नई दिल्ली।
जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत घट रही थी तो उस समय भारत में पेट्रोलियम की कीमतों में कोई राहत नहीं दी गई और जब कच्चे तेल के दाम बढ़ रहे हैं तो उसके नाम पर पेट्रोल और डीजल की कीमतें आसमान छू रही हैं। इससे ऐसा लगने लगा है कि अब सस्ते तेल के दिन लद गए हैं। पिछले साल की तुलना में तेल की क़ीमत 50 फीसदी तक बढ़ गई, लेकिन मई में नवंबर, 2014 के बाद की सबसे ऊंची क़ीमत होने का रिकॉर्ड बन गया है।
हाल में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के भाव अचानक काफी तेज हो गए। तेल का एक बड़ा आयातक देश होने के चलते इसकी कीमतें बढ़ने से भारत के लिए चिंता बढ़ने लगती है। न केवल देश का व्यापार घाटा और उसके चलते चालू खाते का घाटा (करेंट एकाउंट डेफिसिट या सीएडी) बढ़ जाता है, बल्कि इसके चलते रुपये में भी कमजोरी आती है।
पिछले साल भर में अगर कच्चे तेल की वैश्विक कीमतें करीब 50 डॉलर से बढ़ कर 80 डॉलर के आस-पास आ गई हैं तो इस साल जनवरी से अब तक डॉलर-रुपये की विनिमय दर जनवरी के करीब 63.3-63.6 रुपये के आस-पास से बढ़ कर हाल में 68.65 रुपये तक हो गई।
रुपये की कमजोरी के पीछे एक पहलू यह भी है कि डॉलर में अन्य देशों की मुद्राओं के सापेक्ष भी मजबूती आई है। इसके अलावा अमेरिका में बांडों पर कमाई (यील्ड) बढ़ने के कारण विदेशी निवेशकों के लिए खुद अमेरिकी बाजार ज्यादा आकर्षक हो गया है। भारतीय शेयर बाजार ऊंचे स्तर पर होने के कारण यहां शेयरों का मूल्यांकन उन्हें महंगा लगने लगा है।
जहां तक कच्चे तेल की कीमतों की बात है, साल 2014 के बाद पहली बार कच्चे तेल की कीमत 80 डॉलर प्रति बैरल के ऊपर चली गई। हालांकि अब भी यह साल 2013 में दिखे 120 डॉलर के ऊंचे भाव से काफी दूर है, लेकिन 2015 और 2016 के निचले स्तरों से इसमें काफी बढ़ोतरी हो चुकी है।
जनवरी 2016 में तो कच्चे तेल के भाव कुछ समय के लिए 30 डॉलर प्रति बैरल के भी नीचे चले गए थे, हालांकि उन स्तरों से यह तेजी से ऊपर भी आया था। मोटे तौर पर कहा जाए तो साल 2015 की दूसरी छमाही से लेकर 2017 की दूसरी छमाही तक यह मोटे तौर पर 40 से 60 डॉलर के दायरे में बना रहा।
साल 2017 के अंतिम महीनों में यह 60 डॉलर के ऊपर निकला और हाल में 80 डॉलर तक चढ़ गया। मगर अभी यह फिर से कुछ नरम हुआ है और 75 डॉलर के पास आ गया है। अब जरा देखें कि कच्चे तेल की कीमतों में उतार-चढ़ाव का क्या असर भारत पर हुआ?