प्रदीप सिंह/ प्रधान संपादक/ ओपिनियन पोस्ट ।
गुजरात एक बार फिर राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में है। पर इस बार गुजरात दंगों की बात विमर्श से बाहर है। पंद्रह साल बाद दंगों का बेताल विक्रम (गुजरात कहें या नरेन्द्र मोदी भी कह सकते हैं) के कंधे से उतर गया है। चुनाव आयोग ने दो चरणों में विधानसभा चुनाव की घोषणा कर दी है। नौ और चौदह दिसम्बर को मतदान होगा और अट्ठारह दिसम्बर को हिमाचल प्रदेश के साथ ही मतों की गणना होगी। अभी तक जो चुनाव पूर्व सर्वेक्षण आए हैं उनके मुताबिक भाजपा की जीत निश्चित लग रही है। इस सच्चाई से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि कई बार चुनाव पूर्व सर्वेक्षण गलत भी साबित होते हैं। नतीजे आने तक मानना चाहिए कि दोनों मुख्य दलों भाजपा और कांग्रेस के लिए अवसर है। दोनों राजनीतिक दल अब मतदाता की अदालत में हैं। वहां सिर्फ उनका किया और अनकिया ही मतदाता के फैसले का आधार बनेगा। सत्तारूढ़ दल को मतदाताओं को यह समझाना पड़ेगा कि उसे फिर क्यों चुना जाय और विपक्ष को बताना पड़ेगा कि सत्तारूढ़ दल को हटाकर उसे सत्ता क्यों सौंपी जाय। वैसे तो राज्य में और कई छोटी-मोटी पार्टियां हैं। पर वे सब चुनावी राजनीति के हाशिए पर हैं। हमेशा की तरह इस बार भी मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही होना है। बाकी दल इन दोनों मुख्य दलों के सहायक या वोटकटवा की भूमिका तक सीमित रहेंगे।
कांग्रेस ने पिछले तीन चुनाव दंगे को मुद्दा बनाकर देख लिया। बात बनने की बजाय बिगड़ी ज्यादा। लोकसभा चुनाव में पहली बार उसे एक भी सीट नहीं मिली थी। इमरजेंसी के बाद 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में भी उसकी ऐसी दुर्गति नहीं हुई थी। भाजपा पिछले बाइस साल से सत्ता में है। उससे पहले के पांच साल में भी वह जनता दल के साथ गठबंधन में सरकार में शामिल थी। किसी भी विरोधी दल के लिए सत्तारूढ़ दल की इतनी लम्बी ऐंटीइंकम्बेंसी फायदेमंद होनी चाहिए। 2001 के बाद यह पहला चुनाव है जब गुजरात में सत्ता की कमान नरेन्द्र मोदी के हाथ में नहीं है। वे पिछले साढेÞ तीन साल से देश के प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। प्रदेश में मुख्यमंत्री सहित भाजपा के जो दूसरे नेता हैं उनका कद मोदी से बहुत छोटा है। दो साल से गुजरात पाटीदारों का आंदोलन देख रहा है। हार्दिक पटेल पाटीदारों के नये नेता के तौर पर उभरे हैं। उनका आंदोलन अपने समाज को पिछड़ी जाति में शामिल करके आरक्षण दिलाने के लिए है। प्रदेश का पिछड़ा वर्ग पाटीदारों की मांग का विरोध कर रहा है। राज्य की कुल आबादी में पिछड़ों का हिस्सा चालीस फीसदी है। इसमें बाइस फीसदी कोली हैं और बीस फीसदी ठाकोर। बाकी अट्ठावन फीसदी में एक सौ चव्वालिस जातियां हैं। ठाकोर समुदाय से अल्पेश ठाकोर हैं जो फिर से कांग्रेस में शामिल हुए हैं। कांग्रेस की नजर पाटीदार नेता हार्दिक पटेल और दलित नेता जिग्नेश मेवानी पर भी है। पार्टी इनके जरिए जातियों का समीकरण बनाने की कोशिश कर रही है। इससे पहले अस्सी के दशक में माधव सिंह सोलंकी ने खाम (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी, मुसलिम) बनाया था। उसके बाद से ही पाटीदार और अगड़ी जातियां कांग्रेस से दूर हो गर्इं। खाम भी ज्यादा दिन टिक नहीं पाया। कांग्रेस अब एक बार फिर उस रास्ते पर चलने की कोशिश कर रही है। पर यह न तो अस्सी का दशक है और न ही उसके पास माधव सिंह सोलंकी के कद का कोई नेता।
