पृथक राज्य गठन की मांग ने उठाया सिर

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बार-बार वादा करने के बावजूद सियासी दलों ने आज तक पृथक बुंदेलखंड राज्य के गठन को लेकर रहस्यमयी चुप्पी साध रखी है. विधानसभा चुनाव हो या लोकसभा, हर नेता इलाके की इस दुखती रग पर हाथ जरूर रखता है. लेकिन, इस बार जनता ने ऐसे लोगों को सबक सिखाने की ठान ली है. झांसी की सांसद एवं भाजपा की वरिष्ठ नेता उमा भारती खास तौर पर उसके निशाने पर हैं.

bundelkhandतीन महीने बाद देश में नई सरकार का गठन हो चुका होगा. मौजूदा सरकार दिल्ली की गद्दी पर दोबारा आसीन होगी या विपक्षी दल सत्ता पर काबिज होने में सफल होंगे, इस बात के लिए अगले तीन महीनों में राजनीतिक जंग देखने को मिलेगी. इस सियासी मौसम में बुंदेलखंड में सत्तारूढ़ दल और विपक्षी दलों के सामने एक बड़ा सवाल खड़ा होता दिखाई दे रहा है, जो दोनों के लिए परेशानी का कारण भी बन सकता है. पृथक बुंदेलखंड राज्य का गठन तीन साल में कर देने का दावा करने वाली भाजपा नेता उमा भारती को यह वादा किए लगभग पांच साल हो चुके हैं और पिछले इतने ही समय से वह झांसी की सांसद एवं भारत सरकार में मंत्री हैं. अब जबकि 2019 की सियासी जंग का ऐलान हो चुका है और क्षेत्र में उनकी सक्रियता बढ़ गई है, तो पृथक बुंदेलखंड राज्य गठन के आंदोलन से जुड़े विभिन्न संगठन उनसे जवाब मांग रहे हैं. बुंदेलखंड निर्माण मोर्चा के केंद्रीय अध्यक्ष भानु सहाय कहते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव में झांसी लोकसभा सीट पर बतौर प्रत्याशी उमा भारती ने वादा किया था कि तीन साल के भीतर बुंदेलखंड राज्य बन जाएगा. झांसी की चुनावी जनसभाओं में तब भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी एवं राजनाथ सिंह ने भी उनकी बात पर अपनी मुहर लगाई थी. बकौल सहाय, संतों-साध्वियों का हमारे देश में बहुत सम्मान और उनकी बातों पर यकीन किया जाता है. यही वजह थी कि लोगों ने उमा को जिताकर संसद भेजा और वह केंद्र में मंत्री भी बन गईं. लेकिन, जब वादा निभाने की बारी आई, तो तीनों लोग पीछे हट गए.

दरअसल, बुंदेलखंड राज्य गठन की मांग लगभग तीन दशकों से लगातार जारी है. गौरतलब है कि बुंदेलखंड की बदहाली, बेरोजगारी और पलायन का मुद्दा सियासत के केंद्र में रहा है. देश के सबसे पिछड़े क्षेत्रों में शुमार बुंदेलखंड के मतदाताओं को साधने के लिए केंद्र व प्रदेश सरकारें समय-समय पर विभिन्न पैकेज और योजनाओं की घोषणा करती रही हैं, जिन्होंने कमोबेश पृथक राज्य आंदोलन की धार कुंद करने का काम किया. पैकेज अथवा योजनाओं से बुंदेलखंड के आम लोगों की जिंदगी में भी कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ. साल 2012 के विधानसभा चुनाव में चरखारी विधानसभा सीट से मैदान में उतरीं उमा भारती ने बुंदेलखंड पैकेज में हुए भ्रष्टाचार को चुनावी मुद्दा बनाया और ऐलान किया कि अगर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी, तो इसकी जांच होगी और दोषी अफसर जेल जाएंगे. भाजपा की सरकार तो नहीं बनी, लेकिन वह चरखारी से विधायक जरूर बन गईं. 2012 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले मायावती सरकार ने उत्तर प्रदेश को चार हिस्सों में विभाजित करने का प्रस्ताव विधानसभा से पारित कराया था, जिसमें बुंदेलखंड राज्य भी शामिल था. मायावती ने अपने ऐलान के जरिये एक तरह से बुंदेलखंड मसले पर गेंद तत्कालीन केंद्र सरकार के पाले में डाल दी थी. हालांकि, इस बड़े सियासी ऐलान का उन्हें कोई फायदा नहीं हुआ और वह 2012 का विधानसभा चुनाव हार गईं

