अजय विद्युत
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में हर दल के लिए ‘करो या मरो’ की स्थिति है। ज्यादा से ज्यादा वोट जुटाना हर दल का लक्ष्य है। सफलता हासिल करने के लिए यह जरूरी सूत्र है। लेकिन इतना ही जरूरी है वोटों का मैनेजमेंट। हालांकि बहुजन समाज पार्टी के काफी मात्रा में इंटैक्ट वोटर हैं लेकिन पार्टी सुप्रीमो मायावती उन वोटों के मैनेजमेंट में लगातार पिछड़ती जा रही हैं। हालांकि सबसे अच्छे वोट मैनेजमेंट का उदाहरण समाजवादी पार्टी ने पेश किया है।
2012 के विधानसभा चुनाव में सत्ता हासिल करने वाली समाजवादी पार्टी के मुकाबले बहुजन समाज पार्टी का कोई बहुत खराब प्रदर्शन नहीं था। बसपा ने 25.91 यानी लगभग छब्बीस फीसदी वोट हासिल किए थे। सपा को 29.13 यानी लगभग उनतीस फीसदी वोट मिले थे। लेकिन इन्हीं वोटों को अगर सीटों में देखें तो जहां समाजवादी पार्टी ने दो सौ चौबीस सीटें हासिल कीं वहीं बसपा केवल अस्सी पर अटक गई। इससे यही लगा कि बसपा अपने वोटों को सही से मैनेज नहीं कर सकी। यही वोट अगर ढंग से मैनेज किए जा सके होते तो शायद तस्वीर कुछ और होती।
बात विधानसभा चुनाव तक ही नहीं रही। 2014 के लोकसभा चुनाव में अगर उत्तर प्रदेश की स्थिति देखें तो वहां भी ऐसा नहीं लगता कि बसपा ने 2012 से कुछ सबक सीखा हो। हालांकि उस चुनाव में मोदी की सुनामी थी और भाजपा ने सभी के समीकरण बिगाड़ते हुए 42.3 फीसदी वोट अपने संदूक में भरे। अस्सी में इकहत्तर सीटें खुद जीतीं और दो पर उसकी सहयोगी अपना दल जीती थी। बसपा की बात करें तो वोट जुटाने के लिहाज से वह उत्तर प्रदेश में भाजपा और समाजवादी पार्टी के बाद तीसरी सबसे बड़ी पार्टी थी। लेकिन दिलचस्प यह कि दूसरे नंबर पर रही समाजवादी पार्टी ने 22.2 फीसदी वोट हासिल कर पांच सीटें जीतीं जबकि तीसरे नंबर पर रही बसपा 20 फीसदी वोट हासिल करने के बावजूद खाता भी नहीं खोल पाई। बसपा से कहीं बेहतर तो कांग्रेस रही जो महज 7.5 फीसदी वोट पाकर भी दो सीटें ले गई।
2017 के विधानसभा चुनाव को तो पार्टी से छिटके बड़े नेताओं ने बसपा के लिए और भी चुनौतीपूर्ण बना दिया है।