एनएसईएल भुगतान संकट यह चिदंबरम की साजिश है!

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जिस देश का वित्त मंत्री ही कानून को ताक पर रखकर साजिश करने लग जाए, उस सरकार, उस पार्टी को चुनाव में तबाह होने से कोई नहीं रोक सकता. कांग्रेस को अब तक समझ जाना चाहिए कि पी चिदंबरम ने यूपीए सरकार के दौरान जो-जो कुकृत्य किए, उनका खामियाजा उसे आने वाले कई चुनावों में झेलना पड़ सकता है. ऐसा कैसे संभव है कि यूपीए सरकार में वित्त मंत्री रहे पी चिदंबरम और उनके बेटे कार्ति एक के बाद एक मामले में फंसते नजर आ रहे हों और उसके प्रभाव से कांग्रेस बची रहे. एयरसेल मैक्सिस मामले में सीबीआई ने उनके खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया है. आईएनएक्स मामले में कार्ति चिदंबरम जेल की हवा भी खा चुके हैं और पी चिदंबरम से सीबीआई घंटों पूछताछ कर चुकी है. अब एनएसईएल के प्रमोटर जिग्नेश शाह की कंपनी 63 मून्स टेक्नोलॉजीज ने पी चिदंबरम और उनके समय के दो अधिकारियों के खिलाफ 10 हजार करोड़ रुपये की क्षतिपूर्ति का मुकदमा दायर करने का फैसला किया है और उन पर जान-बूझकर 63 मून्स की सहायक कंपनी के खिलाफ षड्यंत्र करने का आरोप लगाया है.

p chidambaramपांच हजार छह सौ करोड़ रुपये के एनएसईएल (नेशनल स्पॉट एक्सचेंज लिमिटेड) भुगतान डिफॉल्ट संकट पर अगर एक सरसरी नजर भी डाली जाए, तो उससे कई स्तर पर साजिश की बू आती प्रतीत होती है. सवाल यह है कि एनएसईएल को अचानक बंद करने के आदेश क्यों दिए गए. जबकि किसी भी वित्त बाजार को अचानक बंद नहीं किया जाता. एनएसईएल को अचानक बंद करने का फैसला किसके इशारे पर लिया गया? क्या इस कार्रवाई के जरिये कुछ चहेतीकंपनियों की झोली भरने की कोशिश की गई? क्या यह साजिश तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम के इशारे पर रची गई? सचमुच यह एक साजिश है, जिसमें कारोबार बंद करने के आदेश देकर एनएसईएल भुगतान संकट पैदा किया गया.

भुगतान संकट का सच

यह मामला समझने के लिए एनएसईएल की पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है. एनएसईएल की स्थापना भारत के पहले इलेक्ट्रॉनिक कमोडिटी स्पॉट एक्सचेंज के रूप में मई 2005 में हुई थी. इसका मकसद भारत में निर्मित वस्तुओं और कृषि उपज के लिए देश में एकल बाजारमुहैया कराना था. स्पॉट एक्सचेंज को प्रोत्साहन देने के लिए सरकार ने एनएसईएल के साथ हाजिर व्यापार के क्षेत्र में काम करने वाली दो अन्य कंपनियों को भी एफसीआरए (फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट्स विनियमन) की धारा 27 में छूट दी थी. यह छूट एनएसईएल को जून 2007 में दी गई थी. छूट मिलने के बाद एनएसईएल ने अक्टूबर 2008 से कारोबार करना शुरू कर दिया और 2013 तक उसका कुल कारोबार साढ़े सात लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया था. अगस्त 2011 में फॉरवर्ड मार्केटिंग कमीशन (एफएमसी) को उपभोक्ता मामलों के विभाग ने कमोडिटी मार्केट के विनयमन का अधिकार दिया और यहीं से एनएसईएल भुगतान संकट शुरू हुआ था.

एनएसईएल के निरीक्षण के दौरान एफएमसी ने उसे फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट कानून के उल्लंघन का दोषी पाया. मई 2012 में एफएमसी की रिपोर्ट के आधार पर उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय ने एनएसईएल पर फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट कानून के उल्लंघन का आरोप लगाते हुए उसे कारण बताओ नोटिस जारी किया था. इस नोटिस में लगे आरोपों से घबरा कर जुलाई 2013 में एनएसईएल ने अपने हाजिर व्यापार के अधिकांश अनुबंधों को निलंबित कर दिया. उसके बाद अगस्त 2013 में उपभोक्ता मामलों के विभाग (डीसीए) ने एनएसईएल के ई-सीरीज कॉन्ट्रैक्ट पर व्यापार पूरी तरह रोक दिया, परिणाम स्वरूप एक्सचेंज में ट्रेडिंग पूरी तरह ठप हो गई और 5,600 करोड़ रुपये का भुगतान संकट खड़ा हो गया.

