सोहराई को सहेजने की जरूरत

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राज्य के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में सोहराई पर्व के दौरान देसज दुधि माटी से सजे घरों की दीवारों पर महिलाओं के हाथों के हुनर अब बमुश्किल से देखने को मिलते हैं.

sahroiझारखंड में प्रचलित सोहराय पर्व हमारी सभ्यता व संस्कृति का प्रतीक है. यह पर्व पालतू पशु और मानव के बीच गहरा प्रेम स्थापित करता है. यह पर्व भारत के मूल निवासियों के लिए विशिष्ट त्यौहार है.क्योंकि भारत के अधिकांश मूल निवासी खेती-बारी पर निर्भर है. खेतीबाड़ी का काम बैलो व भैंसों के माध्यम से की जाती है. इसीलिए सोहराय पर्व में पशुओं की पूजा की जाती है. यहां आज भी सोहराय कला प्राचीन मानवों द्वारा बड़े-बड़े नागफन चट्टानों में बनाएं गए है. इसे शैल चित्र या शैल दीर्घा कहा जाता है. झारखंड में कई ऐसे स्थल हैं, जहां शैल चित्र पाए गए हैं. सिंहभूम तथा कैमूर पर्वत श्रृंखला में कई स्थानों पर शैल उत्कीर्णन के प्रमाण मिले हैं. हजारीबाग तथा रांची जिले  के कुछ भागों में मिलने वाले शैल चित्र कलात्मकता की दृष्टि से अत्यंत उत्कृष्ट श्रेणी के हैं.

कमाल के शैल चित्र

रांची से लगभग 40 किलोमीटर की दूरी पर टांगर—बसली नामक स्थान पर पहाड़ों के मध्य प्राकृतिक पत्थरों पर आकर्षक शैल चित्र पाए गए हैं, लेकिन उचित देखभाल न होने के कारण  बहुमूल्य कलाकृतियां धीरे—धीरे नष्ट होती जा रही है. इसी तरह हजारीबाग से लगभग 45 किलोमीटर दूर बडक़ागांव की घाटी में इस्को नामक गांव के समीप अवसारी पहाड़ी श्रृखंला की सती पहाड़ी पर नाग के फन की आकृति वाली लगभग 2500 वर्गफीट की दीवार पर शैल चित्रों की श्रृंखला बनी हुई है. हजारीबाग में इस्को के अतिरिक्त प्लांडू तथा मंडेर नामक दो अन्य स्थानों पर भी शैल चित्र दीर्घा मिली हैं. ये शैल चित्र प्राचीनकाल में आदिमानव के निवास तथा उसकी विकसित सभ्यता तथा संस्कृति को रेखांकित करते हैं.

हजारीबाग क्षेत्र में पाए जानेवाले शैल—चित्र अपेक्षाकृत बाद के समय के प्रतीत होते हैं. यहां के पकरी,सिसिया आदि स्थान मेगालिथिक स्टोन ब्रीड क्षेत्र के अंतर्गत आते है. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अनुसार यह क्षेत्र 6000 वर्ष ईसा पूर्व का है. इस क्षेत्र में काम कर रहे कलाकर्मी श्री बुलु इमाम के अनुसार, इस्को में कोहबर गुफा निकट एक पॉलिश किया हुआ पाषाण सेल्ट प्राप्त हुआ है, जो 4000 वर्ष ईसा पूर्व का है.

भारत सरकार ने प्रधानमंत्री आवास योजना के घरों को सोहराय चित्रकला से सजाए जाने का  निर्णय लिया है. झारखंड से रवाना होनेवाली ट्रेने भी सोहराय पेंटिंग से रंगी होगी. इस शैली का प्रचार व्यापक पैमाने पर हो रहा है. परंतु स्थानीय स्कूली बच्चों, सामान्य जन इस कला की विशेषताओं एवं इसके मूल स्वर से वाकिफ नहीं जान पड़ते हैं.

पाषाणकालीन कलाकारों द्वारा निर्मित शैल चित्रों में पर्याप्त भिन्नता देखने को मिलती है, इनमें सांकेतिक, प्रतीकात्मक, चित्र संबधी अमूर्त तथा निरपेक्ष चित्रों की बहुलता है. प्रकृतिवादी चित्रों में मुुख्य रूप से आखेट के दृश्य, विभिन्न प्रकार के पशु प़क्षी यथा गवल, घोड़ा, मवेशी तथा मैमथ आदि दिखाई देते हैं. इसी प्रकार इन शैल चित्रों में कई अन्य जीव जंतुओं को भी दर्शाया गया है, जैसे शेर, बैल, गदहा, सांभर, भेडिय़ा, लोमड़ी, खरगोस, मछली, रेंगनेवाले जीव आदि. इन सबके अलावा विंदु, लकीर, चिह्न तथा प्रतीकों की बहुलता है.

