निशा शर्मा
पद्मावती अब कोई ऐतिहासिक किरदार या मलिक मोहम्मद जायसी की काव्यकृति की नायिका ही नहीं रही बल्कि काव्य से निकलकर पर्दे पर उतरने को बेताब है। बड़े पर्दे पर आने से पहले ही फिल्म को लेकर पूरे देश में घमासान मचा हुआ है। कई राज्य इसकी रिलीज पर रोक लगा चुके हैं। घमासान की असल वजह पद्मावती और अल्लाउद्दीन के बीच के कुछ दृश्यों को बताया जा रहा है। फिल्म का विरोध करने वालों का कहना है कि पद्मावती एक ऐतिहासिक किरदार है। ऐसा किरदार जो अपने स्वाभिमान, मान और सम्मान के लिए लड़ा। ऐसे में अगर फिल्मकार उन्हें किसी भी तरह से किसी परपुरुष के साथ स्क्रीन पर दिखाते हैं, या ऐतिहासिक तथ्यों से तोड़ मरोड़ करते हैं तो वह उनकी संस्कृति और सम्मान के खिलाफ होगा। वहीं दूसरी ओर फिल्म के निर्देशक संजय लीला भंसाली का कहना है कि फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है जिससे लोगों की भावनाएं आहत हों।
असल मुद्दा फिल्म के ऐतिहासिक या साहित्यिक होने का है। कुछ विद्वानों का कहना है कि पद्मावती ऐतिहासिक किरदार हैं तो कुछ का कहना कि वह एक कवि की कल्पना मात्र हैं। ऐसे में हमने साहित्य के विद्वानों की कृतियों के आधार पर इसका विश्लेषण करने की कोशिश की है ताकि हम आपको बता सकें कि साहित्य पद्मावती और उससे जुड़े तथ्यों के बारे में क्या कहता है। पद्मावती का सबसे पहले जिक्र साहित्य में अगर किसी ने पूर्णत: किया है तो वह सूफी संत मलिक मोहम्मद जायसी की कृति पद्मावत में दिखता है। सूफी कवियों में जायसी एक सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। साहित्य जायसी को ‘प्रेम की पीर का प्रचारक’ बताता है । हिन्दी संसार को पद्मावत से परिचित कराने का श्रेय आचार्य रामचंद्र शुक्ल को दिया जाता है। सूफी प्रेमाख्यानों का क्रमबद्ध अध्ययन यहीं से प्रारम्भ हुआ। शुक्ल जी ने जायसी ग्रंथावली में पद्मावत और जायसी की अन्य प्राप्त कृतियों को संपादित कर एक आलोचनात्मक भूमिका भी दी। इस भूमिका में उन्होंने पद्मावत के ऐतिहासिक आधार, प्रेम पद्धति, वस्तु वर्णन, मत और सिद्धान्त पर विचार किया।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल से पहले इस ओर कोई गंभीर प्रयास नहीं हुए थे। इसका जिक्र खुद शुक्ल अपनी पुस्तक ‘जायसी ग्रंथावली’ में प्रथम संस्करण का वक्तव्य लिखते हुए करते हैं- ‘इस ग्रंथ (पद्मावत) के चार संस्करण मेरे देखने में आए हैं – एक नवलकिशोर प्रेस का, दूसरा पं. रामजसन मिश्र संपादित काशी के चंद्रप्रभा प्रेस का, तीसरा कानपुर के किसी पुराने प्रेस का फारसी अक्षरों में और म. प. पं. सुधाकर द्विवेदी और डॉक्टर ग्रियर्सन संपादित एशियाटिक सोसाइटी का जो पूरा नहीं, तृतीयांश मात्र है। इनमें से प्रथम दो संस्करण तो किसी काम के नहीं। एक चौपाई का भी पाठ शुद्ध नहीं, शब्द बिना इस विचार के रखे हुए हैं कि उनका कुछ अर्थ भी हो सकता है या नहीं। कानपुरवाले उर्दू संस्करण को कुछ लोगों ने अच्छा बताया। पर देखने पर वह भी इसी श्रेणी का निकला। उसमें विशेषता केवल इतनी ही है कि चौपाइयों के नीचे अर्थ भी दिया हुआ दिखाई पड़ता है।’
