भारत मिसाइल टेक्नोलॉजी में दुनिया की पहली पंक्ति में खड़ा है. न्यूक्लियर रिएक्टर की टेक्नोलॉजी में भी अमेरिका और रूस के साथ खड़ा है. चीन, फ्रांस और इंग्लैंड से काफी आगे है. सैटेलाइट एवं अंतरिक्ष यान बनाने और लॉन्च करने में हम पूरी दुनिया में अव्वल है. हैरानी की बात यह है कि हम अंतरिक्ष यान और मिसाइल तो बना लेते हैं, लेकिन सेना के लिए बंदूक नहीं बना सकते, टैंक नहीं बना सकते, लड़ाकू विमान नहीं तैयार कर सकते. इसका जवाब आसान है. आजादी के बाद से ही भारत में हथियार माफिया और दलाल सक्रिय हैं, जिन्होंने नेताओं एवं अधिकारियों के साथ मिलकर भ्रष्टाचार का चक्रव्यूह बना रखा है और भारत में डिफेंस इंडस्ट्री पनपने नहीं दी. हम छोटी से छोटी चीज भी विदेश से आयात करते रहे. रिश्वत और दलाली चलती रही. ऐसे परिदृश्य में राहुल गांधी ने राफेल सौदे को चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश की. लेकिन, देश के दो सर्वोच्च संवैधानिक संस्थानों ने साफ-साफ कह दिया कि इस डील में कोई घोटाला नहीं है. इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट और सीएजी ने यह भी माना कि सौदा भारत के हित में है. विपक्ष ने डील को लेकर कई सवाल उठाए हैं, जिन्हें जानना-समझना जरूरी है. पेश है ओपिनियन पोस्ट की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट, जिसमें सैन्य सौदों को लेकर कई ऐसे खुलासे हैं, जिन्हें पढक़र आप हैरान रह जाएंगे.
इंडियन आर्मी, एयरफोर्स और नेवी के जांबाज अपनी जान हथेली पर रखकर देश की सुरक्षा में जुटे हुए हैं. वे ईमानदार हैं, बहादुर हैं, लेकिन रक्षा मंत्रालय, जो देश के सबसे भ्रष्ट विभाग के रूप में शुमार है, के द्वारा बिना भ्रष्टाचार, बिना दलाल, बिना किकबैक या बिना रिश्वत के न तो कोई हथियार व विमान खरीदे जाते हैं और न सैनिकों के जूते. यह पूरा विभाग हमेशा हथियार माफिया और दलालों की गिरफ्त में रहा. देश का पहला घोटाला, जो जीप घोटाले के नाम से मशहूर है, वह भी नेहरू सरकार के दौरान रक्षा मंत्रालय में ही हुआ. आजादी के बाद जितनी भी सरकारें आईं, वे हथियार माफिया के हाथों की कठपुतली बनी रहीं. हम हथियार माफिया के चंगुल में ऐसे फंस गए कि बिना दलाल के हम कोई भी सैन्य सौदा करने में असक्षम हो गए. चौंकाने वाली हकीकत यह है कि हथियार दलालों के पूरे कुनबे का राजनीति से गहरा रिश्ता रहा है. चाहे वह नंदा हो, चौधरी हो, वर्मा हो, क्वात्रोची हो या फिर भंडारी, इन दलालों का रिश्ता किसी न किसी राजनीतिक दल से रहा है, यह बात किसी से छिपी नहीं है. इन लोगों ने ऐसा जाल बिछाया कि बिना दलाली के भारत में कोई भी हथियार सौदा होना नामुमकिन हो गया. राहुल गांधी राफेल का मामला तो उठाते हैं, लेकिन कांग्रेसी सरकारों के कारनामों पर कभी बात नहीं करते. वह यह नहीं बताते कि आजादी के बाद से कांग्रेस की सरकारों ने रक्षा सौदों को हथियार माफिया और दलालों के हाथों में कैसे गिरवी रख दिया. राफेल सौदे का सच समझने के लिए इतिहास के उन पन्नों को पलटना जरूरी है, जिन पर अब तक धूल जमी है.
यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि 1964 में ही एचएएल ने एचएल-64 मारूत लड़ाकू विमान बनाया था. यह हिंदुस्तान का ही नहीं, बल्कि पूरे एशिया का पहला जेट लड़ाकू विमान था. इसका डिजाइन जर्मन डिजाइनर कुर्त टैंक ने तैयार किया था. इसके कई ट्रायल्स हुए. इसका इस्तेमाल भी हुआ. इसे इस तरह डिजाइन किया गया, ताकि यह सुपर सोनिक यानी आवाज की गति से ज्यादा तेज उड़ सके. इस विमान में डेल्टा विंग था. जब दुनिया की नजर इस पर पड़ी, तो सब दंग रह गए कि हिंदुस्तान में इस तरह के लड़ाकू विमान बनाने की काबिलियत आ गई है. अमेरिका ने भी इस विमान का मुआयना किया. उसे समझ में आ गया कि एचएल-64 मारूत का डिजाइन उनके लड़ाकू विमानों से ज्यादा बेहतर है. लेकिन, भारत के सामने समस्या यह रही कि जीटीआरई इस विमान की जरूरत के हिसाब से सही और सटीक इंजन नहीं बना सकी. इंजन बाहर से लिया गया. यहीं से खेल बिगड़ गया. एक साजिश के तहत इस विमान में ज्यादा पॉवर का इंजन लगा दिया गया. इस वजह से पायलट इस विमान को कंट्रोल नहीं कर पाते थे. हवा में जाते ही यह बेलगाम हो जाता था. कई दुर्घटनाएं हुईं और कई पायलट मारे गए.
जब यह सब चल रहा था, उस दौरान हथियार माफिया भी सक्रिय हो गए. मीडिया में पायलटों की मौत की खबरें प्रायोजित तरीके से छपने लग गईं. कांग्रेस की सरकार थी. विमान को बेहतर कैसे बनाया जाए, इसे छोडक़र डिफेंस मिनिस्ट्री में बैठे अधिकारी यह प्रोजेक्ट खत्म करने में जुट गए. उन्हें लगा कि अगर यह विमान सफल हो जाता है, तो हिंदुस्तान में ही फाइटर प्लेन्स बनने लगेंगे. विदेश से खरीददारी खत्म हो जाएगी और दलाली का स्रोत भी खत्म जाएगा. इन लोगों ने मीडिया की मदद से इस विमान के खिलाफ एक कैंपेन शुरू कर दिया. लोगों को बताया गया कि यह विमान हमारी जरूरतों को पूरा नहीं कर सकता. हथियार माफिया, नेता, अधिकारी और मीडिया की मदद से यह प्रोजेक्ट खत्म कर दिया गया. एचएएल ने कुल 147 विमान तैयार किए थे, जो अब देश के विभिन्न स्थानों पर प्रदर्शनी में लगा दिए गए हैं.
जब मारूत को खत्म कर दिया गया, तब विमान बनाने वाली फ्रांसीसी कंपनियों ने भारत का दौरा किया. वे इस विमान के बारे में जानना चाहती थीं. जब वे भारत पहुंचीं, तो उन्हें साफ कह दिया गया कि इसे अब उड़ाया नहीं जा सकता. फ्रांस की टीम ने इस विमान को सिर्फ देखने की गुजारिश की, जो मंजूर कर ली गई. फ्रांस के इंजीनियर्स ने इस विमान का पूरे एक सप्ताह तक मुआयना किया, तस्वीरें लीं, वीडियो बनाया और जो भी जानकारी हासिल कर सके, उसे लेकर वे वापस फ्रांस चले गए. कुछ सालों बाद फ्रांस ने मिराज विमानों की सीरीज शुरू की. हैरानी की बात यह है कि उसका डिजाइन हूबहू वही था, जिसे हिंदुस्तान में हथियार माफिया की वजह से रोक दिया गया था. जब मिराज लड़ाकू विमान दुनिया के सामने आया, तो भारत में बवाल मच गया. एक्सपट्र्स बताने लगे कि फ्रांस की कंपनी ने बिल्कुल एचएल-64 के डिजाइन की नकल की है. इसके बाद लोगों ने इस विमान के बारे में जानकारी हासिल करने की कोशिश की, तो पता चला कि इसका सारा डाटा, डिजाइन गुम हो गया है. इसे कैसे बनाया गया था, कैसे डिजाइन किया गया, इसमें क्या-क्या कमियां थीं, इसे क्यों रोका गया.. ये सारी जानकारी, सारे दस्तावेज और कागजात गायब थे. उस समय भी देश में कांग्रेस की सरकार थी. न तो कोई जांच हुई, न कोई पकड़-धकड़ हुई, न इस साजिश का कभी पर्दाफाश हो सका और न यह विमान दोबारा बनाने की कोशिश हुई. कांग्रेस सरकार ने आगे चलकर काफी महंगी कीमत देकर मिराज विमानों का जखीरा खरीदा. इसके बाद करीब 50 साल लग गए, तब जाकर हिंदुस्तान अपना कोई विमान बना सका. हमने अब लाइट कॉमबैट एयरक्राफ्ट बनाया है. लेकिन यह कॉम्पोजिट मैटेरियल का है. इस श्रेणी का यह एक बेहतरीन फाइटर है, लेकिन हमारे पास इंजन नहीं था, कोई देने को भी तैयार नहीं था, जिसके चलते यह प्रोजेक्ट पूरा होने में 20 साल की देरी हुई. इस देरी का कारण भी साफ है. देश की सरकारें और अधिकारी हथियार माफिया के हाथों की कठपुतली बने रहे. बिना रिश्वत, बिना भ्रष्टाचार, बिना दलाली के हम सैनिकों के लिए कपड़े तक खरीदने में असक्षम हो गए.
