वीरेंद्र नाथ भट्ट
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जब महागठबंधन के नेता थे तो भाजपा से मुकाबले के लिए विपक्षी दलों का एक साझा वैकल्पिक एजेंडा बनाने पर लगातार जोर देते रहे लेकिन तब कांग्रेस, राजद या अन्य किसी विपक्षी दल ने उनकी बात पर गौर करने की जरूरत नहीं समझी। अब जब नीतीश महागठबंधन से अलग हो चुके हैं तो समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव को उनकी बात याद आ रही है और वे उसे दोहरा रहे हैं। नीतीश कहते थे कि भाजपा के खिलाफ विपक्ष का स्पष्ट एजेंडा होना चाहिए जबकि हम केवल प्रतिक्रिया देते हैं।
अपने पिता मुलायम सिंह यादव के संसदीय क्षेत्र आजमगढ़ में 30 अगस्त को एक जनसभा में अखिलेश यादव ने कहा, ‘हमारी सच बात पर भी कोई विश्वास नहीं करता जबकि भाजपा के अच्छे दिन और अब न्यू इंडिया के नारे पर लोग विश्वास कर लेते हैं। हमें अब अपना एजेंडा स्पष्ट कर जनता के बीच जाना होगा ताकि लोग हमारी सच बात पर विश्वास कर सकें। भाजपा ने पहले अच्छे दिन का वादा किया और अब उसे भुला कर न्यू इंडिया की बात कर रही है। 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने हर व्यक्ति को 15 लाख रुपये देने के साथ फसलों का समर्थन मूल्य दोगुना करने और किसानों की आमदनी को भी दोगुना करने का वादा किया था। एक भी वादा पूरा नहीं हुआ फिर भी लोगों ने उन पर विश्वास किया और हमने इतना काम किया, समाज के हर वर्ग के लिए काम किया फिर भी हम बुरी तरह चुनाव हार गए।’ सपा के पूर्व मंत्री और विधायक उज्जवल रमण सिंह कहते हैं, ‘हमें तो न्यू इंडिया और अच्छे दिन के बीच अंतर क्या है यही समझ नहीं आ रहा लेकिन आम जनता बिना जाने ही इन नारों पर विश्वास कर रही है।’
तमाम दावों के बावजूद उत्तर प्रदेश में विपक्षी एकता की बात हवा में है। बहुजन समाज पार्टी ने लालू यादव की पटना में आयोजित ‘भाजपा भगाओ देश बचाओ’ रैली से किनारा कर लिया और सीट बंटवारे का मुद्दा उठा दिया। 27 अगस्त को आयोजित इस रैली से सपा को बहुत उम्मीद थी कि इससे विपक्षी एकता का मार्ग प्रशस्त होगा मगर फिलहाल ऐसा होता दिख नहीं रहा है। पटना रैली में शामिल होने से साफ इनकार करने की बजाय मायावती ने शर्तें बताना शुरू कर दिया कि मंच साझा करने से पहले सीटों के बंटवारे पर स्थिति साफ हो जानी चाहिए। मायावती ने कहा कि सीटों के बंटवारे को लेकर बाद में झगड़ा न हो इसलिए उन्होंने यह शर्त रखी है। पिछले चार दशकों से सीट समझौता और गठबंधन की राजनीति देख रहे लोगों के लिए यह समझना मुश्किल नहीं था कि मायावती यह शर्त क्यों रख रही हैं। वैसे भी पिछले तीन दशकों में बसपा ने कभी भी किसी अन्य दल के नेता को अपना नेता नहीं माना है। यानी उत्तर प्रदेश में जन्म से पहले ही विपक्षी एकता ने दम तोड़ दिया है।
