-उर्मिल कुमार थपलियाल
अजब गजब के सीन हैं साहित्य के। नए सीन की नई सीनरियों में तूतियों के आर्तनाद के आगे जड़ीले से जड़ीले नक्कारे मौन साधे हैं। विचारधाराओं ने विचार की हड्डी पसली तोड़ दी है। वो आई.सी.यू. में है। इधर सम्मानित लोग कह रहे हैं कि हमें सम्मान दिया है तो सुरक्षा भी तो दो। अकादमी कह रही है कि अकादमी पुलिस थाना नहीं है जो तुम्हें सुरक्षा भी दे। वाह भई वाह सम्मान भी दें और ऊपर से सुरक्षा भी। जान ले लोगे क्या। अपने सामान की सुरक्षा खुद करनी चाहिए।
वाकई हमारा साहित्य पहली बार हिन्दुस्तान पाकिस्तान की तरह विभाजित दिखने लगा है। आहें भी हैं और चीत्कारें भी। नारे भी हैं और खामोशी भी। गजब की बात तो ये है कि सब एक साथ एक्सपोज हो रहे हैं। कुछ अभी शर्मा शर्मी में हैं। विरोध का भी विरोध लेकिन विरोध का विरोध करने वाले समर्थक भी नहीं। वाकई इच्छाओं के सांड खूंटे पर नहीं बांधे जा सकते।
बहरहाल इस नेशनल नौटंकी के दो सीन हाजिर हैं। दूसरा सीन पहले सीन का ही विस्तार समझें। यूं भी नौटंकियों में विलाप लम्बा चलता है। इससे पहले नक्कारे पर तड़क धूम, तड़क धूम, तड़क धूम।
पहला सीन
एक कुमित्र मेरे पीछे पड़े हुए हैं। बोले- तुम कब लौटा रहे हो।
मैं- मैंने कुछ लिया ही नहीं, लौटाऊं क्या।
वे बोले- कुछ भी लौटाओ मगर लौटाओ। महूरत निकला जा रहा है।
मैं- मगर क्या लौटाऊं। ये तो बताइए।
वे -कभी कोई सम्मान मिला?
मैं- मैं तो व्यंग्यकार हूं।
वे बोले- ओह सॉरी।
मैंने कहा- मेंशन नॉट।
उन्होंने पूछा- कभी कुछ तो मिला होगा।
मैं- जो मिला वो उधार नहीं था, जो लौटाया जाय।
वे बोले- उधार नहीं तो कर्ज तो होगा। वही लौटा दो।
मैं- व्यंग्यकार हूं भाई साहब मैं कर्ज नहीं लौटाता।
वे पछताए। बोले- ओह, आई एम सॉरी।
मैंने कहा- मेंशन नॉट।
वे मेरे पीछे पड़ गए कि मैं कुछ न कुछ लौटाऊं जरूर। वरना उनके घर में दिया नहीं जलेगा। मैंने उन्हें शांत किया कि भइया जो कुछ भी मुझे मिला, क्या मैं उसे अपने दामन में दाग की तरह संभाल नहीं सकता? उसे सलीब की तरह लटका नहीं सकता? उन्होंने चिढ़कर कहा- तुम बुर्जवा हो। मैंने समझा वो मुझे बुजुर्ग बता रहे हैं।
वो डटे रहे। बोले- तुम पर आरोप है कि तुम साहित्यकार हो।
मैं बोला- मैं कुबूल करता हूं।
वो चीखे- तो लौटाते क्यूं नहीं।
मैंने समझाया और कहा- मैं इन दिनों साहित्य में निलम्बित चल रहा हूं। क्या लौटाऊं।
उन्होंने राय दी- जो नहीं मिला वही लौटा दो।
मैंने पूछा- इससे क्या होगा।
वे बोले- इससे कम से कम ये तो कह सकोगे कि तेरा तुझको सौंपता क्या लागेगा मोय।
मैंने पंगा लिया। बोला- अगर मैंने नहीं लौटाया तो क्या कर लोगे।
वे बोले- मैं तुम्हारी हत्या कर दूंगा।
मैंने कहा- तुम मेरे विचारों की हत्या क्यूं नहीं करते।
उन्होंने पूछा- विचार कहां है।
मैंने कहा- अभी तो यहीं धरा था खूंटी पर।
वे बोले- खूंटी पर तो कुछ नहीं है।
मैं बोला- ओह सॉरी। शायद उसे कोई कोट की तरह पहन कर चला गया है।