आचार्य रामचंद्र शुक्ल पद्मावत को पहला ऐसा काव्य मानते हैं जिसमें पद्मावती, रत्नसेन और अल्लाउद्दीन का जिक्र है, क्योंकि पद्मावत सन् 1520 के आसपास लिखी गई। इससे पहले इन किरदारों को एक साथ लेकर कुछ नहीं लिखा गया था। शुक्ल लिखते हैं – पद्मावत का निर्माणकाल कवि ने इस प्रकार दिया है-
सन नव सै सत्ताइस अहा। कथा अरंभ बैन कवि कहा।
इसका अर्थ होता है पद्मावत की कथा के प्रारंभिक वचन (अरंभ बैन) कवि ने सन् 927 हिजरी (सन् 1520 ई. के लगभग) में कहे थे। हालांकि पद्मावती को लेकर इतिहासकार मानते हैं कि 1303 में चितौड़ की घेराबंदी होने के दौरान पद्मावती ने अपने समुदाय को लेकर जौहर किया था। यानी कि करीब 200 साल बाद पद्मावत की रचना की गई है। उस समय यह कहानी लोक कथाओं और इतिहास के पन्नों में दर्ज थी जिसे जायसी ने अपनी कृति में उकेरा हालांकि पद्मावत को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल पूरी तरह से ऐतिहासिक करार नहीं देते हैं।
शुक्ल अपनी पुस्तक ‘जायसी ग्रंथावली’ में पद्मावत के कथानक के दो आधार बताते हैं। उनका कहना है – ‘पद्मावत की सम्पूर्ण आख्यायिका को हम दो भागों में बांट सकते हैं- पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध। रत्नसेन की सिंहलद्वीप यात्रा से लेकर पद्मिनी को लेकर चितौड़ लौटने तक हम कथा का पूर्वार्द्ध मान सकते हैं और राघव के निकाले जाने से लेकर पद्मिनी के सती होने तक उत्तरार्द्ध। ध्यान देने की बात है कि पूर्वार्द्ध तो बिल्कुल कल्पित कहानी है और उत्तरार्द्ध ऐतिहासिक आधार पर है। रत्नसेन, पद्मिनी, गोरा-बादल के पीछे ऐतिहासिक परम्परा है, किन्तु हीरामन तोते की कथा, सिंहल द्वीप की यात्रा, पद्मिनी का उस द्वीप का निवासिनी होना, रत्नसेन का योगी बन जाना, शिव -पार्वति आदि की कृपा से सफलता प्राप्त करना अनेक ऐसी बातें हैं, जो इसकी ऐतिहासिकता को पुष्ट नहीं करती। पद्मावत की मुख्य कथा रत्नसेन और पद्मावती के प्रेम से संबंधित है। उत्तरार्द्ध में चित्तौड़ से निर्वासित होकर जब राघव चेतन दिल्ली पहुंचा तो उसने अलाउद्दीन से पद्मावती के रूप की प्रशंसा की, जिससे बादशाह ने उसे प्राप्त करने की आकांक्षा से चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। परिणामस्वरूप रत्नसेन बंदी बना लेकिन गोरा बादल ने उसे भयंकर युद्ध करके छुड़ा लिया। किन्तु तभी कुम्भनेर के राजा देवपाल की कुचेष्टा के कारण रत्नसेन को देवपाल पर आक्रमण करना पड़ा। पर युद्ध में रत्नसेन घायल हुआ और मर गया। उसकी दोनी पत्नियां नागमती और पद्मावती सती हो गर्इं।’
