संध्या द्विवेदी
‘हमें तब पता नहीं था कि ये सब किसी सभ्यता की कहानी कहते हैं, किसी युग की जिंदा गाथा छिपी है इनमें। हम तो बस मिट्टी के जानवर, टूटी चूड़ियां, बीड्स और कुछ गहनेनुमा चीजों को पाकर खुश हो जाते थे। सबसे ज्यादा खुशी तब होती थी जब हमें खिलौना गाड़ी मिलती थी। अबकी तरह पहले बच्चों को कोई खिलौने लाकर तो देता नहीं था इसलिए यह सब चीजें हमारे खेल का हिस्सा हुआ करती थीं।’
हरियाणा के हिसार जिले के राखीगढ़ी गांव में रहने वाले छप्पन साल के वजीरचंद घंटों राखीगढ़ी में निकले उस खजाने का जिक्र करते हैं जिसके शुरुआती और कुछ अहम टुकड़ों को उन्होंने अपने निजी म्यूजियम में संभालकर रखा था। हालांकि अब उनका निजी म्यूजियम उनके पास नहीं है लेकिन इन सारी चीजों की तस्वीरें उनके पास हैं। इन तस्वीरों के सामने बड़े ध्यान से लिखी गई चीजों की संख्या, उनके नाम यह बताते हैं कि उनके लिए वह सारी चीजें कितनी महत्वपूर्ण थीं। गुस्से और दुख से भरे वजीर चंद जी यह सवाल बार बार पूछते हैं कि दुनिया भर की मीडिया में चर्चा का केंद्र बन चुकी राखीगढ़ी के विकास को यहां की सरकार तरजीह क्यों नहीं देती। आखिर क्या मजबूरी है? या कौन सा दबाव है जो राखीगढ़ी के विकास में आड़े आ रहा है?
संभालकर रखे गए सारे कागज, चिट्ठियां, स्लैम बुक, अखबार की कतरन, मैग्जीन-अखबारों को लिखे गए पत्र एक-एक कर वह ऐसे दिखाते हैं जैसे कोई छोटा बच्चा अपने सबसे प्रिय खिलौनों को दिखाता है। या कोई वयस्क अपनी जिंदगी की उपलब्धियों को दिखाते हुए उनके कागजी दस्तावेज दिखाते-दिखाते गर्व से भर जाता है। वजीर चंद बार-बार खुद भी कहते हैं कि यह सब मेरे जीवन की पूंजी है। यही तो मेरी गाढ़ी कमाई है। वजीर चंद न तो कोई पुरातत्वविद हैं न इतिहासकार लेकिन राखीगढ़ी में खोजी गई हड़प्पा संस्कृति के बारे में ऐसे बताते हैं मानो कोई विशेषज्ञ बेहद बारीकी के साथ इन सब चीजों की व्याख्या कर रहा हो। वह कुछ अधिकारपूर्वक बताते हैं, ‘हड़प्पा काल में बेहद चौड़ी सड़कें पाई जाती थीं। ईटें चौड़ी चौड़ी होतीं थीं, ड्रेनेज सिस्टम तो ऐसा जो आधुनिक ड्रेनेज सिस्टम को फेल कर दे। व्यापार के महारथी थे हड़प्पा संस्कृति के लोग। यहां की सील में टाइगर की छाप मिली है। इससे अंदाजा होता है कि राखगढ़ी व्यापार के मामले में सबसे आगे था। नदी का भी प्रमाण मिला है। मैं यकीन के साथ कह सकता हूं कि यह कोई और नहीं बल्कि लुप्त हो चुकी सरस्वती नदी ही है। पाकिस्तान के हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से भी ज्यादा पुरानी सभ्यता राखीगढ़ी में मिली है।’ और भी न जाने क्या-क्या… ‘वजीर चंद कहते हैं कि मेसोपोटामिया के पत्थर यहां पर मिले हैं… इसका मतलब आप समझीं? इसका मतलब है कि यहां के लोग जरूर वहां व्यापार करने जाते होंगे। मेसोपोटामिया मतलब आज का ईराक।’
संभालकर रखे गए सारे कागज, चिट्ठियां, स्लैम बुक, अखबार की कतरन, मैग्जीन-अखबारों को लिखे गए पत्र एक-एक कर वह ऐसे दिखाते हैं जैसे कोई छोटा बच्चा अपने सबसे प्रिय खिलौनों को दिखाता है।
इतिहास की इस बड़ी घटना को इतने रोचक ढंग से वजीर बताते हैं कि उनकी बातों से मन नहीं भरता। वजीर चंद ने दसवीं तक पढ़ाई की है। कहते हैं, ‘मेरे साथ के ज्यादातर बच्चों ने टीलों पर चढ़कर बरसात के मौसम में खुद-ब-खुद निकलने वाले इन खिलौनों से खेला है लेकिन खेलकर उन्हें तोड़ दिया। पर न जाने क्यों बचपन से ही मुझे यह सारी चीजें अपनी जिंदगी का एक हिस्सा लगती थीं। मैं इन्हें घर लाता और संभालकर रख देता। कोई मेरी इन चीजों को छेड़ता तो मैं खूब रोता-गुस्सा करता। …मुझे क्या पता था कि मेरा बचपन जिन टीलों में अपने खिलौनों की खोज करता था वे खिलौने नहीं बल्कि एक सभ्यता के निशान, गवाह और प्रमाण हैं।’ यह सब बताते-बताते अतीत की गलियों में गुम हुए वजीर अचानक चौंककर कहते हैं कि जब यह खुदाई पूरी हो जाएगी तो खोजी गई इस सभ्यता के जिक्र के साथ मेरा नाम भी जरूर जुड़ेगा। वजीर की यह बात सच है क्योंकि आज भी जो राखीगढ़ी जाता है वह पहले वजीर को ढ़ूंढता है, सुनना चाहता है उनकी बचपन में खोजे गए उन खिलौनों की कहानी जिन्हें आज हरियाणा और हिसार म्यूजियम में सजा कर रखा गया है।