जून 1995 में गेस्ट हाउस कांड (मायावती पर तथाकथित सपा कार्यकर्ताओं ने जानलेवा हमला किया था) के बाद सपा-बसपा का गठबंधन टूटने के 22 साल बीतने पर फिर से सपा और बसपा में गठबंधन की चर्चा मायावती के बयान से ही शुरू हुई थी। विधानसभा चुनाव में बसपा के 19 सीटों पर सिमट जाने से मायावती ने चुनाव नतीजे आने के 48 घंटे के भीतर घोषणा कर दी कि वो किसी भी भाजपा विरोधी दल के साथ नीतियों और कार्यक्रम के आधार पर चुनाव पूर्व गठबंधन को तैयार हैं। लेकिन 20 जुलाई को राज्यसभा की सदस्यता से अचानक इस्तीफा देने के बाद अब गठबंधन के लिए मायावती का उत्साह काफूर हो चुका है। पहले यह कयास लगाए जा रहे थे कि पटना की रैली में लोकसभा चुनाव पूर्व महागठबंधन की नींव पड़ना तय है। मगर ऐसा नहीं हुआ। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि विशाल रैली आयोजित कर लालू यादव ने अपनी सांगठनिक क्षमता तो साबित कर दी और यह भी दिखा दिया कि उनका एक विश्वस्त वोट बैंक है लेकिन यह रैली भाजपा विरोधी दलों को एक राष्ट्रीय मंच उपलब्ध कराने में असफल रही। रैली में हालांकि 18 दलों के नेताओं ने शिरकत की लेकिन विपक्षी एकता को धार देने की बजाय यह रैली भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे पिता-पुत्र के प्रति समर्थन जुटाने का मंच बन कर रह गई।
राजनीतिक समीक्षक डॉ. अनिल कुमार वर्मा कहते हैं, ‘1980 से ही एक राष्ट्रीय विकल्प बनाने में क्षेत्रीय दलों की प्रभावशाली भूमिका रही है लेकिन इस विकल्प के बीच या बीजकोष में एक राष्ट्रीय दल रहा है। 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में बने नेशनल फ्रंट में तमाम क्षेत्रीय दल शामिल थे लेकिन धुरी जनता दल था जिसका उत्तर प्रदेश के साथ बिहार, हरियाणा, राजस्थान, ओडिशा, गुजरात और महाराष्ट्र में भी आधार था। 1996 के यूनाइटेड फ्रंट सरकार में भी जनता दल बहुत कमजोर होने के बाद भी इस फ्रंट की धुरी था और इस सरकार को कांग्रेस का बाहर से समर्थन हासिल था। इसी के बाद कांग्रेस और भाजपा के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की जड़ें मजबूत हुर्इं और जनता परिवार एकता की तमाम कोशिशों के बावजूद कई छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों में बंट चुका है। वामपंथी दल भी केवल केरल और त्रिपुरा में सिमट गए हैं।’ डॉ. वर्मा कहते हैं, ‘2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से कांग्रेस लगातार कमजोर होती जा रही है। भाजपा विरोधी वैकल्पिक गठबंधन को धुरी और धार देने वाला न तो कोई दल है और न ही कोई नेता। ऐसी स्थिति में सेक्युलर गठबंधन के प्रयास में जुटे दलों की राजनीति भाजपा की नीतियों पर केवल प्रतिक्रिया देने तक सिमट गई है। उनके पास अपना कोई एजेंडा नहीं है।’
जनता परिवार की मुसीबत यहीं तक सीमित नहीं है। परिवारवाद की राजनीति पर आधारित इन दलों के नेता भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे हैं और भाजपा तेजी से सेक्युलर दलों के मुद्दों को हथिया रही है। भाजपा ने अपने एजेंडे का एक ऐसा विशाल औरा तैयार कर लिया है जिसमें राष्ट्रवादी राजनीति, गौरक्षा, अनुच्छेद 35ए (कश्मीर की नागरिकता से जुड़ा), तीन तलाक और तथाकथित सांप्रदायिक मुद्दों के साथ जाति आधारित पहचान की राजनीति सब शामिल है। इसके अलावा भाजपा लगातार अपने प्रभाव क्षेत्र के साथ-साथ अपने सामाजिक आधार का भी विस्तार कर रही है। कई क्षेत्रीय दल भी उसके साथ जुड़े हैं। भाजपा की इस आक्रामक राजनीति के कारण अब मंडल बनाम कमंडल, सेक्युलर बनाम कम्युनल, राज्य बनाम केंद्र जैसे मुद्दे अपनी धार खोते जा रहे हैं। डॉ. वर्मा का मानना है कि यदि विपक्ष को 2019 में भाजपा के सामने चुनौती पेश करनी है तो उसे एक बृहद् एजेंडा बनाना होगा। साथ ही एक ऐसा दल भी होना चाहिए जो 1989 की तरह विपक्षी दलों की धुरी बन सके। अभी तक ऐसा कोई लक्षण न तो पटना की रैली में दिखा और न ही आगे दिखने की कोई संभावना नजर आती है।