इसका एक और उदाहरण पेश है. रूस के साथ कांग्रेस सरकार ने जेडटीएच जेनरेशन के फाइटर प्लेन बनाने का सौदा किया, लेकिन सौदा होने के बाद हम सोते रहे. कुछ भी नहीं किया. हकीकत यह है कि कुछ करने नहीं दिया गया. रूस ने भारत का इंतजार नहीं किया और उन्हें एसयू-एक्सजेड बना दिया. यह सब पिछली यूपीए सरकार के दौरान हुआ. इसका नुकसान यह हुआ कि मजबूरन हमें राफेल खरीदना पड़ा. अगर हमने रूस के साथ मिलकर फिफ्थ जेनरेशन प्लेन बना लिया होता, तो राफेल खरीदने की जरूरत न पड़ती. सवाल यह है कि वे कौन सी ताकतें हैं, जो सरकार का मसौदा लागू नहीं होने देतीं? वे कौन लोग हैं, जिनके सामने सरकार भी घुटने टेक देती है? देश के हर नेता और अधिकारी को पता है कि हथियार माफिया ने जानबूझ कर हथियार के क्षेत्र में देश को आत्मनिर्भर नहीं होने दिया. अब तक जितने भी सेनाध्यक्ष हुए, क्या उन्होंने भी हथियार माफिया के सामने घुटने टेक दिए? यूपीए की कहानी ऐसी है, जिस पर यकीन करना मुश्किल है. यह बात सही है कि यूपीए के दौरान रक्षा मंत्री रहे एके एंटोनी एक ईमानदार नेता हैं. यह कहना भी पड़ेगा कि उन्होंने काफी हद तक रक्षा सौदों में दलाली खत्म करने की कोशिश की. यूपीए के दौरान राफेल सौदा इसलिए पूरा नहीं हो सका, क्योंकि एंटोनी ने फाइल पर यह लिख दिया था कि इस सौदे पर फिर से जांच हो, ताकि इसमें कोई दलाली या भ्रष्टाचार न होने पाए. दलालों को हटाते ही यह सौदा ठंडे बस्ते में चला गया. लेकिन ईमानदार एंटोनी भी हथियार माफिया से हार गए. उनके रक्षा मंत्री रहते हुए हथियार माफिया ने वह सब किया, जो शुरू से होता आ रहा था. हैरानी की बात यह है कि यूपीए के दौरान रहे थलसेना अध्यक्ष, वायुसेना अध्यक्ष और नौसेना अध्यक्ष, तीनों का सामना हथियार माफिया से हुआ. यूपीए के दौरान वायुसेना अध्यक्ष रहे एयर चीफ मार्शल एसपी त्यागी ने दलालों के सामने घुटने टेक दिए. उनका नाम ऑगुस्टावेस्टलैंड हेलिकॉप्टर घोटाले में आरोपी के रूप में आया. उन्हें जेल की हवा भी खानी पड़ी. इससे यह बात साबित होती है कि सेनाध्यक्ष के स्तर पर भी हथियार माफिया ऑपरेट करता है. सैन्य सौदों में दलालों और माफिया का दखल वह सच्चाई है, जिसे कांग्रेस की विरासत कहा जा सकता है.