हालांकि जैसा पद्मावत में बताया गया है उसके विपरीत प्रचलित लोक कथाओं के मुताबिक रत्नसेन को अल्लाउद्दीन ने मारा था। साथ ही पद्मावती सती नहीं हुई थी, पद्मावती ने सोलह हजार क्षत्राणियों के साथ जौहर किया था। इतिहासकारों के मुताबिक जहां जौहर हुआ था वह किला आज भी राजस्थान में मौजूद है। शुक्ल दोनों बातों में भिन्नता का कारण बताते हुए लिखते हैं, ‘जायसी ने रत्नसेन का मुसलमानों के हाथ से मारा जाना न लिख कर जो देवपाल के साथ द्वंद्वयुद्ध में कुंभलनेरगढ़ के नीचे मारा जाना लिखा है, उसका आधार शायद विश्वासघाती के साथ बादशाह से मिलने जाने वाला वह प्रवाद है, जिसका उल्लेख आईने अकबरीकार ने भी किया है।’
कई इतिहासकार रत्नसेन को भी कल्पना बताते हैं। उनका कहना है कि रत्नसेन नाम का कोई राजा ही नहीं हुआ, रत्नसेन की जगह भीमसेन राजा हुए जबकि आचार्य रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं- ‘जायसी ने जो ‘रत्नसेन’ नाम दिया है, यह उनका कल्पित नहीं है, क्योंकि प्राय: उनके समसामयिक या थोड़े ही पीछे के ग्रंथ ‘आईने अकबरी’ में भी यही नाम आया था। यह नाम अवश्य इतिहासज्ञों में प्रसिद्ध था। जायसी को इतिहास की जानकारी थी। वहीं अपनी कथा को काव्योपयोगी स्वरूप देने के लिए ऐतिहासिक घटनाओं के ब्योरों में कुछ फेरफार करने का अधिकार कवि को बराबर रहता है। जायसी ने भी इस अधिकार का उपयोग कई स्थानों पर किया है। सबसे पहले तो हमें राघवचेतन की कल्पना मिलती है। इसके उपरांत अल्लाउद्दीन के चित्तौड़गढ़ घेरने पर संधि की जो शर्त (समुद्र से पाई हुई पांच वस्तुओं को देने की) अल्लाउद्दीन की ओर से पेश की गई वह भी कल्पित है। इतिहास में दर्पण के बीच पद्मिनी की छाया देखने की शर्त प्रसिद्ध है। पर दर्पण में प्रतिबिंब देखने की बात का जायसी ने आकस्मिक घटना के रूप में वर्णन किया है। इतना परिवर्तन कर देने से नायक रत्नसेन के गौरव की पूर्ण रूप से रक्षा हुई है। पद्मिनी की छाया भी दूसरे को दिखाने पर सम्मत होना रत्नसेन ऐसे पुरुषार्थी के लिए कवि ने अच्छा नहीं समझा। तीसरा परिवर्तन कवि ने यह किया है कि अल्लाउद्दीन के शिविर में बंदी होने के स्थान पर रत्नसेन का दिल्ली में बंदी होना लिखा है।’
पद्मावती को राजस्थान के लोग एक रानी के तौर पर जानते हैं। वहां के लोगों का कहना है कि उनके स्वाभिमान की कथाएं उन्होंने अपने पूर्वजों से भी सुनी हैं, हालांकि आचार्य राम चन्द्र शुक्ल पद्मावती के सिंहल की होने पर सवाल उठाते हैं- ‘पद्मिनी क्या सचमुच सिंहल की थी? पद्मिनी सिंहलद्वीप की हो नहीं सकती। यदि ‘सिंहल’ नाम ठीक मानें तो वह राजपूताने या गुजरात का कोई स्थान होगा। न तो सिंहलद्वीप में चौहान आदि राजपूतों की बस्ती का कोई पता है, न इधर हजार वर्ष से कूपमंडूक बने हुए हिंदुओं के सिंहलद्वीप में जा कर विवाह संबंध करने का। दुनिया जानती है कि सिंहलद्वीप के लोग (तमिल और सिंहली दोनों) काले होते हैं। यहां (पद्मावत) पर पद्मिनी स्त्रियों का पाया जाना गोरखपंथी साधुओं की कल्पना है।’