असल विवाद यहीं से शुरू होता है. जानकारों का मानना है कि कई ऐसे विकल्प थे, जिन्हें अपना कर उस भुगतान संकट को टाला या उसके प्रभाव को कम किया जा सकता था. मिसाल के तौर पर अगर एनएसईएल का कारोबार चरणबद्ध तरीके से बंद किया गया होता, तो हितधारकों को नुकसान नहीं उठाना पड़ता. यही नहीं, एनएसईएल की तरफ से पेशकश की गई थी कि वह ग्राहकों का पैसा लौटाने को तैयार है. दरअसल, 4 अगस्त 2013 को मुंबई में डिफाल्टर्स और ब्रोकर्स के साथ एफएमसी की बैठक हुई, जिसके बाद एफएमसी की तरफ से कहा गया कि डिफाल्टर्स ने 5,600 करोड़ रुपये की डिफॉॅल्ट की रकम चरणबद्ध तरीके से वापस करने पर अपनी रजामंदी दे दी है. इसी बीच डीसीए ने पैसे की उगाही के लिए प्रमोटर्स, डिफाल्टर्स, ब्रोकर्स, गोदामों आदि के खिलाफ कार्रवाई करने के अधिकार एफएमसी को दे दिए. एफएमसी ने डिफाल्टर्स और ब्रोकर्स की संपत्तियां जब्त कर एनएसईएल के ग्राहकों का पैसा उगाहने के बजाय अपनी कार्रवाई केवल एनएसईएल पर केंद्रित रखी. ऐसा क्यों हुआ? इसका कोई जवाब नहीं है. हालांकि, जो साक्ष्य बाद में सामने आए, उनसे यह जाहिर होता है कि कहीं न कहीं इस कहानी को उलझाने की कोशिश जरूर की गई और प्रतिद्वंद्वी कंपनी को फायदा पहुंचाने के लिए इस पूरे गोरखधंधे का ठीकरा जिग्नेश शाह की कंपनी 63 मून्स के सिर फोड़ दिया गया. ऐसे में अगर  कंपनी 63 मून्स इसका सीधा आरोप पी चिदंबरम और दो अन्य अधिकारियों पर लगाती है, तो उसे गंभीरता से लेना चाहिए.

संकट नहीं, यह साजिश है

63 मून्स टेक्नोलॉजी (पहले एफटीआईएल) ने एनएसईएल भुगतान संकट मामले में पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम, वित्त मंत्रालय के अतिरिक्त सचिव केपी कृष्णन, एफएमसी के तत्कालीन चेयरमैन रमेश अभिषेक के खिलाफ कानूनी नोटिस जारी कर 10,000 करोड़ रुपये की क्षतिपूर्ति के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाने का फैसला किया है. कंपनी का आरोप है कि इन तीनों ने उसके प्रतिद्वंद्वी नेशनल स्टॉक एक्सचेंज को लाभ पहुंचाने के लिए उसके द्वारा बनाए गए एक्सचेंज के पूरे तंत्र को नष्ट करने की साजिश रची गई. परिणाम स्वरूप 63 मून्स के शेयर धारकों एवं ग्राहकों के साथ-साथ अर्थव्यवस्था को भी बड़ा नुकसान हुआ. जब कंपनी का कारोबार प्रभावित हुआ, तो उसमें काम करने वाले लोगों के रोजगार भी छिन गए. बहरहाल, 63 मून्स के मेंटर जिग्नेश शाह ने इसे संकट के बजाय साजिश कहा है. उन्होंने चिदंबरम और उक्त दो अधिकारियों को नोटिस भेजकर साफ कर दिया है कि वह इस साजिश का इल्जाम किस पर डाल रहे हैं.

इसमें कोई शक नहीं कि सेबी में विलय के बाद और उससे पहले एफएमसी के अधिकारियों को अपनी स्थिति साफ करनी है. उन्होंने कुछ ऐसे फैसले किए, जिनसे मामले में उनकी भूमिका संदिग्ध हो जाती है. सबसे पहला आरोप यह है कि एफएमसी ने एनएसईएल द्वारा लेनदेन में शर्तों के उल्लंघन की शिकायत डीसीए से तो की, लेकिन उसकी प्रतिद्वंद्वी कंपनियों में उसी छूट के तहत कारोबार हो रहे थे, उन पर खामोश बरती. इसके अलावा सेवी में विलय के बाद भी मामले से संबंधित आर्थिक अपराध शाखा (ईओडब्ल्यू) की रिपोर्ट, जिसमें एनएसईएल की कार्यकारिणी के सदस्यों, ट्रेडर्स, ब्रोकर्स और डिफाल्टर्स का पूरा लेखा-जोखा मौजूद था, को ठंडे बस्ते के हवाले किए रखा.