सपा में पारिवारिक कलह जारी
अखिलेश यादव विपक्षी एकता की वकालत तो मार्च 2017 में चुनाव में करारी हार के बाद से ही कर रहे हैं लेकिन उनकी तात्कालिक जरूरत अपने परिवार में एकता की है और अपने पिता मुलायम सिंह और चाचा शिवपाल यादव को मनाने की है। अखिलेश कोई भी समझौता अपनी शर्तों पर चाहते हैं। इस समझौते में जो भी तय होगा उसमें उनके एक और चाचा राम गोपाल यादव की प्रमुख भूमिका होगी। हालांकि मुलायम के सब्र का बांध लगता है अब टूट रहा है। सितंबर के पहले हफ्ते में बहू डिम्पल यादव के संसदीय क्षेत्र कन्नौज में मुलायम ने एक जनसभा में कहा, ‘जहां उनका सम्मान नहीं है वहां रहना मुश्किल है। अब जल्दी ही कड़ा फैसला लेना पड़ेगा।’ मुलायम ने जनता से कड़ा फैसला लेने पर समर्थन मांगा और अलग पार्टी बनाने के संकेत भी दिए जिसका भीड़ ने हाथ हिलाकर समर्थन किया। अक्टूबर में सपा के प्रस्तावित राष्ट्रीय सम्मलेन से पहले वे परिवार के विवाद को सुलझा लेना चाहते हैं और शिवपाल यादव की सम्मानजनक बहाली भी चाहते हैं। पार्टी सूत्रों का कहना है कि राष्ट्रीय सम्मलेन में अखिलेश यादव दोबारा राष्ट्रीय अध्यक्ष निर्वाचित हो जाएंगे और पार्टी पर उनकी पकड़ और मजबूत होगी जिसके बाद मुलायम सिंह के लिए अपने पुत्र को समझौते के लिए राजी करना और कठिन होगा। किसी भी समझौते में राम गोपाल यादव निर्णायक भूमिका में होंगे। पार्टी के एक नेता का कहना है कि अब अखिलेश और शिवपाल में इतनी ज्यादा दूरी बढ़ चुकी है कि उनका एक साथ आना लगभग असंभव है।
सपा का ध्यान अपने संगठन को मजबूत करने के साथ-साथ योगी आदित्यनाथ सरकार के सामने मजबूत विपक्ष के तौर पर अपनी भूमिका निभाने की है। लेकिन अखिलेश यादव को परिवार के अंदर से ही चुनौती मिल रही है। जिस तरह से पार्टी की हार के बाद मुलायम ने अखिलेश पर निशाना साधा, परिवार की छोटी बहू अपर्णा यादव ने योगी आदित्यनाथ से नजदीकी बढ़ाने की कोशिश की और शिवपाल यादव के नेतृत्व में कार्यकर्ताओं का एक गुट काम कर रहा है, उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है कि अखिलेश की मुश्किलें कम होने वाली नहीं हैं।
इन दिनों क्या कर रहे अखिलेश
इन दिनों अखिलेश विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार की समीक्षा में जुटे हैं। ये समीक्षा कभी सपा कार्यालय में तो कभी पार्टी दफ्तर से सटे जनेश्वर मिश्र ट्रस्ट के दफ्तर में हो रही है। लगातार बैठकों का दौर चल रहा है। कार्यकर्ताओं की भीड़ सुबह से ही दफ्तरों के बाहर जुट रही है। अखिलेश गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीट पर होने वाले उपचुनाव के लिए उन जिलों के कार्यकर्ताओं से भी मिल रहे हैं। अपनी बैठकों में वे कार्यकर्ताओं और नेताओं को लगातार इस बात का ध्यान दिला रहे हैं कि 2019 का लोकसभा चुनाव बहुत दूर नहीं है, तैयारी में अभी से जुटना होगा। उनके करीबी लोगों के मुताबिक अखिलेश बार-बार अपने हारे हुए उम्मीदवारों के सामने एक बात दोहराते हैं कि हम लोग मेट्रो, एक्सप्रेस-वे और समाजवादी पेंशन जैसे विकास के मुद्दों पर चुनाव लड़ते रहे और भाजपा जातिगत समीकरण बनाती रही।
