उमेश चतुर्वेदी ।
क्षेत्रीय भाषाएं इन दिनों अस्मिता को प्रदर्शित करने का राजनीतिक हथियार बनती नजर आ रही हैं। भाषा वैज्ञानिक सुनीति कुमार चटर्जी जिन्होंने भारतीय भाषाओं का वर्गीकरण करते हुए अवधी, भोजपुरी, मगही, मैथिली, बघेली, बुंदेली या छत्तीसगढ़ी आदि को हिंदी की बोलियां बताया था, उन्होंने विद्रोह कर दिया है। विद्रोह की वजह है संविधान का अनुच्छेद 343 और संविधान की आठवीं अनुसूची। आठवीं अनुसूची के मुताबिक हिंदी भी उन 22 भाषाओं में एक है जिन्हें इस अनुसूची में जगह दी गई है। आठवीं अनुसूची में चूंकि कुछ हजार से लेकर कुछ लाख लोगों द्वारा बोली जाने वाली कोंकणी, मणिपुरी और सिंधी तक शामिल की जा चुकी हैं, इसलिए अब हिंदी की बोलियां मानी जाती रही भोजपुरी, मगही, अंगिका, बज्जिका और कुमाऊंनी समेत 38 भाषाओं या बोलियों को भी इस अनुसूची में शामिल करने की मांग तेज हो गई है। बोली और भाषा के पारंपरिक विवाद और पारिभाषिक भाषा वैज्ञानिक शब्दावली को किनारे रख भी दें तो इनमें सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोली जाने वाली भोजपुरी का तर्क कहीं ज्यादा दमदार है। दमदार इसलिए कि हिंदी की अकेली बोली भोजपुरी ही है जिसका प्रसार मॉरीशस, फिजी, सूरीनाम, त्रिनिदाद आदि देशों तक फैला हुआ है।
हालांकि आठवीं अनुसूची में हिंदी क्षेत्र की भाषाओं या बोलियों को शामिल किए जाने को लेकर विरोध भी शुरू हो गया है। यह विरोध किसी खास क्षेत्र की भाषा या बोली या राजनीतिक अस्मिता को नकारबोध के जरिये नहीं हो रहा है बल्कि विरोधियों का तर्क है कि अगर इसी तरह हिंदी क्षेत्र की सभी भाषाओं को एक-एक कर आठवीं अनुसूची में स्थान दिया जाता रहा और उन्हें संवैधानिक दर्जा दिया जाता रहा तो इससे बोलियों की थोड़ी-बहुत राजनीतिक ताकत जरूर बढ़ जाएगी या फिर उनके लिए आंदोलन करने वाले लोगों की राजनीतिक हैसियत बढ़ जाएगी। लेकिन इससे यह तय है कि बरसों से अनुच्छेद 343 के तहत राजभाषा का अपना असल हक हासिल करने के इंतजार में बैठी हिंदी की प्रतीक्षा और बढ़ जाएगी क्योंकि बेशक भारत में अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या करीब तीन फीसद हो लेकिन उसे भी आठवीं अनुसूची में शामिल करने की बाकायदा मांग की जा चुकी है।
आठवीं अनुसूची में शामिल करने या न करने को लेकर अपने-अपने तर्क हो सकते हैं लेकिन इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि भाषाओं का अपना जनतंत्र होना चाहिए। इसे तार्किक रूप से समझने के लिए स्वतंत्रता सेनानी और विशाल भारत के संपादक रहे पंडित बनारसी दास चतुर्वेदी के विचार को जान लेना जरूरी है। 1981 में आकाशवाणी को दिए एक साक्षात्कार में गांधी जी के अनन्य सहयोगी रहे चतुर्वेदी जी ने बोलियों और भाषा के अंतर्संबंधों को लेकर बड़ी बात कही थी। उन्होंने कहा था, ‘ये जो बोलियां हैं, अवधी है, ब्रजभाषा है, मैथिली है, खड़ी बोली की माता है। खड़ी बोली इनसे निकली है। ये खड़ी बोली की सौत नहीं है।’ जिस तरह संघीय शासन व्यवस्था में राज्यों को सीमित हद तक स्वायत्तता होती है, दरअसल पंडित बनारसी दास चतुर्वेदी भारतीय भाषाओं के लिए भी इसी तरह की स्वायत्तता की वकालत करते थे। इसी संदर्भ में उनकी कल्पना भाषाओं के जनपद की थी। बनारसी दास चतुर्वेदी के भाषाओं के जनपद में सभी भाषाएं अपनी पूरी स्वायत्तता के साथ विकास करतीं और सम्मिलित रूप से हिंदी को समृद्ध करते हुए केंद्रीय भाषा के तौर पर विकास करतीं। इसे वे जनपदीय आंदोलन कहा करते थे। आठवीं अनुसूची में भाषाओं को शामिल करने को लेकर जारी आंदोलनों और मांगों से निपटते वक्त अतीत में केंद्र सरकारों ने इस तर्क का शायद अनजाने में ही सहयोग नहीं लिया। हो सकता है कि उन्हें पंडित बनारसी दास चतुर्वेदी की इस सोच की भी जानकारी नहीं हो।
भारत की राजभाषा को लेकर 12 सितंबर, 1949 की शाम को संविधान सभा में जो चर्चा शुरू हुई और 14 सितंबर, 1949 तक चली, उसके प्रेरणास्रोत महात्मा गांधी के विचार ही थे। महात्मा गांधी ने 29 मार्च, 1918 को इंदौर में आठवें हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता करते वक्त अपने संबोधन में पहली बार कहा था कि हिंदी को ही भारत की राष्ट्रभाषा का दर्जा मिलना चाहिए। गांधी को पता था कि हिंदी को वे इलाके शायद ही स्वीकार करें जहां उसका चलन नहीं है। इसलिए उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के समानांतर हिंदी की नींव मजबूत बनाने का रचनात्मक आंदोलन भी छेड़ा। इसी सिलसिले में उन्होंने इंदौर से ही पांच हिंदी दूतों को देश के उन राज्यों में भेजा था जहां उन दिनों हिंदी का ज्यादा प्रचलन नहीं था। जिस तरह अशोक ने बौद्ध धर्म के विस्तार के लिए अपने बेटे महेंद्र और बेटी संघमित्रा को श्रीलंका आदि जगहों पर भेजा, महात्मा गांधी ने भी उसी तर्ज पर जो हिंदी दूत गैर हिंदीभाषी इलाकों में भेजे, उनमें उनके सबसे छोटे बेटे देवदास गांधी भी शामिल थे। इसी मुहिम के तहत मद्रास में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की स्थापना हुई।
हिंदी ऐसी भाषा नहीं है जैसी बांग्ला या तमिल या ऐसी दूसरी भाषाएं हैं। हिंदी दरअसल छोटी-छोटी भाषाओं-बोलियों का बड़ा समुच्चय है। इस समुच्चय में सबकी अस्मिता भी बनी रहे और हिंदी का भी नुकसान न हो। इसे समझने के लिए नर्मदेश्वर चतुर्वेदी का कथन उल्लेखनीय है। चतुर्वेदी ने अपने ग्रंथ ‘हिंदी का भविष्य’ में लिखा है, ‘हिंदी वास्तव में किसी एक ही भाषा अथवा बोली का नाम नहीं है अपितु एक सामाजिक भाषा परंपरा की संज्ञा है जिसका आकार-प्रकार विभिन्न उपभाषाओं और बोलियों के ताने-बाने द्वारा निर्मित हुआ है।’ हिंदी को लेकर यह अवधारणा अठारहवीं सदी से ही लिखित रूप में नजर आ रही है। अंग्रेज विद्वान हेनरी काल ब्रुक ने 1782 में कहा था, ‘जिस भाषा का व्यवहार भारत के प्रत्येक प्रांत के लोग करते हैं, जो पढ़े-लिखे तथा अनपढ़ दोनों की साधारण बोलचाल की भाषा है और जिसे प्रत्येक गांव में थोड़े बहुत पढ़े-लिखे लोग समझते हैं, उसी का नाम हिंदी है।’
ऐसा लगता है कि गांधी जी को भविष्य में बोलियों के राजनीतिक रुख के चलते हिंदी को होने वाली चोट का अहसास था। शायद यही वजह है कि उन्होंने 31 जनवरी, 1929 को यंग इंडिया में लिखा था, ‘यह बात अब सभी को स्पष्टतया समझ लेनी चाहिए कि हिंदी को प्रादेशिक भाषाओं का कतई स्थान नहीं लेना है, उसे तो अंतरप्रांत की अधिकृत भाषा का स्थान लेना और प्रांतीय विचार विनिमय का माध्यम बनना है।’