वहीं आलोचक विजय देव नारायण साही आचार्य शुक्ल की इस बात से सहमत नजर नहीं आते। वह अपनी पुस्तक ‘जायसी’ में लिखते हैं- ‘सिंहल अगर कल्पनालोक था तो जायसी ने उसके मुकाबले दिल्ली लोक की रचना की। दिल्ली इतिहास लोक की दिल्ली है। अल्लाउद्दीन गंधर्वसेन से कम प्रतापी राजा नहीं है। कुछ अधिक ही है। गंधर्वसेन की प्रतापी सेना दीवार पर चित्रित आभूषण की तरह जगमगाती सेना है लेकिन अल्लाउद्दीन की सेना वस्तु जगत की सेना है जो गांव उजाड़ती है, दुश्मनों के दांत खट्टे करती है। गढ़ों को चूर-चूर करती है। वह सेना काव्यात्मक अभिप्रायों की सेना नहीं है, वास्तविक सेना है।’
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जायसी की कृति पद्मावत में ‘पद्मावती’ के होने को लेकर संशय जाहिर करते हैं। शुक्ल ‘जायसी ग्रंथावली’ में लिखते हैं- ‘पद्मावत’ की पूर्वार्द्ध कथा के संबंध में एक और प्रश्न यह होता है कि वह जायसी द्वारा कल्पित है अथवा जायसी के पहले से कहानी के रूप में जनसाधारण के बीच प्रचलित चली आती है। उत्तर भारत में, विशेषत: अवध में, ‘पद्मिनी रानी और हीरामन सूए’ की कहानी अब तक प्राय: उसी रूप में कही जाती है जिस रूप में जायसी ने उसका वर्णन किया है। जायसी इतिहासविज्ञ थे इससे उन्होंने रत्नसेन, अल्लाउद्दीन आदि नाम दिए हैं, क्योंकि कहानी कहनेवाले नाम नहीं लेते हैं; केवल यही कहते हैं कि ‘एक राजा था’, ‘दिल्ली का एक बादशाह था’, इत्यादि। यह कहानी बीच बीच में गा-गा कर कही जाती है। जैसे, राजा की रानी जब दर्पण में अपना मुंह देखती है तब सूए से पूछती है – देस देस तुम फिरौ हो सुअटा। मोरे रूप और कहु कोई॥
सूआ उत्तर देता है – काह बखानौं सिंहल के रानी। तोरे रूप भरै सब पानी॥
हालांकि शुक्ल पद्मावती के ऐतिहासिक किरदार होने को पूरी तरह से नकार नहीं पाए। वह लिखते हैं- ‘इस संबंध में हमारा अनुमान है कि जायसी ने प्रचलित कहानी को ही ले कर सूक्ष्म ब्योरों की मनोहर कल्पना कर के, इसे काव्य का सुंदर स्वरूप दिया है। इस मनोहर कहानी को कई लोगों ने काव्य के रूप में बांधा।’
एक ओर जहां शुक्ल पद्मावती के किरदार को अलौकिकता से जोड़ते हैं वहीं विजयनारायण साही मानते हैं कि पद्मावती जायसी के समय समाज की लोक कथाओं में विद्यमान थीं। इसी चीज को स्पष्ट करते हुए वह कहते हैं कि ‘पद्मावती के रूप, स्वभाव और व्यवहार में कहीं-कहीं असाधारणता जरूर आती है, लेकिन वह प्रेमिका, पत्नी और सौत के रूप में अधिकतर साधारण स्त्री की तरह व्यवहार करती है। यही स्थिति रत्नसेन तथा नागमती की है। पद्मावत का प्रेम असाधारण जरूर है, लेकिन आलौकिक नहीं। वह लोककथाओं से लिया हुआ है।’