जगमोहन जी भी साल 2001 में मुझसे मिलने यहां आए थे। उन्होंने तो यह बताया तक नहीं कि वह मंत्री हैं। मुझे अपना फोन नंबर दिया और कहा कि दिल्ली आना तो मिलना।
वजीर चंद ने बताया सबसे पहले मेरी हौसला अफजाई जाने माने पुरातत्वविद आरएस बिष्ट ने की। यह बात 1976-77 की होगी। उस वक्त मैं तेरह-चौदह साल का था। घर पर पढ़ाई कर रहा था। वह आकर पीछे बैठ गए। मैं डर गया मुझे लगा कि मैं आज स्कूल नहीं गया इसलिए गुरुजी आ गए। लेकिन पीछे तो कोई और ही था। फिर उन्होंने बताया मैं तुम्हें स्कूल ले जाने नहीं आया। मैं तो तुमसे मिलने आया हूं। उन्होंने मेरे छोटे से बेतरतीब म्यूजियम को देखकर कहा- तुम बेहद महत्वपूर्ण काम कर रहे हो, इस काम को करते रहना। तुम वो काम कर रहे हो जिसे सरकार को करना चाहिए। तुम इतिहास को खंगाल रहे हो।… फिर कुछ दिन बाद उन्होंने मुझे दिल्ली बुलाया और चार-पांच दिन रखा। नेशनल म्यूजियम घुमाया। जब मैंने वहां रखी चीजें देखीं तो पहली बार लगा कि मैं वाकई बेहद खास काम कर रहा हूं। उसके बाद तो मैं चौकन्ना हो गया हर उस चीज के लिए जो मुझे अपने गांव में मिट्टी के नीचे मिलती।
तत्कालीन केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री जगमोहन जी भी साल 2001 में मुझसे मिलने यहां आए थे। उन्होंने तो यह बताया तक नहीं कि वह मंत्री हैं। मुझे अपना फोन नंबर दिया और कहा कि दिल्ली आना तो मिलना। मैं जब दिल्ली गया तो मैंने फोन किया। उनके खास लोग गाड़ी से मुझे लेने आए। जब मैं उनके घर पहुंचा तो पता चला कि वह तो मंत्री हैं। मैं डर गया, हाथ जोड़कर कहा अनजाने में कोई भूल-चूक हुई हो तो माफ करना, मुझे पता नहीं था कि आप मंत्री हैं। उन्होंने बड़े प्यार से कहा अगर मैं तुम्हें बताकर गांव जाता तो भीड़ लग जाती। तुम नर्वस हो जाते। इसलिए मैं बिना किसी लाव-लश्कर के तुमसे मिलने गया। वैसे भी जो काम तुम कर रहे हो वह बहुत बड़ा है। साल 2004 में उन्होंने राखीगढ़ी में म्यूजियम बनाने की अधिसूचना जारी की थी। पैसा भी जारी कर दिया था, लेकिन म्यूजियम ही नहीं बल्कि पूरी राखीगढ़ी ही, जो देश की सबसे बड़ी धरोहर है, सियासी दांवपेच में फंस गई। मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी और हाई कोर्ट के जज मुझसे मिलने आए। आज भी जब कोई बड़ा आदमी आता है तो पहले मुझसे मिलता है। जिन पत्रकारों को मैं खत लिख-लिखकर परेशान हो गया था कि यहां कुछ खास है, आप लोग इसे लिखिए और वे सुनते नहीं थे। आज वे पत्रकार मेरे आगे पीछे घूमते हैं।
इस उत्साह के बीच उदासी अचानक उन्हें घेर लेती है। वह बताते हैं कि हिसार से सीधे यहां के लिए सड़क बननी थी मगर अब तक नहीं बनी। म्यूजियम बनना है, अब तो गांव वालों ने जमीन भी दे दी। लेकिन देखना है कि कब सरकार इसे बनवाएगी? खुदाई वाली साइटों में गोबर के ढेर हैं, कूड़ा भरा पड़ा है। उंगली से लोहे के एक ढांचे की तरफ इशारा कर कहते हैं कि पुरातत्व विभाग ने यहां बोर्ड लगाया था। मगर इसे भी सब उखाड़ ले गए। गांव में विदेशों से लोग आते हैं। मगर गांव के बाहर एक बोर्ड तक नहीं लगा है जिससे लोगों को इस ऐतिहासिक गांव के बारे में पता चले। वह और उदास होकर बताते हैं कि पिछले साल जब मैंने हिसार म्यूजियम को अपने संग्रहालय की सारी चीजें दीं तो ऐसा लगा मानो जिंदगी भर की कमाई सौंप दी हो। लेकिन देना पड़ा क्योंकि देश की धरोहर किसी एक व्यक्ति के पास नहीं रह सकती। अब बस इच्छा है कि राखीगढ़ी एक ऐतिहासिक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित हो। यहां तक हिसार से सीधे सड़क आए। राखीगढ़ी का अपना म्यूजियम बने।