हिंदी के पाठ्यक्रमों में भाषा और बोली के अंतर को लेकर पढ़ाया जाता रहा है। पाठ्यक्रमों की पुस्तकों के मुताबिक, भाषा वह है जिसके पास शिष्ट साहित्य हो जबकि बोली वह है जहां शिष्ट साहित्य का अभाव है। लेकिन इस तर्क का आधार भी कमजोर है। शिष्ट साहित्य के अभाव में जिसे हम बोली कहते हैं, दरअसल उनके यहां भी लोक साहित्य की समृद्ध परंपरा होती है। चाहे भोजपुरी हो या फिर अंगिका या बज्जिका, सबके पास लोक साहित्य की अपनी गहन परंपरा है और उनका लोक साहित्य उनकी सांस्कृतिक भूमि के रस-गंध को खुद में पूरी तरह समाए हुए है। वैसे आज के भाषा वैज्ञानिक भाषा और बोली के विवाद को पाठ्यक्रमों में पढ़ाए जाते रहे तर्कों के आलोक में नहीं देखते। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के विद्यार्थी रहे स्लोवेनिया के ल्जूब्लजाना विश्वविद्यालय में भाषा विज्ञान के प्रोफेसर अरुण प्रकाश मिश्र बोली और भाषा के पारंपरिक तर्क को सिरे से खारिज करते हैं। उनका मानना है कि दुनिया में आज तक न कोई भाषा बोली बनी है और न बनेगी। उनका कहना है कि बोली से भाषा बनती है न कि भाषा से बोली। अपने तर्क को साबित करते हुए वे कहते हैं कि संस्कृत कुरु-प्रदेश की कौरवी बोली (कुरु-प्रदेश में बोली जाने वाली बोली) से भाषा बनी, हिंदी खड़ी बोली से भाषा बनी।
वैसे भाषा वैज्ञानिक मानते हैं कि भाषा का विकास राजनीतिक-प्रशासनिक और व्यापारिक कारणों से होता है। अगर हिंदी का भी व्यापक प्रसार हो रहा है तो उसकी बड़ी वजह राजनीतिक-प्रशासनिक और व्यापारिक केंद्र हैं। अरुण प्रकाश मिश्र के मुताबिक इस प्रक्रिया को न रोका जा सकता है और न बढ़ाया जा सकता है। उनके मुताबिक, हिंदी की सभी बोलियां अब भाषा बन चुकी हैं। उनकी अब अपनी राष्ट्रीयताएं हैं। दिल्ली-आगरा की खड़ी बोली की भाषा लघुजाति के स्तर को पार कर महाजाति बनने की प्रक्रिया में है। भाषा को लेकर जो अकुलाहट-बौखलाहट-चरमराहट दिखाई दे रही है वह इसी की प्रतिक्रिया है। आठवीं अनुसूची में अपनी-अपनी भाषाओं को शामिल कराने की जो व्यग्रता दिख रही है उसकी असल वजह राजनीति है। जब छोटी बोलियों और समूहों की भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल कर लिया गया तो बड़े समूहों को लगा कि वे उपेक्षित हो रहे हैं। भोजपुरी को लेकर संसद तक में उठने वाली मांग को इसी संदर्भ में समझा जाना चाहिए। आज का भोजपुरीभाषी समाज अगर आंदोलित है या आठवीं अनुसूची में अपनी भाषा को सम्मिलित कराने की मांग कर रहा है तो इसकी बड़ी वजह यह है कि अब भारत में रहने वाला भोजपुरी समाज भी जागरूक हुआ है। वह पहले की तुलना में समृद्ध हुआ है और अपनी राजनीतिक ताकत को समझने लगा है। हालांकि अपने आधार वाले इलाकों में अपनी भाषा को स्थापित करने को लेकर इस समुदाय में वैसी जागरूकता नजर नहीं आ रही है। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि वह अपने समुदाय में राष्ट्रीयता का सबसे बड़ा अलंबरदार ही नहीं, पैरोकार भी है। इसलिए ऐसा हर कदम उसे राष्ट्रीयता बोध के खिलाफ नजर आता है। लेकिन जब यही समुदाय दिल्ली, कोलकाता और मुंबई जैसे महानगरों में कमाने-खाने जाता है और वहां खुद के साथ नाइंसाफी होते देखता है तो जागरूक होता है। भोजपुरी, अंगिका, बज्जिका, ब्रज, राजस्थानी आदि को आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने को लेकर उठी मांग को इन्हीं संदर्भों में देखा-समझा जा सकता है।