शुक्ल कहते हैं कि जायसी से पहले पद्मावती को लेकर कुछ स्पष्ट नहीं लिखा गया। जो भी लिखा गया पद्मावत की रचना के बाद ही लिखा गया-‘हुसैन गजनवी ने ‘किस्सए पद्मावत’ नाम का एक फारसी काव्य लिखा। सन् 1652 ई. में रायगोविंद मुंशी ने पद्मावती की कहानी फारसी गद्य में ‘तुकफतुल कुलूब’ के नाम से लिखी। उसके पीछे मीर जियाउद्दीन ‘इब्रत’ और गुलामअली ‘इशरत’ ने मिल कर सन् 1769 ई. में उर्दू शेरों में इस कहानी को लिखा। यह कहा जा चुका है कि मलिक मुहम्मद जायसी ने अपनी पद्मावत सन् 1520 ई. में लिखी थी।’
फिर भी साहित्य में आलोचकों ने आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के जायसी की कृति को अलौकिकता से जोड़ने पर सवाल उठाए हैं। आलोचक विजय नारायण साही अपनी पुस्तक ‘जायसी’ में पद्मावत को शुद्ध कविता कहते हैं। वह लिखते हैं- ‘जायसी ऐसे कवि हैं जिन्हें बैकुंठ प्रेम की तलाश नहीं है, वो ऐसा प्रेम चाहते हैं, जो प्रेम करने वाले मनुष्य को ही बैकुंठी बना दे। पद्मावत की कविता लोकजीवन का व्यापक आधार है, वहीं से जायसी को यह प्रेमगाथा मिली है।’
विजय नारायण साही का मानना है कि ‘पद्मावत को लिखने के लिए जायसी को लोककथाओं से प्रेरणा मिली थी। पद्मावत का आधार सच्ची घटनाएं हैं। लोककथा की एक विशेषता है कि उसमें लौकिक और अलौकिक की सहज एकता होती है, यही स्थिति पद्मावत की कथा में भी है। पद्मावत की संरचना में लोकगीतों की भावभूमि और संवादधर्मिता जगह-जगह मौजूद है। पद्मावत का अंतर्लोक भी लोक अनुभवों से भरा हुआ है। यहां तक कि उसके काल्पनिक रहस्यलोक अर्थात् सिंहलद्वीप में भी बहुत कुछ वैसा ही है, जैसा जायसी के समय के समाज में था। उदाहरण के लिए सिंहलद्वीप के बाजार का वर्णन पढ़ा जा सकता है।’
इन्द्र कुमार नारंग अपनी पुस्तक ‘पद्मावत का अनुशीलन’ में लिखते हैं कि ‘पद्मावत के सम्बन्ध में कुछ ऐतिहासिक मान्यताएं चली आ रही हैं जो इतिहास सम्मत नहीं। जिन्हें निराधार भी कहा जा सकता है। मेरी समझ में पद्मावत के आख्यान के आधार के निर्णय में अब तक भूल की गई है, उसका पूर्वांश पहल लोक कथा में प्रचलित कथा पर निर्भर मानने की अपेक्षा मुझे वह संस्कृत के कई नाटकों, पुराणों आदि से प्रेरित जान पड़ा। इसके लिए मैंने कादम्बरी, रत्नावली, कल्कि पुराण, नैषध-चरित, कालिदास के ग्रंथ तीर्थ कल्प, पुरुष परीक्षा, प्रबन्ध-चिन्तामणि, वाल्मीकि रामायण आदि ग्रंथ टटोले हैं उनमें रत्नसेन और पद्मावती विवाह तक के प्रसंगों से सादृश्य पाया है। इससे यही सिद्ध होता है कि जायसी ने प्रचीन वांड्ग्मय का आशय लेकर जिस कहानी की बात की वही अवध में प्रचलित उस आख्यान का आधार हो गई।’
आलोचक विजयनारायण साही अपनी पुस्तक जायसी में लिखते हैं- ‘शुक्ल जी ने उतरार्ध को इतिहास-वृत कहा है और उसकी तुलना में पृथ्मार्द्ध को को कल्पना बताया है। शुक्ल जी ने टॉड की ‘राजस्थान गाथा’ को आधार मानकर उत्तरार्द्ध की घटनाओं को इतिहासवृत्त माना था। टॉड की राजस्थान गाथाएं इतिहास नहीं हैं। इतिहासकार अब लगभग सहमत हैं कि चितौड़ की पद्मनी और गोरा बादल आदि की पूरी कथा जायसी ने इतिहास से नहीं ली। अधिक