लोकसभा चुनाव के महाभारत के लिए महा-गठबंधन ने अपना लक्ष्य तो तय कर लिया है, लेकिन सेना और सेनापति को लेकर दुविधा ऐसी है कि दावे के साथ परिणामों पर कोई कुछ नहीं कह पा रहा. यह बहुत हद तक लाजिमी है, क्योंकि सेना और सेनापति पर संशय हो, तो लड़ाई में जीत की संभावना कम हो जाती है.
राज्य में महा-गठबंधन के सभी नेता गला फाड़ कर कह तो रहे हैं कि एनडीए का खाता नहीं खुलने देंगे, लेकिन वे यह नहीं बता पा रहे कि यह होगा कैसे. एनडीए ने तो कम से कम यह तो तय कर लिया है कि उनके कौन से घटक दल कितनी सीटों पर चुनाव लड़ेंगे, लेकिन महा-गठबंधन को तो अभी यह पहला टास्क ही पूरा करना है. इसके बाद बारी आएगी कि किस सहयोगी दल को कौन-कौन सी सीटें देनी हैं और अंतिम पड़ाव उम्मीदवारों के चयन का होगा. कहा जाए तो चुनौती ज्यादा है और वक्त बहुत कम. दरअसल, महा-गठबंधन अपनी चुनावी तैयारियों में एनडीए से क्यों पिछड़ रहा है, इसे समझने के लिए राज्य की कुछ बुनियादी सियासी सच्चाइयों को समझना जरूरी है. पिछले दो दशकों से लालू प्रसाद बिहार में भाजपा विरोध की राजनीति के अगुवा रहे हैं. इन दिनों वह जेल में हैं और अर्से से बीमार हैं. गठजोड़ की राजनीति में उनकी सक्रियता इस वजह से कम हो गई है. लालू प्रसाद के सीन से गायब रहने का बहुत बड़ा खामियाजा महा-गठबंधन और खासकर राजद को उठाना पड़ रहा है.
तेजस्वी यादव ठीक हैं, चीजों को आगे बढ़ा रहे हैं, लेकिन अंतिम मुहर के लिए सभी सहयोगी दल लालू प्रसाद का ही मुंह ताक रहे हैं. लोग अपनी जरूरत के हिसाब से रांची जाकर लालू प्रसाद से मिल रहे हैं, पर महा-गठबंधन की गाड़ी को तेजी से आगे बढ़ाने के लिए इतना ही काफी नहीं है. खुद राजद के अंदर ही लालू प्रसाद के बाहर न रहने के कारण काफी रगड़ा-रगड़ी चल रही है. सीट बंटवारे से लेकर प्रत्याशी चयन तक के मामले में अभी परिवार के अंदर ही एक राय बननी बाकी है. पाटलिपुत्र सीट को लेकर भाई वीरेंद्र और मीसा भारती के बीच जो सार्वजनिक खींचातानी हुई, वह तो बस एक बानगी भर है. राजद की दर्जन भर सीटों पर यही हालात हैं. माना जा रहा है कि देर-सबेर राजद कम से कम अपनी हिस्से की सीटों पर एक राय बना लेगा. लेकिन, कांग्रेस को लेकर महा-गठबंधन में जो रायता फैला हुआ है, उसे समेटेने का बीड़ा कौन उठाएगा, इस सवाल का जवाब मिलना अभी बाकी है.
नीतीश कुमार के महा-गठबंधन से बाहर आ जाने के बाद कांग्रेस और राजद ने काफी मजबूती से एक-दूसरे का साथ देकर राज्य में एनडीए को चुनौती देने का प्रयास शुरू किया था, लेकिन जैसे-जैसे महा-गठबंधन में घटक दल बढ़ते गए, दोनों पुराने दोस्तों के बीच दूरियां बढ़ती गईं. पहले जीतन राम मांझी आए और फिर काफी कशमकश के बाद उपेंद्र कुशवाहा भी शामिल हो गए. इसके बाद मुकेश सहनी को भी तेजस्वी ने साथ किया. इन तीन नए साथियों के साथ आने के बाद तेजस्वी के तेवर कांग्रेस के लिए बदलने लगे. राहुल गांधी के साथ लंच व डिनर का सिलसिला भी कम हो गया. इस सबके बावजूद यह तय था कि राजद की ओर से कांग्रेस को सम्मानजनक सीटों का ऑफर दिया जाएगा. सूत्र बता रहे थे कि कांग्रेस को 12 सीटों पर चुनाव लडऩे को कहा जा सकता है. गौरतलब है कि 2014 में भी कांग्रेस ने राजद के साथ गठबंधन में 12 सीटों पर चुनाव लड़ा था और दो पर सफलता पाई थी.
