अमीश।
मैंने शशि थरूर की बेहतरीन पुस्तक ‘एन इरा आॅफ डार्कनेस’ पढ़ी थी, जो उस भयावहता का अध्ययन है जिसका नाम ब्रिटिश राज था। और मुझे अपने अंदर एक जाना-पहचाना गुस्सा उमड़ता महसूस हुआ; वैसा जैसा मैंने बहुत साल पहले महसूस किया था जब मैंने विल डुरैंट की ‘द केस फॉर इंडिया’ या माइक डेविस की ‘लेट विक्टोरियन हॉलोकॉस्ट्स’पढ़ी थी। और ऐसी ही दूसरी कई किताबें जिन्होंने मानवता के खिलाफ किए उन जुर्मों को दर्ज किया था जो अंग्रेज उपनिवेशवादियों ने ढाए थे। अनुमान लगाया गया है कि उन्होंने मानवनिर्मित अकालों में लगभग चार करोड़ भारतीयों की जान ली। उन्होंने मानवता के इतिहास में मादक पदार्थों का सबसे बड़ा तस्करी कारोबार चलाया था, जिसने भारत और चीन को तबाह कर दिया था। एक समीक्षक ने उचित ही कहा था कि क्वीन विक्टोरिया अनिवार्यत: ड्रग लॉर्ड थीं; कुख्यात दाऊद इब्राहीम की तरह, बस बेहतर टोपी के साथ। कितने ही और जुर्म हैं, इतने ज्यादा कि उन्हें इस छोटे से लेख में दर्ज नहीं किया जा सकता।
लेकिन इसी के साथ मेरे दिमाग़्ा में एक प्रश्न उठता है। अंग्रेजों ने हमें अपने दम पर नहीं जीता था; वे तो बहुत कम तादाद में थे। उनके लिए बहुत से भारतीय सैनिकों ने भारत को जीता था।
अंग्रेजों ने अपने दम पर अफीम की तस्करी का कारोबार नहीं चलाया था; बहुत से भारतीय (और चीनी) व्यापारियों ने उनके लिए हाथ मैले किए थे। जलियांवाला बाग में जनरल डायर ने भले ही असहाय हिंदुस्तानियों पर गोली चलाने का आदेश दिया था, मगर जिन सैनिकों ने वास्तव में बंदूकें थाम रखी थीं, वे अधिकांशत: भारतीय उपमहाद्वीप के थे। विंस्टन चर्चिल (युद्ध अपराधी जो हिटलर से भिन्न नहीं था) ने भले ही उन घटनाओं से जुड़े आदेश दिए हों जिनके कारण 1940 के दशक के शुरू में बंगाल में अकाल पड़ा था (जिसमें मरने वालों की संख्या डेढ़ से चार करोड़ के बीच थी), मगर जिन अफसरों ने उसके आदेशों को लागू करवाया था, वे ज्यादातर हिंदुस्तानी थे।
उन भारतीयों ने विद्रोह क्यों नहीं किया, जिन्होंने अपने देशवासियों पर ये जुल्म किए थे? उन्होंने क्यों नहीं कहा: ‘मैं अपने देशवासियों के साथ ऐसा नहीं करूंगा?’ ब्रिटिश राज के घृणास्पद समर्थक (जिनमें अनेक भारतीय भी हैं) कहेंगे कि ऐसा इसलिए है क्योंकि हम अपने को ‘भारतीय’ नहीं मानते थे क्योंकि अंग्रेजों के आने से पहले हम एक देश नहीं थे। यह बकवास है।
संस्कृति और सभ्यता की एक इकाई के रूप में भारत हजारों साल से विद्यमान है। इसे साबित करने के लिए पर्याप्त उदाहरण और दस्तावेज हैं। उनमें से कुछ के लिए आप उन पुस्तकों को पढ़ सकते हैं जिनका मैंने यहां जिक्र किया है। और वैसे भी, सत्रहवीं सदी में हुई वैस्टफैलिया की संधियों से पहले, ‘राष्ट्रों’ का अस्तित्व राजनीतिक इकाई के रूप में नहीं बल्कि सांस्कृतिक इकाइयों के रूप में होता था। सोलहवीं सदी में अगर आप किंग हेनरी अष्टम की जगह इंग्लैंड के प्रति वफादार होते तो एक ग़्ाद्दार मानकर आपका सिर कलम करवा दिया जाता। मगर उस समय इंग्लैंड की सांस्कृतिक अवधारणा मौजूद थी। जैसे भारत की सांस्कृतिक अवधारणा मौजूद थी। तो क्या भारतीय सहयोगी निजी लालच से प्रेरित थे? इससे हमें उन व्यापारियों के प्रेरकों को समझने में मदद मिल सकती है जिन्होंने ब्रिटिश राज का समर्थन किया था; वे बेतहाशा दौलतमंद हो गए थे। लेकिन क्या यह उन भारतीय सैनिकों के व्यवहार को भी स्पष्ट करता है जो ब्रिटिश राज के लिए लड़े और मरे थे? किसी और के लिए मरने से बड़ी निस्वार्थता और कुछ नहीं हो सकती, सही?
