प्रदीप सिंह/जिरह
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अचानक लाहौर यात्रा ने एक बार फिर भारत-पाकिस्तान के रिश्तों में सुधार की उम्मीद जगा दी है। मोदी के इस कदम को साहसिक और स्टेट्समैन जैसा माना जा रहा है। पहले काबुल और फिर लाहौर, दोनों ही पहले तय कार्यक्रम नहीं थे। काबुल यात्रा की चर्चा जरूर थी। पर आधिकारिक रूप से कोई पूर्व घोषणा नहीं हुई थी। प्रधानमंत्री की इन दोनों यात्राओं से एक खुशनुमा माहौल बना है। लाहौर में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने मोदी का जिस गर्मजोशी से स्वागत किया उससे बरबस ही पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की लाहौर बस यात्रा का दृश्य सामने आ गया। उसके बाद देश को कारगिल युद्ध झेलना पड़ा। उसके बाद से पाकिस्तान ने ऐसा कुछ नहीं किया है जिससे इस तरह की आशंकाएं निर्मूल हो सकें।
दरअसल, भारत-पाकिस्तान संबंध की डोर बड़ी नाजुक है। वह एक आतंकवादी कार्रवाई या सीमा पर एक घटना से टूट जाती है। इसलिए प्रधानमंत्री ने लाहौर जाकर एक नई शुरुआत तो की है लेकिन साथ ही जोखिम भी लिया है। जोखिम है पाकिस्तान पर भरोसा करने का और उस भरोसे के टूटने के बाद होने वाली प्रतिक्रिया का।
मोदी की इस पहल से एक बात तो साफ हो जाती है कि भारत सरकार ने यह स्वीकार कर लिया है कि आतंकवाद और बातचीत साथ-साथ चल सकते हैं। या फिर मुंबई हमले जैसी घटना की जांच पर पाकिस्तान के रवैये से अब बातचीत प्रभावित नहीं होगी। पाकिस्तान और भारत में दोनों देशों के संबंध कैसे सुधर सकते हैं इसके बारे में एक धारणा है। पाकिस्तान में आमतौर पर माना जाता है कि भारत में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार से बातचीत से ही कोई स्थायी हल निकल सकता है। उसका एक बड़ा कारण यह है कि पाकिस्तान पर नीति बनाते समय देश में कांग्रेस की सरकारों की एक नजर भाजपा पर रहती है।
विपक्ष में भाजपा की आक्रामकता अक्सर उसके कदम पीछे खींच लेती है। यही कारण है कि कांग्रेस इस समय भाजपा को उसी की भाषा में जवाब दे रही है। दूसरी ओर भारत में धारणा है कि पाकिस्तान में भारत से संबंध के बारे में फैसला चुनी हुई सरकार नहीं करती। पाकिस्तान की भारत नीति वही होती है जो रावलपिंडी (सेना मुख्यालय) और इस्लामाबाद की लाल मस्जिद (कट्टरपंथियों का अड्डा) तय करती है। इसमें भी किसी एक के साथ आने से बात नहीं बनती क्योंकि जनरल परवेज मुशर्रफ तो राष्ट्रपति के साथ-साथ सेना प्रमुख भी थे। तब भी बात नहीं बनी। अपने देश की धरती का आंतकवाद के लिए इस्तेमाल न होने देने का वायदा करके भी वे मुकर गए।
इसलिए नवाज शरीफ और मोदी की झप्पियां कैमरे और माहौल को खुशनुमा बनाने तक सीमित हैं। अभी तक बात इससे आगे कभी बढ़ी नहीं। 1972 में शिमला समझौते में इंदिरा गांधी ने बड़ा दिल दिखाते हुए सेना ने जो जंग में जीता था उसे लौटा दिया। उस समय लगा था कि दोनों देशों के संबंध सुधारने में इसकी सबसे अहम भूमिका होगी। आज मुड़कर देखने पर मानना पड़ता है कि वह एक ऐतिहासिक भूल थी। हालांकि यह अजीब इत्तेफाक है कि सत्रह साल प्रधानमंत्री रहने के बावजूद इंदिरा गांधी कभी पाकिस्तान नहीं गर्इं। शिमला समझौते के बाद ही पाकिस्तान ने छद्म युद्ध की नीति को राष्ट्रीय रणनीति बना लिया। पिछले करीब सात दशकों में दोनों देशों के संबंधों में कभी स्थायित्व नहीं रहा है। पाकिस्तान भारत से बात करने की उत्सुकता तभी दिखाता है जब आतंकवादियों की पनाहगाह बनने, प्रशिक्षण देने और उन्हें हर तरह की सहायता मुहैया कराने के खिलाफ उस पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ने लगता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पाकिस्तान नीति में अभी तक निरंतरता का अभाव रहा है। उन्होंने मई 2014 में अपने शपथ ग्रहण समारोह में नवाज शरीफ को बुलाकर एक नई शुरुआत का संदेश दिया था। उसी समय जब उन्होंने नवाज शरीफ से कहा कि गोली और बम धमाके के शोर में बात सुनाई नहीं देती तो उनके इस एक वाक्य ने भारत में बहुत उम्मीदें जगार्इं। लोगों को लगा कि मोदी की पाक नीति सबसे अलग होगी। लेकिन उसके बाद जो कुछ हुआ वह पिछली सरकारों के कदम को दोहराने जैसा था। लगा कि केंद्र की नई सरकार तय नहीं कर पा रही है कि वह पाकिस्तान के बारे में क्या करे। लेकिन पेरिस में मोदी-शरीफ की मुलाकात के बाद एक पैटर्न दिख रहा है। उसका दूसरा पक्ष यह है कि अभी तक देश को पता नहीं है कि उनकी पेरिस और लाहौर में शरीफ से क्या बात हुई। या दोनों देशों के सुरक्षा सलाहकारों ने किन मुद्दों पर बात की।
मोदी ने अचानक लाहौर यात्रा से दोनों देशों के संबंधों की रहस्यास्मकता और रूढ़ औपचारिकता को तोड़ा है। डॉ. मननमोहन सिंह की प्रधानमंत्री रहते हुए इच्छा थी कि कभी वे अमृतसर में सुबह का नाश्ता, लाहौर में दोपहर का खाना और काबुल में रात्रि भोज कर सकें। मोदी ने यह कर दिखाया है। भले ही क्रम थोड़ा उल्टा पुल्टा हो गया है। आखिर में सवाल वही है कि इससे कुछ ठोस हासिल हो न हो पर आतंकवाद पर पाकिस्तान लगाम कसेगा क्या?