जांच और कार्रवाई में पक्षपात

jignesh-shah28 सितंबर 2015 को वित्त अधिनियम 2015 के तहत एफएमसी का सेबी में विलय हुआ. उसके बाद स्पॉट मार्केट की निगरानी की जिम्मेदारी सेबी के पास चली गई. सेबी, जैसा कि ऊपर जिक्र किया जा चुका है, 2015 में एफएमसी के विलय के बाद भी ईओडब्ल्यू (आर्थिक अपराध शाखा, मुंबई पुलिस) की रिपोर्ट पर कार्रवाई के लिए तरसती रही. अब जाकर उस रिपोर्ट के आधार पर एनएसईएल की कार्यकारिणी के सदस्यों और उसके ब्रोकरों को एक बार फिर नोटिस जारी कर एनएसईएल के जरिये हुए लेनदेन, कारोबार और ब्रोकरेज आय की विस्तृत जानकारी मांगी गई है. गौरतलब है कि अगस्त 2013 में पुलिस ने फॉरेंसिक ऑडिट के अलावा ब्रोकरों का डिजिटल फॉरेंसिक ऑडिट भी कराया था और 2015 में अपनी रिपोर्ट पेश की थी. उस रिपोर्ट में स्पष्ट बताया गया था कि कैसे ब्रोकर्स ने नियमों का उल्लंघन कर ग्राहकों को धोखा दिया था. साथ में एनएसईएल के सीईओ अंजनी सिन्हा के कार्यकलापों को भी उजागर किया गया था. इसके बावजूद पूरे मामले में एनएसईएल की प्रमोटर कंपनी को ही दोषी मानकर उस पर कार्रवाई होती रही और ब्रोकर्स, जिनका पंजीकरण सबसे पहले रद्द होना चाहिए था, अपना कारोबार करते रहे. ब्रोकर्स के खिलाफ जांच में तेजी उस समय आई, जब एसएफआईओ (गंभीर धोखाधड़ी जांच कार्यालय) ने एनएसईएल मामले से जुड़ी सभी इकाइयों के बारे में तथ्य सामने रखे, जिनमें ब्रोकर्स, प्रवर्तक फर्म, उनके अधिकारी एवं डिफॉल्टर आदि शामिल हैं. एसएफआईओ ने 140 ब्रोकरों के संबंध में पुलिस को तथ्य उपलब्ध कराए थे और सेबी से भी उन पर नजर डालने को कहा था. पुलिस ने फॉरेंसिक ऑडिट के आधार पर फिर से गिरफ्तारी की शुरुआत की है और एनएसईएल के पूर्व सीईओ को गिरफ्तार किया है. इसके अलावा कंपनी के अधिकारियों एवं निदेशकों से भी पुलिस ने दोबारा पूछताछ शुरू कर दी है.

नोट करने वाली बात यह है कि वित्त सचिव अरविंद मायाराम की अनुशंसा पर तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने जांच का रुख एनएसईएल और उसकी मूल कंपनी तक केंद्रित रखा. लेकिन, सच्चाई यह भी है कि सेबी (भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड) फिलहाल जिस रिपोर्ट के आधार पर एनएसईएल और उसके ब्रोकरों और डिफाल्टर्स के खिलाफ जांच कर रही है, उसका आधार ईओडब्ल्यू द्वारा 2015 में पेश की गई रिपोर्ट बनी है. बहरहाल, यह सवाल अपनी जगह पर कायम है कि जब ईओडब्ल्यू ने 2015 में अपनी रिपोर्ट पेश कर दी थी, तो फिर पुन: जांच और पूछताछ का मतलब क्या है? जब उस रिपोर्ट में ब्रोकर्स को दोषी ठहराया गया था, तो फिर उन्हें अयोग्य घोषित करने की कार्रवाई में देरी क्यों और किसके इशारे पर की गई? इन सवालों से साफ हो जाता है कि एक साजिश के तहत एनएसईएल का कामकाज रोका और उसे तबाह किया गया. अब तक के तथ्यों पर नजर डाली जाए, तो इस साजिश का मास्टर माइंड कोई और नहीं, बल्कि देश के पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम थे. क्योंकि, जब कोई आर्थिक घोटाला होता है, तो आम तौर पर शुरुआती जांच पैसों की हेराफेरी के इर्द-गिर्द होती है. लेकिन, यहां ब्रोकरों और डिफॉल्टर्स (जहां पैसों का लेनदेन हुआ) के बजाय जिग्नेश शाह की मूल कंपनी एफटीआईएल को निशाना बनाया गया.