झारखंड के इस्को में पाए जानेवाले शैल दीर्घा के रूप स्वरूप को देखने से कई दृश्य उभरते हैं. शैल दीर्घा की बायीं ओर के चित्रों को देखने पर शिवलिंग का स्वरूप स्पष्ट दिखायी देता है. इसके अलावा यहां पान का पत्ता, तलवार, स्वास्तिक, जानवरों की बलि के लिए फांसा आदि के चित्र भी बड़े ही साफ ढंग से बनाए गए हैं. कुछ विद्वान शैल चित्रों के निर्माण का कारण पुरोहित द्वारा संपन्न धर्मानुष्ठान में भी खोजते हैं. झारखंड के संदर्भ में कुछ शोधकर्ताओं ने इन शैलचित्रों को मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की सभ्यता से जोडक़र सिंधु लिपि का होना मानते हैं. इतना ही नहीं इसके आधार पर गूढ़लिपि का अर्थ निकालने का प्रयास किया जा रहा है.

हजारीबाग के इस्को में मिलनेवाले इन शैल चित्र समूहों का विशिष्ट सामाजिक महत्व है. इस क्षेत्र में निवास करनेवाले विभिन्न समुदायों यथा कुरमी, कुम्हार, उरांव, संथाल आदि ने इसके सामाजिक मूल्यों को आत्मसात किया है. मिट्टी के घरों में रहनेवाले इन समुदायों के सदस्य विभिन्न सामाजिक सांस्कृतिक अवसरों पर इन शैलचित्रों की आकृतियों को अपने घर में उकेरते हैं. घर की बाहरी तथा भीतरी दोनों दीवारों पर प्राकृतिक रंगों के माध्यम से सामान्य दातुन की कुंची, कंघी आदि का प्रयोग कर इन चित्रों को बनाया जाता है. यहां के गांव शैल चित्रों की आकृतियों से पटे हुए अत्यंत आकर्षक लगते हैं. यह परंपरागत कला सामाजिक जीवन में जीवंत है. संस्कृति की इस विरासत को बचाकर रखना किसी चुनौती से कम नहीं है.

यूनेस्को से मिली मान्यता

इस पारंपरिक कला को माएं पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी बेटियों को सिखाती आई हैं. ऐसे गिने-चुने नामों में से एक नाम है रुकमणी देवी का. हजारीबाग जिले के बडक़ागांव प्रखंड की रहने वाली रुकमणी कहती है कि यह कला मैंने अपनी मां से सीखी थी और मां ने अपनी मां से. बकौल रूकमणी आदिवासी संस्कृति में इस कला का महत्व जीवन में उन्नति से लगाया गया था, तभी इसका उपयोग दीपावली और शादी-विवाह जैसे अवसरों पर किया जाता था. दामोदर के कोहवर और सोहराय गांवों की कला को यूनेस्को ने जीवित और सांस्कृतिक विरासत के रूप में मान्यता दी है.

बुलु इमाम को सलाम 

गांधी फाउंडेशन, लंदन द्वारा अंतरराष्ट्रीय शांति पुरस्कार से पुरस्कृत बुलु इमाम के प्रयास से इस कला को सामाने लाने का एक ठोस प्रयास हो रहा है. इनके संस्कृति म्यूजियम में देश विदेश के कलाप्रेमी इस पारंपरिक कला की विशिष्टताओं से परिचित होते हैं. इन्होंने सोहराई कला को कैनवास और हैण्ड मेड शीट पर उकेरा. इन्होंने हजारीबाग में इस कला में पारंगत महिलाओ को एकजुट करके  विदेशों में भी जाकर इसका प्रदर्शन किया और झारखण्ड की इस कला को विश्व पटल पर रखा.

जानेमाने कला समीक्षक और सूचना जनसंपर्क के उपनिदेशक आनंद बताते हैं कि भारत सरकार ने प्रधानमंत्री आवास योजना के घरों को सोहराय चित्रकला से सजाए जाने का  निर्णय लिया है. झारखंड से रवाना होनेवाली ट्रेने भी सोहराय पेंटिंग से रंगी होगी. इस शैली का प्रचार व्यापक पैमाने पर हो रहा है. परंतु स्थानीय स्कूली बच्चों, सामान्य जन इस कला की विशेषताओं एवं इसके मूल स्वर से वाकिफ नहीं जान पड़ते हैं. सूचना जनसंपर्क के सचिव सुनील कुमार वर्णवाल बताते हैं कि आरंभ में राज्य में प्रयोग के तौर पर इस पारंपरिक चित्र शैली से सरकारी भवनो की दीवारों को संवारा गया. इन चित्रों से स्वच्छता अभियान को भी काफी बढ़ावा मिला है. त्र

 

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