वोट बैंक की राजनीति ने भाषाओं को भी उनके अस्मिताबोध से जब परिचित कराया तो ऐसी मांगें उठनी ही थीं। लेकिन आठवीं अनुसूची में शामिल होने के बाद भी कुछ भाषाओं को छोड़ दें तो किसी का खास विकास होता नजर नहीं आ रहा है। जब हिंदी में ही लेखन के दम पर जीने की उम्मीद नहीं की जा सकती तो छोटी भाषाओं को लेकर ऐसी उम्मीद बेमानी है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि हिंदी को लेकर ही अस्मिताबोध को ठीक उसी अंदाज में जगाया जाए जिस तरह गांधी जी की अगुआई में आजादी के रणबांकुरों ने जगाया था। गांधी जी को शायद आशंका थी कि आगे चलकर देश में भाषाओं को लेकर सांप्रदायिकता का खेल खेला जा सकता है। शायद इसीलिए उन्होंने इंदौर के हिंदी साहित्य सम्मेलन के मंच से कहा था, ‘हिंदी वह भाषा है जिसे हिंदू और मुसलमान दोनों बोलते हैं और जो नागरी अथवा फारसी लिपि में लिखी जाती है। यह हिंदी संस्कृतमयी नहीं है, न ही वह एकदम फारसी अल्फाज से लदी हुई है।’ उन्होंने अदालती कामकाज में हिंदी के प्रयोग की जोरदार पैरवी करते हुए कहा था, ‘हमारी कानूनी सभाओं में भी राष्ट्रीय भाषा द्वारा कार्य चलना चाहिए। हमारी अदालतों में राष्ट्रीय भाषा और प्रांतीय भाषाओं का जरूर प्रचार होना चाहिए।’ इंदौर हिंदी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए गांधी जी ने हिंदी और स्थानीय भाषाओं को स्वराज के अभियान से जोड़ दिया था। उन्होंने कहा था, ‘मेरा नम्र लेकिन दृढ़ अभिप्राय है कि जब तक हम हिंदी को राष्ट्रीय दर्जा और अपनी-अपनी प्रांतीय भाषाओं को उनका योग्य स्थान नहीं देंगे तब तक स्वराज की सब बातें निरर्थक हैं।’
इसी क्रम में हिंदी को लेकर चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के विचारों को भी जान लेना जरूरी है जिन्होंने राजभाषा के रूप में एक समय हिंदी का विरोध किया था। बाद में राजगोपालाचारी ने खुद भी 1956-57 में यह माना कि हिंदी भारत के बहुमत की भाषा है और यह राष्ट्रीय भाषा होने का दावा कर सकती है। इतना ही नहीं, उन्होंने भविष्य में हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा होना निश्चित माना था। ऐसा कहते वक्त राजगोपालाचारी ने सुझाव दिया था कि भारत के सभी भागों में सारी शिक्षा का एक उद्देश्य हिंदी का पूर्ण ज्ञान भी होना चाहिए और यह आशा प्रकट की थी कि संचार व्यवस्था और वाणिज्य की प्रगति निश्चय ही यह कार्य संपन्न करेगी।