इसके बाद उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी सत्ता में आ गई. और, सपा का बुंदेलखंड को लेकर स्टैंड बिल्कुल साफ रहा है, उसने कभी भी छोटे राज्यों का समर्थन नहीं किया. इसलिए पृथक बुंदेलखंड राज्य गठन का मुद्दा सियासत की पिच से आउट हो गया. लेकिन, पृथक राज्य आंदोलन से जुड़े संगठन छिटपुट रूप से अपनी आवाज उठाते रहे. इसी बीच 2014 के लोकसभा चुनाव का सियासी संग्राम सिर पर आ गया. उमा भारती ने एक बार दोबारा इस मसले पर ऐलान किया कि अगर केंद्र में भाजपा नीत एनडीए की सरकार बनी, तो अगले तीन सालों में क्षेत्रवासियों की यह मांग पूरी कर दी जाएगी. लेकिन, पांच साल बीतने को हैं, राज्य गठन की पहल तो दूर, अब भाजपा नेता इस मसले पर बोलने से भी बचते हैं. बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा के संस्थापक सदस्य एवं लंबे समय से पृथक राज्य आंदोलन से जुड़े जगदीश तिवारी कहते हैं, राज्य गठन बुंदेलखंड के लोगों का भावनात्मक मसला है, लेकिन राजनीतिक दल वोट हासिल करने के लिए हमेशा हमारी भावनाओं का दोहन करते रहे और बार-बार धोखा खाना हमारी नियति बन गई. वह कहते हैं, सत्ता में बैठे नेताओं को पुराने पन्ने पलट कर देख लेना चाहिए कि वादा खिलाफी करने वालों को हमने किस तरह सबक सिखाया है.

एनडीए से पहले दस सालों तक केंद्र की सत्ता में रही कांग्रेस के लिए यह सवाल और भी मुश्किलें बढ़ाने वाला है, क्योंकि राज्य गठन के मसले पर दोनों ही दलों का रवैया एक जैसा रहा है. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एवं केंद्र सरकार में मंत्री रहे प्रदीप जैन ‘आदित्य’ सफाई देते हुए कहते हैं कि केंद्र में भले हमारी सरकार रही, लेकिन प्रदेश में जिन दलों की सरकारें रहीं, उन्होंने इस मसले को गंभीरता से नहीं लिया. और, राज्यों की सहमति के बिना उनका बंटवारा नहीं किया सकता. वह कहते हैं कि अब उत्तर प्रदेश और केंद्र, दोनों ही जगह भाजपा की सरकारें हैं. ऐसे में, वह चाहे तो पृथक राज्य का गठन आसानी से हो सकता है. कांग्रेस के उलट भाजपा की राय अलग है. भाजपा के वरिष्ठ नेता एवं राज्य मंत्री हरगोविंद कुशवाहा कहते हैं, मैं पृथक बुंदेलखंड राज्य का समर्थन करता हूं, लेकिन सबसे बड़ी समस्या सीमांकन की है. बुंदेलखंड में मध्य प्रदेश का कितना हिस्सा शामिल किया जाएगा, इसे लेकर तस्वीर साफ नहीं है. पहले यह तय होना जरूरी है कि दोनों राज्यों का कौन-कौन सा हिस्सा नए राज्य में शामिल होगा और इसके लिए मध्य प्रदेश की जनता की सहमति भी जरूरी है. सीमांकन और सहमति को लेकर राज्य गठन की गेंद भले ही मध्य प्रदेश की ओर उछाली जा रही हो, लेकिन आंदोलन से जुड़े लोग कहते हैं कि मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड इलाके की जनता प्रस्तावित राज्य की पक्षधर है. बुंदेलखंड की बदहाली एवं पिछड़ेपन को भोपाल और दिल्ली में बैठे नेता महसूस नहीं करना चाहते. भाजपा ने जानबूझ कर सीमांकन का शिगूफा छोड़ा है, जिससे आंदोलन को भ्रमित किया जा सके.

बांदा, महोबा, चित्रकू ट, झांसी, जालौन एवं हमीरपुर में फैले बुंदेलखंड के उत्तर प्रदेश वाले हिस्से में पृथक राज्य की मांग को लेकर सुगबुगाहट हमेशा दिखाई देती है. कहीं पद यात्रा, कहीं जनसभा, तो कहीं खून से चि_ी लिखने का सिलसिला जारी है. झांसी में तो आंदोलनकारियों ने नरेंद्र मोदी, राजनाथ सिंह एवं उमा भारती के पुतले तक जलाने शुरू कर दिए हैं. वहीं सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. सुनील तिवारी कहते हैं, आंदोलन से जुड़े ज्यादातर संगठन अपने अस्तित्व की लड़ाई को प्राथमिकता दे रहे हैं, जिससे नुकसान हो रहा है. चुनाव जीतने के बाद विभिन्न दलों के नेताओं को भले ‘पार्टी लाइन’ पर जाकर बुंदेलखंड के मुद्दे पर चुप्पी साधनी पड़ती हो, लेकिन जनता का उन पर दबाव गाहे-बगाहे देखने को मिल ही जाता है.

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