आईआईएम, अहमदाबाद से सेवानिवृत्त और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म और नेशनल इलेक्शन वॉच जैसी संंस्थाओं के संस्थापक सदस्य प्रोफेसर जगदीप छोकर से विशेष संवाददाता सुनील वर्मा ने राजनीति के अपराधीकरण व आपराधिक रिकार्ड वाले नेताओें को मंत्री बनाने की राजनीतिक दलों की सोच पर बात की।
क्या वजह है कि केंद्र व राज्यों की सरकारों में बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जिनका आपराधिक इतिहास है?
एक स्वस्थ लोकतंत्र में विभिन्न विचारधाराओं की जरूरत होती है। लोकतंत्र में लोगों को यह अधिकार है कि अपनी पंसद से किसी का चुनाव करें। लेकिन यह दुर्भाग्य की बात है कि संसद और विधानसभाओं में ज्यादातर वही कानून बनाने वाले हैं जिन पर कानून तोड़ने के आरोप हैं। दरअसल, यह सिलसिला उस समय शुरू हुआ था जब ईवीएम की जगह बैलेट पेपर से वोटिंग होती थी। तब सभी राजनीतिक दल ऐसे लोगों कोे चुनाव मैदान में उतराते थे जो दबंग किस्म के होते थे और कमजोर लोगों को डरा धमका कर या उनके बदले वोट डलवा कर ऐसे उम्मीदवारों को जिताते थे। वक्त के साथ राजनीतिक दलों को इसमें फायदा दिखा तो उन्होंने हर बार पहले से ज्यादा दबंग लोगों को टिकट देना शुरू कर दिया। आज बैलेट पेपर की जगह ईवीएम मशीन ने तो ले ली लेकिन राजनीतिक दलों की दबंगों को चुनाव में टिकट देने की सोच नहीं बदली। अब तो इसकी जगह बाहुबलियों ने ले ली है। बाहुबली यानी ऐसे अपराधी जिनका डंका स्थानीय नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर बजता है। जब बड़ी संख्या में चुनाव जीतने वाले आपराधिक पृष्ठभूमि के होंगे तो जाहिर है कि ज्यादातर मंत्री भी उन्हीं में से बनेंगे।
तो क्या समझें कि राजनीति के अपराधीकरण और इसमें पारदर्शिता की जो बातें राजनीतिक दल करते है वो फरेब है?
राजनीति में बदलाव की बात तो बहुत दूर है। राजनीतिक दल अगर अपनी पार्टी में लोकतंत्र कायम कर लें तो वही गनीमत है। आज किसी से नहीं छिपा है कि लोकतांत्रिक ढंग से मुख्यमंत्री का चुनाव करने के नाम पर राजनीतिक दल किस अलोकतांत्रिक तरीके से मुख्यमंत्री थोपते हैं। पार्टी में कोई भी तबका कभी इसके खिलाफ आवाज नहीं उठाता। फिर कैसे उम्मीद करें कि सत्ता हासिल करने के लिए राजनीतिक दल आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को चुनाव में टिकट नहीं देंगे। आज देश में एक भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं है जिसमें अपराधियों की भरमार न हो। हमारी रिपोर्ट से ही साफ है कि किसी भी राज्य में ऐसा कोई राजनीतिक दल नहीं है जिसमें आपराधिक पृष्ठभूमि के विधायक या सांसद न हों। कोई ऐसा राज्य नहीं बचा जिसमें दागी नेता मंत्री पद पर विराजमान न हों। अपराधियों को तो वे खुद से दूर कर नहीं सकते क्योंकि अब यह राजनीतिक दलों की मजबूरी और सत्ता में आने का चलन बन गया है।
क्षेत्रीय दलों की मजबूरी हो सकती है लेकिन बडेÞ राष्ट्रीय दलों के लिए कैसी मजबूरी?
कोई भी राजनीतिक दल सीधे तौर पर स्वीकार नहीं करता कि उसने अपराधियों कोे चुनाव में टिकट दिया है। जब भी उनसे सवाल किया जाता है तो वे सीधे तौर पर कहते हैं कि उन्होंने विपक्षी पार्टी के आपराधिक उम्मीदवार को हराने के लिए मजबूरी में दबंग उम्मीदवार को टिकट दिया है। मतलब राजनीतिक दलों ने एक ऐसा बहाना तैयार कर लिया है कि वे इस सवाल को विपक्षी पार्टी पर आरोप लगाकर दूसरी तरफ मोड़ देते हैं। सच यह है कि आज भी दूरदराज के ऐसे बहुत से इलाके हैं जहां राष्ट्रीय और क्षेत्रीय सभी दलों को लठैत किस्म के लोगों को चुनाव मैदान में उतारना मजबूरी है। ऐसे लोगों के खिलाफ जब कभी सीधे शरीफ लोगों को कोई दूसरा दल चुनाव लड़ाता है तो अकसर उनके खिलाफ कोई अनहोनी हुई है। ऐसी घटनाओं का संदेश दूर तक जाता है। इसलिए यह एक ऐसा चुनावी कोढ़ बन गया है जिसका इलाज बड़ी राजनीतिक इच्छाशक्ति से ही संभव है।
सभी दल महिलाओं को राजनीति में बडेÞ अवसर देने और महिला सशक्तिकरण की बाते करते हैं तो फिर उन्हें सांसद, विधायक या मंत्री बनाने से इतना क्यों कतराते हैं?
महिला सशक्तिकरण की बातें सिर्फ दिखावा हैं। असल बात यह है कि किसी भी राजनीतिक दल की इसमें रुचि नहीं है। बस आधी आबादी का वोट पाने के लिए सब चुनावी बातें होती हैं। नेताओं पर पुरुषवादी सोच हावी है। वे नहीं चाहते कि महिलाओं का पुरुषों पर आधिपत्य हो। लेकिन अब हालात बदल रहें हैं। आने वाले वक्त में इसमें सुधार होगा लेकिन इसमें अभी समय लगेगा।