यूपीए के दौरान नौसेना अध्यक्ष रहे एडमिरल डीके जोशी ने हथियार माफिया के सामने घुटने नहीं टेके, तो उनके खिलाफ साजिश शुरू हो गई. एक बाद के एक नौसेना के युद्ध पोतों और पनडुब्बियों में दुर्घटनाएं होने लगीं. मीडिया में कैंपेन शुरू हो गया. हथियार माफिया और दलालों ने उन्हें बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. एडमिरल जोशी एक ईमानदार शख्स थे. उन्होंने बदनामी के डर से इस्तीफा दे दिया. किसी सेनाध्यक्ष का इस्तीफा कोई मामूली घटना नहीं है, लेकिन एडमिरल जोशी का इस्तीफा जिस तेजी के साथ स्वीकार किया गया, उससे यही कहा जा सकता है कि शायद रक्षा मंत्रालय के अधिकारी उनके इस्तीफे का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे. उनसे बातचीत करने के बजाय उन्हें जाने दिया गया. हैरानी की बात यह है कि एडमिरल जोशी के इस्तीफे के बाद दुर्घटनाएं होनी बंद हो गईं, सब कुछ नॉर्मल हो गया. मतलब साफ है कि दुर्घटनाएं एक साजिश के तहत कराई जा रही थीं. इसका खुलासा खुद एडमिरल जोशी ने एनडीटीवी को दिए गए इंटरव्यू के दौरान किया था. उन्होंने बताया कि हथियार दलालों के इशारे पर जिन पत्रकारों ने तख्ता पलट की झूठी कहानी गढ़ी थी, उसी गैंग ने नौसेना को बदनाम करने की कोशिश की. बाद में इस इंटरव्यू को एनडीटीवी ने अपनी वेबसाइट से हटा दिया. इसमें एडमिरल जोशी ने यह भी बताया था कि मीडिया में जितनी भी नकारात्मक रिपोर्ट आईं, उन्हें लिखने वाले पत्रकारों के हथियार कंपनियों और दलालों के साथ रिश्ते हैं. यूपीए सरकार को नौसेना अध्यक्ष के समर्थन में खड़ा होना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इससे यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यूपीए सरकार हथियार माफिया की कठपुतली बनी रही.
लेकिन, हथियार माफिया को सबसे बड़ी चुनौती तब मिली, जब जनरल वीके सिंह थलसेना अध्यक्ष बने. उन्हें देश का सबसे ईमानदार सेनाध्यक्ष माना जाता है, क्योंकि उन्होंने पद संभालते ही सेना में ऑपरेट करने वाले दलालों और माफिया को आड़े हाथों लेना शुरू कर दिया. सेना के लिए पैक्ड भोजन हो, कपड़े हों, जूते हों या फिर कुछ और, हर जगह से उन्होंने सालों से कुंडली मारकर बैठे दलालों को फौरन बाहर किया. हथियार माफिया लॉबी चौकन्नी हो गई और उन्हें बदनाम करने की साजिश भी शुरू हो गई. इस बीच जनरल वीके सिंह ने एक ऐसा खुलासा किया, जिससे देश में हंगामा मच गया. उन्होंने बताया कि एक रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल ने टाट्रा ट्रक की फाइल क्लियर करने के लिए उन्हें रिश्वत ऑफर की. यह मामला तब और गहरा गया, जब उन्होंने बताया कि इसकी शिकायत रक्षा मंत्री एके एंटोनी से की गई, लेकिन सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की. इसके बाद जनरल वीके सिंह के खिलाफ उनकी जन्मतिथि को लेकर विवाद शुरू हो गया. हथियार माफिया और दलाल नहीं चाहते थे कि जनरल वीके सिंह अपना टर्म पूरा कर सकें. लेकिन, इस दौरान कुछ और भी हुआ, जिसके बारे में किसी को पता नहीं है.
ट्रांसफर ऑफ टेक्नोलॉजी और बोफोर्स का खेल
बोफोर्स घोटाले के बारे में सब जानते हैं कि कैसे इस डील में गांधी परिवार के नजदीकी रहे क्वात्रोची ने दलाली की. खुद पैसे खाए और हिंदुस्तान में नेताओं और अधिकारियों को पैसे बांटे. कांग्रेस को इस वजह से चुनाव तक हारना पड़ा था और आज तक कांग्रेस को इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है. बोफोर्स सौदे के साथ ट्रांसफर ऑफ टेक्नोलॉजी का भी करार हुआ था. मतलब यह कि सौदा होने के बाद भारत बोफोर्स की तकनीक पर इसे बना सकता था. यह बात इसलिए समझना जरूरी है कि राफेल मामले में यह भी आरोप लग रहा है कि मोदी सरकार के करार में ट्रांसफर ऑफ टेक्नोलॉजी नहीं है. बोफोर्स सौदा मार्च 1986 में तय हुआ था. लेकिन उसके 24 सालों बाद तक भारत बोफोर्स जैसी तोप नहीं बना सका. वजह साफ है कि हथियार दलालों, नेताओं और अधिकारियों ने ऐसा होने नहीं दिया. अगर हम खुद ही हथियार बनाने लग जाते, तो विदेश से खरीदारी बंद हो जाती और दलालों की काली कमाई बंद हो जाती.