अखिलेश यादव के विश्वस्त सहयोगी और एमएलसी उदयवीर सिंह कहते हैं, ‘सपा सरकार ने दलितों और पिछड़ों के लिए काफी काम किया लेकिन भाजपा खास धर्म और जाति के प्रति नफरत की राजनीति कर लोगों को बहकाने में कामयाब रही। हम आम लोगों के बीच जमीनी स्तर पर जाने की तैयारी कर रहे हैं।’ समाजवादी रुझान वाली पत्रिका सोशलिस्ट फैक्टर के संपादक फ्रैंक हुजूर कहते हैं, ‘अखिलेश यादव को समाजवादी राजनीति में विकास के मुद्दे के साथ सामाजिक न्याय की राजनीति पर भी बराबर ध्यान देना होगा तभी पार्टी वापसी कर सकती है।’ पार्टी के एक नेता ने कहा कि अखिलेश यादव ने सबको साफ बता दिया है कि अब हर चुनाव अपने दम पर लड़ने की तैयारी करो क्योंकि बसपा कभी भी गठबंधन नहीं करेगी और यदि करना भी चाहेगी तो भाजपा होने नहीं देगी। वे अपने पिता की भी खुल कर आलोचना करते हैं। पार्टी के वरिष्ठ नेता ने कहा कि 20 जून को मुख्यमंत्री आवास में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सम्मान में आयोजित भोज में मुलायम सिंह के शामिल होने से अखिलेश नाराज हैं। नेताजी भोज में गए फिर भी योगी आदित्यनाथ ने उनकी सुरक्षा में लगी तीन कारें वापस ले ली।
पार्टी के मुख्य प्रवक्ता और अखिलेश यादव के बेहद करीबी राजेंद्र चौधरी बताते हैं, ‘प्रदेश के अलग- अलग जिलों के उम्मीदवारों और कार्यकर्ताओं के साथ समीक्षात्मक बैठक का दौर पूरा हो चुका है। सदस्यता अभियान पूरा होने के बाद संगठन चुनाव का काम भी हो चुका है। अब राष्ट्रीय सम्मेलन की तैयारी चल रही है। राष्ट्रीय कार्यकारिणी ही नहीं बल्कि प्रदेश के जिलों और विभिन्न राज्य के संगठनों का पुनर्गठन भी किया जा रहा है। पार्टी से संबंधित विभिन्न संगठनों की बैठक भी बुलाई जा रही है। 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीटों पर उपचुनाव होने हैं। हम लोग उसकी तैयार कर रहे हैं। उसके बाद नगर निगमों के चुनाव होंगे। इन चुनावों में हम भाजपा को जवाब देने की तैयारी कर रहे हैं।’ राजेंद्र चौधरी ये दावा भी करते हैं कि जल्दी ही उत्तर प्रदेश के आम लोगों को समाजवादी सरकार और योगी आदित्यनाथ की सरकार के अंतर का पता चल जाएगा। एमएलसी उदयवीर सिंह कहते हैं, ‘अखिलेश सरकार की सबसे ज्यादा आलोचना कानून और प्रशासन के मुद्दे पर की जाती थी लेकिन योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद क्या राज्य में अपराध कम हो गया है? चार माह में कितने मामले दर्ज हो चुके हैं, समाज का एक पूरा तबका खौफ में जी रहा है।’
चुनाव में करारी हार के बावजूद अखिलेश की तरफ लोग उम्मीद से देख रहे हैं। इसकी वजह उनका अपना व्यक्तित्व है। वे सौम्य दिखते हैं। उनकी राजनीति में नफरत की भाषा नहीं है। ऐसे में भविष्य की राजनीति में उनकी जगह बनी रहेगी। उनके करीबी लोग बताते हैं कि अखिलेश यादव उनसे मिलने जुलने वाले समाजवादी कार्यकर्ताओं से कहते हैं, ‘राजनीति में यह अस्थायी दौर है और ऐसी घटनाएं हो जाती हैं। नई लड़ाई के लिए तैयार रहिए।’