पर्यावरण स्वीकृति के लिए जन सुनवाई जरूरी है, सो ऐसा करना शासन-प्रशासन की मजबूरी है. लेकिन, जिन्हें जन सुनवाई में असल भागीदारी करनी है, उन स्थानीय नागरिकों को बलपूर्वक रोका जा रहा है, उनकी कोई बात तक नहीं सुनी जा रही है, ताकि अपनी मनमानी की जा सके.
उत्तराखंड समेत विभिन्न हिमालयी राज्यों में सुरंग आधारित जल विद्युत परियोजनाओं के चलते नदियों का प्राकृतिक स्वरूप बिगड़ गया है. ऊर्जा प्रदेश बनाने के लिए पारंपरिक जल संस्कृति एवं संरक्षण जैसी बातें बिल्कुल भुला दी गईं हैं. स्थानीय आजीविका की मांग लगातार कुचली जा रही है. उत्तरकाशी जिले में ग्रामीणों के विरोध के बावजूद पुलिस की मौजूदगी में जखोल-सांकरी जल विद्युत परियोजना की जन सुनवाई पूरी कर ली गई. माटू जन संगठन के विमल भाई कहते हैं कि दस्तावेजों की जानकारी दिए बिना, खराब मौसम के बावजूद 40 किलोमीटर दूर मोरी ब्लॉक में जखोल-सांकरी बांध (सुपिन नदी) की जन सुनवाई आखिर कितनी जायज है? उत्तराखंड शासन ने साबित कर दिया कि बांध कंपनियां उसके लिए जनता के अधिकारों एवं पर्यावरण से ज्यादा मायने रखती हैं.
जन सुनवाई में खासकर जखोल के ग्रामीणों को जाने से रोका गया. जखोल गांव बांध के लिए प्रस्तावित ९ किलोमीटर लंबी सुरंग के ऊपर आता है और जहां सुरंग के दुष्परिणाम संभावित हैं. प्रशासन ने जखोल के अलावा पांव तल्ला, मल्ला, सुनकुंडी एवं धारा के सैकड़ों लोगों को भी जन सुनवाई में जाने से रोक दिया. जखोल के प्रधान सूरज रावत, कोट के प्रधान सूरज दास, डगोली की प्रधान एवं हडवाड़ी के प्रधान मुंशी राम ने धरना देकर प्रशासन की कार्यवाही का विरोध किया. माटू जन संगठन के विमल भाई, राम लाल, गुलाब सिंह एवं राजपाल रावत को पुलिस ने यह कहकर रोक लिया कि वह उन्हें लेने आएगी. गुलाब सिंह रावत बताते हैं कि जब तक पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट, पर्यावरण प्रबंध एवं सामाजिक समाघात आदि योजनाओं का हिंदी अनुवाद नहीं मिल जाता, हम बांध पर अपनी बात कैसे रखेंगे? सुनकुंडी गांव के जयवीर ने कहा कि उन्हें पुलिस ने पहले ही उठा लिया था. राम लाल ने कहा कि ग्रामीणों को डराने के लिए जखोल के 21 लोगों पर झूठे मुकदमे कायम किए गए हैं. प्रदीप का कहना था कि जन सुनवाई में केवल आंगनबाड़ी एवं आशा कार्यकर्ताओं तथा सरकारी कर्मचारियों को शामिल किया गया.
धारा गांव के प्रह्लाद सिंह पवार बहुत मुश्किल से जन सुनवाई में जाकर अपनी बात कह पाए. उनका कहना है कि जब पर्यटन और लोगों के स्थायी रोजगार के लिए आवश्यक हरकी-दून सडक़ मार्ग को गोविंद वन्य जीव विहार के कारण स्वीकृति नहीं दी जा रही है, तो बांध की इतनी लंबी सुरंग के लिए कैसे स्वीकृति दे दी गई? जब भूकंप नीचे से आता है, तो सुरंग के लिए बड़ी मात्रा में विस्फोटक इस्तेमाल करने से ऊपर क्या स्थिति होगी, इसे भलीभांति समझा जा सकता है. राजपाल रावत ने कहा कि सुरंग परियोजना का असर पूरी तरह नकार कर जखोल को प्रभावित गांव की श्रेणी में नहीं रखा जा रहा? शासन-प्रशासन और बांध कंपनी ने 12 जून २०१८ की जन सुनवाई स्थगित होने को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया. इसलिए २८ नवंबर को जन सुनवाई प्रक्रिया हर हाल में पूरी कराने के लिए सशस्त्र पुलिस बल लगाया गया. प्रशासन ने यह नहीं सोचा कि अधिकारी हमेशा रहने वाले नहीं हैं, लेकिन गांव, नदी एवं पर्यावरण स्थायी हैं.
