला कर्ज लेना है तो वह नो आब्जेसक्शन सार्टिफिकेट बनवाएगा कि भई इस किसान पर कोई कर्ज नहीं है। वह उसी सर्टिफिकेट को एक बैंक में लगाता है। फिर उसी को दूसरे और तीसरे में। बैंक चेक करने की जहमत भी नहीं उठाते। यह दिमाग किसी वकील या दलाल का होता है। देखिए कोई किसान सीधे बैंक से कर्जा लेने नहीं जाता। वह खुद ब खुद दलाल का दरवाजा खटखटाता है। दलाल अपने मेहनताने के नाम पर किसान से न केवल अच्छा खासा कमीशन लेता है बल्कि किसान को कर्ज के दुष्चक्र में फंसा देता है। उसे कर्ज अदा करने की सही जानकारी देने की बजाए उसे कर्ज माफी का भरोसा देता है। जब कर्ज माफी नहीं होती, नोटिस पहुंचता है तो किसान घबराकर फांसी का फंदा गले लगाता है। हकीकत तो यह है कि किसान क्रेडिट कार्ड किसान का दोस्त नहीं दुश्मन साबित हो रहा है।