जनरल वीके सिंह ने जब सेना की कमान संभाली, तब उन्होंने बोफोर्स की फाइलें फिर से खंगाली. भारत के पास बोफोर्स का पूरा ब्लू प्रिंट था, कैसे बनाना है, यह तकनीक मौजूद थी. उन्होंने फौरन डिफेंस प्रोडक्शन और ऑर्डिनेंस फैक्टरीज बोर्ड से पूछा कि पिछले 24 सालों में आपने क्या किया? जवाब मिला कि आज तक किसी ने न तो बनाने को कहा और न किसी ने ऑर्डर दिया. मतलब साफ है कि रक्षा मंत्रालय पर आम्र्स लॉबी का दबाव था. जनरल वीके सिंह ने फौरन उन्हें बोफोर्स जैसी तोप बनाने को कहा. यह तोप बनी भी और उसका परीक्षण भी हुआ. यह 155 कैलीबर वाली तोप थी, जो करीब 17 किलोमीटर तक मार कर सकती थी. जनरल वीके सिंह इसे और बेहतर बनाने को कहा, साथ ही 400 तोपों का ऑर्डर भी दिया. जनरल वीके सिंह की वजह से पहली बार हथियार माफिया को हार का मुंह देखना पड़ा. बोफोर्स की तकनीक पर बनी यह हिंदुस्तानी तोप ‘धनुष’ के नाम से दुनिया के सामने है. लेकिन जनरल वीके सिंह को इसकी कीमत चुकानी पड़ी. यूपीए सरकार और हथियार माफिया ने साजिश के तहत उनकी जन्मतिथि को मुद्दा बनाकर एक साल पहले ही सेवानिवृत्त करा दिया. साथ ही हथियार माफिया के हाथों बिके हुए कुछ पत्रकारों ने जनरल वीके सिंह पर तख्ता पलट का प्रयास करने जैसा घृणित इल्जाम भी लगाया.
मतलब साफ है कि 2014 के पहले तक हिंदुस्तान में हर रक्षा सौदा विवादों में रहा, वह इसलिए, क्योंकि सब जानते हैं कि बिना दलाल और बिना माफिया के देश में कोई रक्षा सौदा नहीं होता. यह कांग्रेस की कार्यप्रणाली का हिस्सा था और देश की जनता रक्षा सौदे में हुई दलाली की बातों पर आसानी से यकीन भी कर लेती है. वीपी सिंह बोफोर्स को मुद्दा बनाकर सत्ता में आए थे. इस मामले में उन्होंने गांधी परिवार पर सीधा आरोप लगाया था. यही वजह है, कांग्रेस राफेल सौदे को चुनावी मुद्दा बनाने में जुटी है. राहुल गांधी वैसा ही कर रहे हैं, जैसा सोनिया गांधी ने 2004 के चुनाव से पहले किया था. सोनिया ने कारगिल युद्ध के दौरान खरीदे गए ताबूतों में घोटाले का आरोप लगाया था. तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस पर ‘कफन चोर’ होने का आरोप लगाया था. उन्हें कई महीनों तक संसद में बोलने नहीं दिया गया. उनका बहिष्कार किया गया. सोनिया गांधी ने इसे चुनावी मुद्दा बनाया और चुनाव जीतने में कामयाब रहीं. इतना ही नहीं, यूपीए सरकार बनने के बाद इसकी सीबीआई ने जांच भी की, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया.