लोगों की मांग है कि ईआईए, एमपी तथा एसआई को हिंदी में अनुवाद करके उन्हें स्वतंत्र विशेषज्ञों द्वारा समझाया जाए. इसके बाद जन सुनवाई का आयोजन प्रभावित गांवों में हो. बिना पर्यावरणीय जन सुनवाई के पर्यावरण स्वीकृति नहीं मिल सकती है. इसलिए सरकार किसी भी तरह जन सुनवाई की कागजी प्रक्रिया पूरी करना चाहती है. वन अधिकार कानून 2006 के तहत अनापत्ति भी प्रभावित गांवों से धोखे से ली गई. उल्लेखनीय है कि प्रभावित गांवों के लोगों ने नवंबर 2018 की जन सुनवाई की कार्यवाही पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था. लोगों का कहना था कि पहले गांव आकर उनकी बात सुनी जाए और परियोजना की पूरी जानकारी स्थानीय भाषा में उपलब्ध कराई जाए. सुपिन नदी, जिस पर बांध प्रस्तावित है, से जुड़ा पूरा क्षेत्र गोविंद पशु विहार के अंतर्गत आता है. दशकों से यहां वाहन के हॉर्न बजाने तक की पाबंदी है. उच्च कोटि के पर्यटन की संभावनाओं वाले इस क्षेत्र में सडक़-जंगल के अधिकारों से वंचित लोग अपनी पारंपरिक संस्कृति के साथ जीते हैं. इसी बांध के नीचे नैटवार मोरी बांध के प्रभावित लोग अपनी समस्याओं को लेकर परेशान हैं. वहां रहने वाले गुर्जरों को विस्थापन की मार झेलनी पड़ रही है, लेकिन मुआवजे या पुनर्वास की कोई बात नहीं हो रही. जबकि वही कंपनी जखोल-सांकरी बांध बनाने के लिए आगे आ रही है.
44 मेगावाट की जखोल-सांकरी जल विद्युत परियोजना का निर्माण सतलुज जल विद्युत निगम द्वारा कराया जाना है. इसमें सुनकुंडी, पांव तल्ला, पांव मल्ला एवं धारा गांव की 12.32 हेक्टेयर जमीन प्रभावित हो रही है. परियोजना के तहत धारा-सुनकुंडी में 10 मीटर ऊंचा और 33 मीटर लंबा बैराज बनाया जाना है, जबकि धारा से पांव मल्ला तक 6.6 किलोमीटर लंबी हेड रेस टनल (सुरंग) और पांव मल्ला के पास पॉवर हाउस का निर्माण होना है. यही सारे सवाल उत्तराखंड में पिंडर नदी पर प्रस्तावित देवसारी जल विद्युत परियोजना से प्रभावित लोग भी उठाते रहे हैं. यही स्थिति भारत-नेपाल के बीच महाकाली नदी पर प्रस्तावित पंचेश्वर बांध से प्रभावित होने वाले लोगों की है. स्थानीय जनता को बताए बिना ‘विकासकर्ता’ जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण के लिए पहाड़ी इलाकों में पहुंच रहे हैं. जहां ऐसे बांध बने हैं, वहां लोगों ने पानी के बिना मुर्दा घाटों की पवित्रता और पारंपरिक जल संस्कृति को लेकर सवाल उठाए हैं. लोगों को डर है कि कहीं टिहरी जैसा विशाल बांध तो नहीं बन रहा, जिसके चलते उन्हें विस्थापन की मार झेलनी पड़े. वहीं सरकार का मानना है कि सुरंग आधारित बांधों से विस्थापन नहीं होगा. लेकिन, सुरंग के ‘आउटलेट’ और ‘इनलेट’ पर बसे सैकड़ों गांवों की सुरक्षा कैसे होगी, इस बारे में परियोजनाओं की डीपीआर (डीटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट) भी कुछ नहीं कहती.
1991 के भूकंप के समय उत्तरकाशी में मनेरी-भाली जल विद्युत परियोजना की सुरंग के ऊपर स्थित गांव जमींदोज हुए थे और कृषि भूमि की नमी कम हो गई थी. इसके अलावा गांव के धारे (छोटे झरने) एवं जल स्रोत भी सूख गए थे. इसके चलते पहाड़ों पर पड़ी दरारों के कारण भूस्खलन हो रहा है, लेकिन इस बारे में पर्यावरण प्रभाव आकलन (इन्वायरमेंट इंपेक्ट असेसमेंट) रिपोर्ट कुछ नहीं कहती. हिमालयी नदियां पूरे विश्व में जल भंडार के रूप में प्रसिद्ध हैं, लेकिन विकास और समृद्धि के दावों ने बांधों के जरिये जल धाराओं का प्राकृतिक प्रवाह बाधित कर दिया है, जिससे वर्षा एवं हिम पोषित नदियों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं. इस भू-भाग की संवेदनशीलता को नजरअंदाज करते हुए बनाए जा रहे करीब 560 बांधों से भागीरथी, यमुना, टौंस, अलकनंदा, भिलंगना, सरयू, महाकाली एवं मंदाकनी आदि पवित्र नदियों पर संकट मंडरा रहा है और रामगंगा एवं जलकुर का पानी निरंतर सूख रहा है. पहाड़ों में सुरंगों के निर्माण के लिए किए गए विस्फोटों से घरों में दरारें आ गई हैं, पेयजल स्रोत सूख गए हैं और नदियां डंपिंग यार्ड बन गई हंै.