कांग्रेस इस बार कम से कम 15 सीटों की मांग कर रही है और उसका तर्क यह है कि पिछली बार उसके तीन विधायक थे और इस बार 27 हैं. पिछले चुनाव की तुलना में पार्टी का जनाधार बढ़ा है और चूंकि राहुल गांधी के चेहरे पर चुनाव देश भर में लड़ा जाना है, तो 15 से कम सीटों पर लडऩे से राजनीतिक संदेश खराब चला जाएगा. कहा जाए तो कांग्रेस 12 और 15 के बीच फंसी हुई थी. लेकिन, हाल की दो घटनाओं ने कांग्रेस का खेल बिगाड़ दिया. उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश यादव ने अपने गठबंधन में कांग्रेस को जैसे ही जगह नहीं दी, बिहार में सवाल उठ गया कि यूपी में नहीं, तो बिहार में क्यों. तेजस्वी लगे हाथ मायावती और अखिलेश से मिल भी आए . इसके बाद तो कांग्रेस का सीन और भी खराब हो गया.
राजद के रणनीतिकारों का मानना है कि जो बात कांग्रेस के लिए यूपी में लागू है, वही बिहार में भी लागू होती है. अगड़ी जाति के कुछ वोटरों में कांग्रेस की पैठ है और केवल इस आधार पर उसे 12 सीटें नहीं दी जा सकतीं. राजद के साथ ‘माय’ की ताकत है, तो मांझी, कुशवाहा और मुकेश सहनी के साथ उनकी अपनी-अपनी जाति का वोट बैंक है, लेकिन कांग्रेस के साथ तो ऐसा नहीं है. इसी को आधार बनाते हुए सूत्र बताते हैं कि राजद ने 22 सीटों पर चुनाव लडऩे का मन बना रखा है और बाकी 18 सीटों को वह सहयोगियों के बीच बांटना चाहता है. इसमें आठ कांग्रेस, चार उपेंद्र कुशवाहा, दो जीतन राम मांझी, दो वामदल और एक-एक सीट मुकेश सहनी एवं बसपा को दी जा सकती है. यह सोच राजद की है, लेकिन कांग्रेस ने 15, कुशवाहा ने छह, मांझी ने चार, मुकेश सहनी ने दो और वामदलों ने चार सीटों की मांग कर रखी है.
अब लाख टके का सवाल यह है कि कांग्रेस और सहयोगी दलों के बीच सामंजस्य बैठेगा, तो आखिर कैसे बैठेगा. कांग्रेस ने पप्पू यादव, अनंत सिंह और लवली आनंद जैसे नेताओं को पहले ही न्योता दे रखा है. कांग्रेस का मानना है कि कम सीटों पर चुनाव लडऩे से देश स्तर पर काफी बुरा संदेश जाएगा. इसके अलावा राजद ने सवर्ण आरक्षण पर जो लाइन ली है, उससे कांग्रेस की ओर झुक रहे सवर्ण वोटरों का झुकाव एक बार फिर भाजपा की ओर होने लगा है. कांग्रेस इसे अपने वोट बैंक के लिए बड़ा झटका मान रही है. इसलिए वह अभी राहुल गांधी की पटना में प्रस्तावित रैली का इंतजार कर रही है. वैसे राहुल गांधी चाहते हैं कि बिहार में कांग्रेस राजद के साथ मिलकर ही चुनाव लड़े, लेकिन बदली परिस्थितियों में यह कैसे संभव होगा, यह देखना दिलचस्प होगा.
जानकार बताते हैं कि अगर बात नहीं बनी, तो कांग्रेस उत्तर प्रदेश की तरह बिहार में भी सभी 40 सीटों पर चुनाव लडऩे का विकल्प चुन सकती है. कांग्रेस हर हाल में सम्मानजनक सीटें चाहती है और यह भी इच्छा रखती है कि चुनाव में चेहरा राहुल गांधी ही रहें, लेकिन राजद इसके लिए तैयार नहीं है. जीतन राम मांझी कह रहे हैं कि उन्हें उपेंद्र कुशवाहा से कम सीटें नहीं मिलनी चाहिए और कुशवाहा कह रहे हैं कि छह सीटों में एक सीट उन्हें झारखंड में भी चाहिए. कहा जाए, तो महा-गठबंधन के अंदर अभी इतना अंतर्विरोध है कि कोई भी कुछ दावे के साथ नहीं कह सकता. सीटों की घोषणा के बाद महा-गठबंधन मौजूदा स्वरूप में रह पाएगा भी या नहीं, यह भी सवाल सियासी गलियारों में गूंज रहा है. कांग्रेस उत्तर प्रदेश की राह बिहार में चलेगी या फिर अपमान का घूंट पीकर रह जाएगी, यह देखने वाली बात होगी. इसलिए अगर एनडीए को बिहार में हराना है, तो महा-गठबंधन को जल्द से जल्द अपनी सेना और सेनापति का चयन कर लेना होगा. अगर वह ऐसा नहीं कर पाई, तो बिहार में लोकसभा के महासमर का परिणाम क्या होगा, यह सबको पता है. लेकिन, अगर महा-गठबंधन ने अपनी सेना और सेनापति का चयन बड़े दिल से कर लिया, तो राज्य में एनडीए को बड़ी मुश्किल चुनौती का सामना करना पड़ेगा.