कुछ आरोप लगाते हैं कि जो भारतीय अंग्रेजों के लिए लड़े और मरे थे, वे अधिकांशत: निम्न जातियों के थे जो एक विदेशी शक्ति का साथ देकर अपने समाज के अन्यायों के खिलाफ विद्रोह कर रहे थे। यह तथ्यों के घोर विरुद्ध है। अठारहवीं और शुरुआती उन्नीसवीं शताब्दी में ब्रिटिश सेना में शामिल होने और भारत को जीतने में अंग्रेजों की मदद करने वाले ज्यादातर सैनिक वास्तव में ऊंची जातियों के थे (वे उसी वर्ग के सैनिक थे जिन्होंने 1857 में हुई भारत की स्वतंत्रता की पहली लड़ाई में विद्रोह किया था)। फिर क्यों इन लोगों ने अपने ही देश के हितों के खिलाफ काम किया था? मेरे मन में एक विचार आया है जिसे मैं आपके सोचने के लिए सामने रखूंगा।
ज्यादातर ज्ञात इतिहास में, भारत ने समृद्धि और सकल घरेलू उत्पाद के साथ ही ज्ञान और विज्ञान के संदर्भांे में विश्व का नेतृत्व किया है। हमारे पूर्वजों ने विभिन्न क्षेत्रों में खोजें और आविष्कार किए थे, जैसे कि गणित, चिकित्सा, धातु विज्ञान, जहाजरानी, खगोलविद्या आदि। लेकिन हमारा सबसे बड़ा योगदान अध्यात्म और दर्शन के क्षेत्र में था। मेरा विचार है कि शायद इस क्षेत्र की एक खोज को जब उसके चरम पर ले जाया गया तो वह हमारे लिए बहुत कारगर नहीं रही। और वह दार्शनिक खोज है स्वधर्म।
एक उपयोगी जीवन जीने में हमारी मदद करने के लिए एक दार्शनिक अवधारणा के तौर पर स्वधर्म को पाना निश्चय ही अच्छा विचार है। अपने सरलतम रूप में, यह अवधारणा यह है कि आप अपना स्वधर्म खोजें और उसे जिएं- क्योंकि तभी आप वास्तविक उपलब्धि और व्यक्तिगत प्रसन्नता प्राप्त करेंगे। बेशक, अपना स्वधर्म आपको खुद ही खोजना होगा, समाज को अपनी अवधारणा अपने ऊपर न थोपने दें। स्वधर्म पाने की खूबसूरती यह है कि अगर आप अपना जीवन इसके अनुरूप जिएंगे तो सफलता असफलता बेमानी हो जाएंगी। आप आनंद के अलावा और कुछ महसूस नहीं करेंगे।
जैसा मैं महसूस करता हूं जब मैं अपने स्वधर्म के अनुरूप जीवन जीता हूं, जो कि उस राष्ट्र की संस्कृति और दर्शन को खोजते और समझते हुए पुस्तकें लिखना है जिसे मैं प्रेम करता हूं… यानी भारत।
मगर स्वधर्म, अगर इसे अपने चरम पर ले जाया जाए तो, बेलगाम व्यक्तिवाद और स्वार्थ की ओर ले जा सकता है। यह ऐसे नागरिकों को उभार सकता है जो दूसरों पर और यहां तक कि पूरे समाज पर भी अपने स्वधर्म के प्रभावों पर विचार नहीं करते हैं। उनका फोकस केवल उस पर होता है जो अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए उन्हें करना होता है। आज कुछ वैज्ञानिक ऐसे प्रोजेक्टों पर काम कर रहे हैं जो नाटकीय रूप से समाज पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकते हैं। जैसे कि आनुवंशिक रूप से संशोधित डिजाइनर शिशु। मगर फिर भी वे जारी रखे हुए हैं, क्योंकि वे अपने उद्देश्य को विशुद्ध विज्ञान की खोज के तौर पर देखते हैं- समाज पर उसके प्रभाव के रूप में नहीं।