वे भिन्ना कर चले गए। शाम को पड़ोसी साहित्यकार मित्र के यहां रूदनमय माहौल देखा। वो जो उन्हें मिला था, बहकावे में लौटाकर आए थे और बाथरूम में आकर जोर-जोर से रो रहे थे। पत्नी ने पूछा तो बताया कि वो चैक भी मांग रहे हैं। क्या करूं। कहां से दूं।
तभी मैंने भाभी की आवाज सुनी- अभी फटाफट भागो और जो लौटा आए थे, उनकी चिरौरी करके वापस ले आओ। जल्दी करो। ऐसे में जिद नहीं किया करते। उनके जूते भी छूने पड़ें तो कोई बात नहीं। जाओ। तुम्हें मेरी सौगंध।
दूसरा सीन
वे गुस्से में थे। बोले- देखो अगर तुमने सम्मान वापसी वाले मसले पर कुछ लिखा तो मैं तुम्हारी हत्या कर दूंगा।
मैंने कहा-क्यूं।
वे बोले- तुम धर्मान्धता के विरोध में क्यूं लिखते हो। उन्होंने मुझे समझाया कि आंख वालों को अन्धों का विरोध नहीं करना चाहिए। उनसे तो हमदर्दी जतानी चाहिए। उन्हें सूनी सड़क पार करानी चाहिए। अरे भाई अगर अन्धे अपनी आंखों में काजल पोत रहे हैं तो तुम क्यूं हलकान हो।
मैने पूछा- तो क्या करें।
बोले- अपने अन्दर भय पैदा करो। डरो। सब मिलकर भयभीत हो जाओ। पूरे सामूहिक भय को स्टोर करो। डॉक्टर जब तक भय नहीं दिखाता, तब तक कोई मरीज बीड़ी, सिगरेट, तमाखू नहीं छोड़ता। दरअसल तुममें से किसी भी सम्मानित को अपनी हत्या का भय नहीं है। इसीलिए सुविधाजनक विरोध कर रहे हो। भैया भय कभी सुविधाजनक नहीं होता। मेरे मित्र कवि लीलाधर जगूड़ी ने तो पहले ही कहा था कि भय भी शक्ति देता है। भय को अगर संगठित कर दिया जाय तो वो हिमालय पिघला सकता है साहित्य ऐकेडमी है क्या चीज।
कुछ देर के बाद वो फिर गुर्राए। मैं समझ गया मुझमें भय पैदा करने के लिए उनका गुरार्ना पहली सीढ़ी है। भोंकना दूसरी और काटना अंतिम सीढ़ी है। मुझे कोहनी मारते हुए बोले- देखो जिन्होंने सम्मान लौटा दिया वे अब निहत्थे हैं और मुंह लटकाकर बैठे हैं। उनके बीवी बच्चे तक उन्हें भाव नहीं दे रहे। दोस्तों का क्या वो तो जिन्होंने सम्मान नहीं लौटाया उनके साथ बैठे पपलू खेल रहे हैं। दिवाली तक खेलेंगे।
ये थोड़ा सच भी है। मैंने कल देखा मेरे पड़ोस के वर्मा जी के यहां कुछ लोग आंगन में शोक मुद्रा में बैठे हैं। बीच में मुंह लटकाए दाढ़ी बढ़ाए उदास वर्मा जी। सम्मान वापस करने के बाद पता नहीं उनकी हालत कुछ ऐसी हो गई थी जैसे श्मशान घाट से लौटे हों।
एक बोला- धीरज रखो भैया। जब आपको सम्मान मिला था तो लोग आपको जुगाड़ू जुगाड़ू कह रहे थे और आज… हे प्रभु रक्षा करना। कीड़े पड़ें उनके मुंह में।
दूसरा बोला- जो होना था वो तो हो गया वर्मा जी। ईश्वर की मर्जी के आगे इन्सान की क्या चलती है। ढांढस रखो।
तीसरा बोला- भाई साहब, ईश्वर के द्वारा दिये गए दुख को बर्दाश्त करना भी ईश्वर की उपासना का एक रूप है। धीरज रखो। उठो, कुछ खा पीलो।
दूसरे पड़ोस में जहां पपलू चल रहा था, वहां थानेदार तक का भय नहीं था। सब सम्मानित अपनी अपनी गृहशक्ति को समझाकर आए थे कि रात को मुझे देर हो जाएगी। तुम खाना खा लेना। आई लव यू।