हकीकत यह है कि एसएफआईओ की ताजा रिपोर्ट से पहले भी एफएमसी को इस गोरखधंधे में ब्रोकर्स और ट्रेडर्स की संलिप्तता की जानकारी थी, लेकिन उसने पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाते हुए केवल एनएसईएल के खिलाफ कार्रवाई की, जबकि फॉरवर्ड ट्रेडिंग में किसी तरह की धांधली की जानकारी पुलिस को देना उसके लिए अनिवार्य है. 63 मून्स के इस आरोप में दम है कि पी चिदंबरम ने केपी कृष्णन के एक नोट को अनुमोदित किया, जिसके तहत एनसीडीईएक्स के अन्य सह प्रमोटरों को एनएसई को अपनी हिस्सेदारी बेचने के लिए मजबूर किया गया, ताकि एनएसई को प्रमुख प्रमोटर बनाया जा सके. इस कार्रवाई की वजह से एनएसईएल के निवेशकों को भारी नुकसान उठाना पड़ा. साथ ही एक्सचेंज का जो तंत्र एनएसईएल ने तैयार किया था, वह भी नष्ट हो गया. नई नौकरियों की बात तो दूर, पहले की नौकरियां भी खत्म हो गईं. कई लोग बेरोजगार हो गए.

सेबी की कार्रवाई

सवाल यह है कि एफएमसी ने जिस तेजी से एनएसईएल को नॉट फिट एंड प्रॉपर करार दिया, वह तेजी ब्रोकर्स के खिलाफ कार्रवाई में नहीं दिखी. पूरे मामले में संदिग्ध भूमिका वाले ब्रोकर्स और ब्रोकरेज पहले की तरह काम करते रहे, जबकि होना यह चाहिए था कि ईओडब्ल्यू की 2015 की रिपोर्ट के आधार पर ब्रोकर्स को नॉट फिट एंड प्रॉपर करार दिया जाता. ऐसे में अगर 63 मून्स तत्कालीन वित्त मंत्री और उनके अधिकारियों पर पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाने का आरोप लगा रही है, तो उसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए. खास तौर पर इस संदर्भ में, जब 63 मून्स ने चिदंबरम और उनके समय के दो अधिकारियों पर 10,000 करोड़ रुपये की क्षतिपूर्ति का मुकदमा दर्ज कराने का फैसला कर लिया हो.

एक ताजा घटनाक्रम में सेबी ने बीती 22 फरवरी के अपने आदेश में एनएसईएल के दो ब्रोकर्स मोती लाल ओसवाल कमोडिटीज ब्रोकर प्राइवेट लिमिटेड (एमओसीबीपी) और इंडिया इंफोलाइन (आईआईएफएल) को कमोडिटी ट्रेडिंग ब्रोकर के लिए नॉट फिट एंड प्रॉपर (अयोग्य) करार दिया है. इन दो ब्रोकरों पर ऐसे समय में कार्रवाई हुई है, जब एसएफआईओ ने अपनी रिपोर्ट में एनएसईएल के साथ-साथ ब्रोकरों पर भी शिकंजा कसना शुरू कर दिया था. एनएसईएल शुरू से ही बेईमान ब्रोकर्स के खिलाफ कार्रवाई की मांग करता आ रहा था. सेबी के ताजा फैसले में भी एनएसईएल के आवेदन का हवाला मौजूद है, जिसमें उसने ब्रोकर्स की भूमिका पर गंभीर आरोप लगाए हैं. बहरहाल, अभी भी एनएसईएल भुगतान संकट मामले की जांच चल रही है. अगर इस मामले से ठीक ढंग से निपटा गया होता, तो भुगतान का इतना बड़ा संकट पैदा न हुआ होता. यहां पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम और उनके समय के अधिकारियों की भी जवाबदेही बनती है कि उन्होंने यह संकट पैदा ही क्यों होने दिया?

जिग्नेश शाह और उनकी कंपनी पर जांच हो रही है, लेकिन अब तक की जांच में एफटीआईएल तक पैसों के लेनदेन की कोई धारा नहीं जाती. लेकिन, एफटीआईएल को प्रमोटर कंपनी होने के नाते अदालत में अपनी स्थिति स्पष्ट करनी है. इस संदर्भ में एक बड़ा सवाल यह भी है कि जब चिदंबरम पहले से घोटालों के कई मामलों में सीबीआई और ईडी की जांच के घेरे में हैं और अब 63 मून्स ने भी उनके खिलाफ सीबीआई के समक्ष आपराधिक मामला दर्ज करा रखा है, तो ऐसे में आखिर कांग्रेस नेतृत्व चिदंबरम को पार्टी में बर्दाश्त क्यों कर रहा है? क्या उसे अपने किसी राज के खुल जाने का अंदेशा है? या कोई और मजबूरी? क्या इस मामले में चिदंबरम की भूमिका तय नहीं होनी चाहिए? जिस तरह चिदंबरम के खिलाफ एक के बाद एक मामले सामने आ रहे हैं, उनसे यही लगता है कि 2014 में कांग्रेस जिस तरह तबाह हुई, उसका एक कारण चिदंबरम भी हैं.

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