दरअसल, गांधी जी हिंदी को स्थापित करने के जरिये मैकाले की उस सोच का जवाब देने की कोशिश कर रहे थे जिसे उसने दो फरवरी 1865 को ब्रिटिश संसद में दिए भाषण में जाहिर किया था। तब मैकाले ने कहा था, ‘मैंने पूरे भारत के कोने-कोने में भ्रमण करके एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं देखा जो या तो भिखारी हो या फिर कमजोर हो। इस देश में ऐसी समृद्धि, शिष्टता और लोगों में इतनी क्षमता देखी है कि मैं यह सोच भी नहीं सकता कि हम इस देश पर तब तक राज नहीं कर पाएंगे जब तक हम इस देश की रीढ़ की हड्डी न तोड़ दें, जो इस देश के अध्यात्म और संस्कृति में निहित है। अत: यह मेरा प्रस्ताव है कि हम उनकी (भारतीयों की) पुरानी और प्राचीन शिक्षा प्रणाली को ही बदल दें। यदि भारतीय यह सोचने लगें कि विदेशी और अंग्रेजी ही श्रेष्ठ है और हमारी (अंग्रेजों की) संस्कृति उच्चतर है तो वे अपना आत्म सम्मान, अपनी पहचान और अपनी संस्कृति को ही खो देंगे। तब वे वह बन जाएंगे जो हम उन्हें वास्तविकता में बनाना चाहते हैं यानी एक गुलाम देश।’
संविधान के अनुच्छेद 343(3) और कांग्रेस दल की कार्यसमिति के 2 जून 1965 के भाषा प्रस्ताव के चलते हिंदी अपना उचित मुकाम हासिल नहीं कर पाई है। कांग्रेस कार्यसमिति के प्रस्ताव ने हिंदी को एक तरह से बांध दिया। जिसके तहत यह तय हुआ कि एक भी राज्य अगर हिंदी का विरोध करेगा तो हिंदी राजभाषा के पद पर आसीन नहीं होगी। संविधान के अनुच्छेद 343(3) के तहत हिंदी को संविधान लागू होने के पंद्रह वर्षों में अंग्रेजी को हटाकर उस मुकाम तक पहुंच जाना था, जहां उसे पहुंचाना था। ऐसा करते वक्त हिंदी का संविधान सभा में प्रस्ताव रखने वाले कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के उस विचार को भी किनारे रख दिया गया जिसमें उन्होंने कहा था, ‘हिंदी ही हमारे राष्ट्रीय एकीकरण का सबसे शक्तिशाली और प्रधान माध्यम है। यह किसी प्रदेश या क्षेत्र की भाषा नहीं बल्कि समस्त भारत की भारती के रूप में ग्रहण की जानी चाहिए।’ इस दौरान नेताजी सुभाषचंद्र बोस की उस घोषणा की भी परवाह नहीं की गई जिसके मुताबिक, हिंदी के विरोध का कोई भी आंदोलन राष्ट्र की प्रगति में बाधक है।
बेशक आठवीं अनुसूची में कई भाषाओं को शामिल करने की बढ़ती मांग को लेकर मशहूर साहित्यकार, भाषाविद् और प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी सीताकांत महापात्र की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई थी। उस समिति ने अपनी रिपोर्ट दे दी है। लेकिन उस पर भी कार्यवाही नहीं हो पाई है। अव्वल तो आज भी सबसे ज्यादा जरूरी है कि भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की बजाय इस बात पर जोर दिया जाए कि हिंदी ही राजनीति और कारोबार की ताकत बने। वैसे भारत की करीब 72 फीसद ग्रामीण जनता तक फैले बाजार की ओर बहुराष्ट्रीय कंपनियां बढ़ रही हैं। उनकी कोशिश अपने उत्पादों को इस विशाल बाजार तक पहुंचाने की है। गांवों तक पहुंचने के लिए उनके सामने एक मात्र जरिया स्थानीय भाषाएं ही होंगी। उनमें निश्चित तौर पर हिंदी का विन्यास बड़ा होगा और यह हिंदी के विस्तार का सहज जरिया भी होगा। बेहतर तो यह होगा कि आठवीं अनुसूची में शामिल होने के विवाद को परे रख कर हिंदी यानी भाषाओं के समुच्चय के विस्तार को लेकर रणनीति बनाई जाए। हिंदी के कल्याण की दिशा में यह बेहतर कदम साबित होगा।