मेरा मानना है कि स्वधर्म की भूमि होने के नाते भारत ने अनेक ऐसे व्यक्तियों को गढ़ा है जो केवल अपने लक्ष्य में गुम रहे हैं। उनके स्वधर्म का समाज पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, इस ओर से वे बेखबर हैं। इससे हमें ब्रिटिश राज के दौरान भारतीय सैनिकों की मानसिकता को समझने में मदद मिल सकती है, जो योद्धा होने के अपने स्वधर्म में लीन थे भले ही इसका अर्थ एक विदेशी ताकत के लिए मरना हो… लेकिन अपने समाज पर पड़ने वाले अपने कार्यों के प्रभाव पर विचार करने के लिए ठहरना नहीं।
ब्रिटिश हमारी संस्कृति को बखूबी समझते थे। उन्होंने भारतीयों में योद्धाओं के स्वधर्म का इस्तेमाल किया और उन्हें लक्ष्य देकर हमारे बेहतरीन लोगों को हमारे खिलाफ इस्तेमाल किया। टीम-टाम, विधि-विधान और अनुष्ठानों के साथ। आत्मकेंद्रित लोगों से बना समाज खंडित हो सकता है। विडंबना यह है कि ऐसा समाज भी संगठित उद्देश्यों को पूरा करने में असफल हो सकता है। मगर मैं यह नहीं कह रहा हूं कि हम अपने स्वधर्म को नजरअंदाज कर दें। यह हमारा कर्तव्य है कि अपने लक्ष्य के अनुरूप जीवन जिएं। लेकिन हमें अपना राजधर्म भी नहीं भूलना चाहिए। राजधर्म, यानी राष्ट्र के प्रति हमारा कर्तव्य केवल नेताओं के लिए ही सुरक्षित नहीं है। सामान्य नागरिकों को, हम सबको राजधर्म का पालन करना चाहिए जो हमारे इस महान देश में रहते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो देशभक्ति आपके निजी उद्देश्य के समान ही महत्वपूर्ण है।
आजकल देशभक्ति शब्द का बहुत ही दुरुपयोग हो रहा है। बहुत से लोग बिना संदर्भ के सैमुएल जॉनसन को उद्धृत करते हैं जिसने कहा था, ‘देशभक्ति बदमाशों की अंतिम शरणस्थली है।’ साक्ष्य बताते हैं कि जॉनसन ने जब यह कहा था तब वे झूठी देशभक्ति का हवाला दे रहे थे और वे सच्ची देशभक्ति को बहुत अहमियत देते थे।
यही मैं भी कह रहा हूं। सच्ची देशभक्ति। राजधर्म। अपनी मातृभूमि के लिए गहरा और स्थायी प्रेम। उन सबके प्रति प्रेम जो यहां रहते हैं। रचनात्मक प्रेम, जो हमें इस बात की अनुमति देता है कि जब हमें लगे कि हमारे नेता हमारे देश या राज्य के हित में कार्य नहीं कर रहे हैं तो हम उनसे सवाल कर सकें। प्रेम जो हमें उन मसलों पर अपने साथी देशवासियों से सवाल करने के लिए प्रेरित करता है जिन्हें सुधारा जाना चाहिए क्योंकि हम अपनी मातृभूमि को अपने पुरखों के योग्य बनाना चाहते हैं।
मेरे लिए, अपनी मातृभूमि के लिए प्रेम अटल है। हमें अपनी सरकार को नापसंद करने का पूरा अधिकार है, मगर यह नहीं हो सकता कि हम भारत में रहें और अपने देश से नफरत करने के अधिकार का पालन करें। राष्ट्र उन लोगों के द्वारा नहीं बनता जो उससे नफरत करते हैं। यह उन लोगों के कंधे पर निर्मित होता है जो इससे प्रेम करते हैं। हम पिछली कुछ सदियों के भारतीयों की ग़्ालतियों से सबक सीखें। हम अपने स्वधर्म पर, अपने लक्ष्य पर फोकस करें। लेकिन अपना राजधर्म, अपने महान देश के प्रति अपने कर्तव्य को न भूलें। भारत माता की जय।