संभावना यही है कि इतिहासकारों ने जायसी से ली। जायसी के पहले के फारसी वृत्तांत लेखकों जैसे अमीर खुसरो, जियाउद्दीन बर्नी और इसाकी आदि ने अल्लाउद्दीन द्वारा चितौड़ पर आक्रमण और चितौड़ विजय का वृत्तांत तो दिया है परन्तु पद्मिनी का कोई उल्लेख नहीं किया है। अकबर कालीन फरिश्ता ने अवश्य पद्मिनी की कथा और गोरा बादल की चतुराई से अल्लाउद्दीन की कैद से छुटकारे की कथा लिखी है। परन्तु फरिश्ता जायसी के बाद का लेखक है और स्पष्टत: कथा की रूपरेखा उसे जायसी से या सुनी-सुनाई रूप में मिली। राजस्थान में लोककथाओं के रूप में जो गोरा बादल या पद्मिनी की ख्यातें मिलती हैं, वे भी जायसी के पहले की नहीं हैं। इन सभी बातों पर इतिहासकार प्रोफेसर कानूनगो ने अपने ‘लीजेण्ड आॅफ पद्मिनी’ नामक लिखित व्याख्यान में अच्छी तरह विचार किया और इसी नतीजे पर पहुंचे कि गोरा बादल आदि का समस्त वृत्त जायसी ने स्वंय कल्पित किया इस कथा को इतिहास मानना भूल होगी।’
हालांकि विजयनारायण साही जिस टॉड राजस्थान को ऐतिहासिक नहीं मानते उसी के आधार पर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने पद्मावत में ऐतिहासिक तत्व ढूंढा है। ऐतिहासिक अंश के स्पष्टीकरण के लिए हम टॉड राजस्थान में दिया हुआ चितौड़गढ़ पर अल्लाउद्दीन की चढ़ाई और पद्मिनी के जिक्र का वृत्तांत बताते हैं- ‘विक्रम संवत 1331 में लखनसी चित्तौर के सिंहासन पर बैठा। वह छोटा था। इससे इसका चाचा भीमसी ही राज्य करता था। भीमसी का विवाह संहल के चौहान राजा हमीर शंक की कन्या पद्मिनी से हुआ जो रूप गुण में अद्वितय थी। उसके रूप की ख्याति सुनकर दिल्ली के बाशाह अल्लाउद्दीन ने चित्तौरगढ़ पर चढ़ाई की।’
उदयपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. राम दशरथ शर्मा ने डॉ. कानूनगो से असहमति व्यक्त करते हुए रत्नसिंह की ऐतिहासिकता स्थापित करते हुए कुम्भलगढ़ में उत्कीर्ण शिलालेख का उल्लेख किया। वह शिलालेख राणा कुंभा का है। इसका समय सन 1460 है। स्पष्टत: यह जायसी से पहले का है। लेकिन इस शिलालेख से इतना ही ज्ञात होता है कि अल्लाउद्दीन के आक्रमण से पहले चितौड़ के शासक अमरसिंह थे। आक्रमण के समय उनके पुत्र रत्नसिंह थे।
डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने पद्मिनी और गोरा बादल की कथा को जायसी के पहले आती हुई लोक कथा के रूप में माना है। परन्तु उन्होंने इस अनुमान के लिए कोई आधार प्रस्तुत नहीं किया। इतिहासकार डॉ. राम दशरथ शर्मा ने इस सम्बन्ध में नारायण दास एवं रतनरंग द्वारा रचित ‘छिताई वार्ता’ का साक्ष्य दिया है। इसमें अल्लाउद्दीन द्वारा कहा एक छंद आता है-
यौं बोले दिल्ली का धनी।
मैं चितौर सुनी पद्मिनी।।
बांध्यो रतनसेन मैं जाइ।
लैगो बादल ताहि छुड़ाई।।
डॉ. राम दशरथ शर्मा ने माना की ‘छिताई वार्ता’ जायसी से पहले लिखी गई है। जिसमें पद्मिनी (पद्मावती) का जिक्र भी है और रत्नसिंह का भी।