राहुल गांधी अच्छी तरह समझते हैं कि रक्षा सौदे में घोटाला एक अहम चुनावी मुद्दा हो सकता है. लेकिन, राफेल सौदे पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले और सीएजी की रिपोर्ट के बाद इस मुद्दे की हवा निकल गई है. इन सबके बावजूद राहुल गांधी राफेल का मुद्दा जीवित रखना चाहते हैं. यह उनका अधिकार है. जबकि हकीकत यह है कि राफेल देश के उन चंद रक्षा सौदों में शामिल है, जिसमें कोई दलाल नहीं था और न हथियार माफिया. राहुल गांधी ने पहले राफेल सौदे पर प्रक्रिया का सवाल उठाया और कहा कि प्रधानमंत्री ने अकेले ही यह फैसला ले लिया. सुप्रीम कोर्ट और सीएजी ने इस आरोप को झूठा बताया. फिर राहुल ने आरोप लगाया कि मोदी सरकार ने राफेल के लिए तीन गुना ज्यादा कीमत दी है. यूपीए का करार सस्ता था. हालांकि वह अलग-अलग समय पर राफेल की अलग-अलग कीमत बताते रहे. लेकिन, इस मामले में सीएजी की रिपोर्ट ने साफ कर दिया कि यूपीए के करार से सस्ती डील मोदी सरकार ने की है. अब राहुल गांधी राफेल मामले में एक नया राग अलाप रहे हैं कि मोदी सरकार ने अनिल अंबानी को 30,000 करोड़ रुपये दे दिए. इस पर भी सीएजी की रिपोर्ट ने साफ कर दिया है कि आरोप झूठे हैं. दरअसल, इस डील में करीब 30,000 करोड़ रुपये का ऑफसेट कांट्रैक्ट है. इसके तहत राफेल बनाने वाली कंपनी ‘दस्सौ’ इतनी धनराशि का सामान या सर्विस भारतीय कंपनियों से लेगी. दस्सौ का ऑफसेट कांट्रैक्ट 30 से ज्यादा कंपनियों के साथ है, जिनमें एक कंपनी अनिल अंबानी की है. करार के मुताबिक, दस्सौ किन कंपनियों के साथ कांट्रैक्ट करती है, इस फैसले पर उसका एकाधिकार है. सबसे बड़ी बात यह कि राफेल सौदा दो सरकारों के बीच हुआ है, जिसमें बिचौलियों का कोई रोल नहीं है. यही हथियार माफिया और दलालों की सबसे बड़ी दिक्कत है. वे नहीं चाहते कि जिस तरह राफेल डील हुई, कहीं वह हथियार खरीदने का तरीका न बन जाए. अगर ऐसा होता है, तो सबसे ज्यादा नुकसान इन दलालों को होने वाला है. यही वजह है कि वे मीडिया के माध्यम से राफेल के खिलाफ प्रायोजित कहानियां छपवा रहे हैं.
हथियार माफिया यह डील खत्म कराने पर आमादा हैं. वे मीडिया के जरिये प्रोपेगैंडा करें, तो समझा जा सकता है, क्योंकि यह उनकी कमाई का मामला है. लेकिन सवाल यह है कि राहुल गांधी बार-बार राफेल सौदे पर क्यों निशाना साध रहे हैं? क्या उन्हें मालूम नहीं है कि इस विमान को उनकी सरकार ने ही हरी झंडी दी थी? क्या उन्हें यह भी पता नहीं है कि पाकिस्तान और चीन से लडऩे के लिए यह विमान कितना महत्वपूर्ण है? राहुल गांधी क्यों जेपीसी की मांग करके इस सौदे को अधर में लटकाना चाहते हैं? क्या उन्हें सुप्रीम कोर्ट और सीएजी की रिपोर्ट पर भी यकीन नहीं है? सवाल यह है कि राहुल गांधी ने सुप्रीम कोर्ट के सामने राफेल डील से जुड़े सारे सुबूत क्यों नहीं रखे? क्यों आखिरी समय पर कांग्रेस से जुड़े वकील तहसीन पूनावाला सुप्रीम कोर्ट से गायब हो गए? देश पर सबसे ज्यादा समय तक राज करने वाली पार्टी के अध्यक्ष को ये सारी बातें पता हैं कि इतने बड़े रक्षा सौदे में किसी भी दलाल को कुछ नहीं मिलने से आम्र्स लॉबी में कैसे हडक़ंप मचा होगा. इसके बावजूद अगर राहुल राफेल का मामला उठाते हैं, तो यह पूछना गलत नहीं होगा कि वह ऐसा करके किसकी मदद करना चाहते हैं, किसे फायदा पहुंचाना चाहते हैं? इस सवाल का जवाब एके एंटोनी दे सकते हैं, जिन्होंने दलालों और बिचौलियों के अंदेशे के चलते इस डील पर पूर्ण विराम लगाया था.