कांग्रेस ने अपने चुनाव अभियान की शुरुआत एक नकारात्मक नारे, ‘विकास पागल हो गया है’, से की है। दरअसल ऐसे नारों का प्रभाव तभी होता है जब आम लोग सरकार के कामकाज से बड़े पैमाने पर नाराज हों। यह पता नहीं कि कांग्रेस ने यह नारा देने से पहले जनता के मूड को भांपने जांचने की कोई कोशिश की थी या नहीं। चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों को संकेतक मानें तो ऐसा लगता नहीं। कांग्रेस के पक्ष में एक और बात हो सकती थी/है। जीएसटी को लागू करने में आ रही दिक्कतों से व्यापारियों में नाराजगी है। गुजरात में देश के किसी भी अन्य प्रदेश की तुलना में व्यापार करने वाले सबसे ज्यादा हैं। उनकी नाराजगी जीएसटी से नहीं बल्कि उससे जुड़ी दिक्कतों से है। राहुल गांधी के भाषणों से लगता नहीं कि कांग्रेस उस फर्क को समझ रही है या समझा पा रही है। राहुल गांधी जीएसटी के ही विरोध में बोल रहे हैं। यह एकमात्र ऐसा आर्थिक सुधार है जिस पर सभी राज्यों और राजनीतिक दलों में पूर्ण सहमति थी। जाहिर है कि इस सहमति में कांग्रेस भी शामिल थी। पर अभी लोगों में नाराजगी है और लोग जीएसटी के खिलाफ सुनना चाहते हैं। भाजपा और केंद्र सरकार इस बात को समझ रही है इसीलिए जीएसटी काउंसिल की पिछली बैठक में व्यापारियों के लिए कई सहूलियतों का ऐलान किया गया। अब इसका कितना असर पड़ा है अभी बता पाना कठिन है।
भाजपा के लिए यह चुनाव केवल प्रदेश की राजनीति के नजरिए से ही नहीं राष्ट्रीय राजनीति के नजरिए से भी अहम है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह का यह गृह प्रदेश है। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पहला विधानसभा चुनाव है। गुजरात के लोगों और मोदी में खास तरह के अनुराग का रिश्ता बन गया है। ऐसा रिश्ता कोई भाजपा या विपक्षी नेता नहीं बना पाया है। इसे भाजपा के अपने समय के सबसे कद्दावर नेता केशू भाई पटेल भी नहीं तोड़ पाए। जनसंघ के समय से केशूभाई के साथ मिलकर पार्टी को खड़ा करने वाले शंकर सिंह वाघेला कांग्रेस का हाथ पकड़कर भी कामयाब नहीं हुए। भाजपा को गुजरात में जीत के लिए तीन बातों का भरोसा है। एक, मोदी का करिश्मा। पार्टी को यकीन है कि एक बार जब मोदी भावनात्मक अपील करेंगे तो सारे मुद्दे पीछे चले जाएंगे। गुजरात के लोग प्रधानमंत्री बनाने के बाद उन्हें हराना नहीं चाहेंगे। दूसरा, संगठन की क्षमता। सांगठनिक स्तर पर पार्टी ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद से ही तैयारी शुरू कर दी थी। तीसरा, राज्य सरकार के कामकाज और चुनाव से पहले की घोषणाओं पर। भाजपा को पता है कि गुजरात की जीत से उसकी केंद्र सरकार की नीतियों खासतौर से आर्थिक नीतियों की आलोचना कुछ समय के लिए थम जाएगी। जीएसटी को लेकर सरकार पर दबाव कम हो जाएगा।
गुजरात विधानसभा चुनाव का नतीजा 2019 लोकसभा चुनाव के राजनीतिक समीकरण तय करेगा। कांग्रेस चाहेगी कि राहुल गांधी गुजरात विजय के साथ पार्टी का अध्यक्ष पद संभालें। गुजरात में हार से उनके अध्यक्ष पद पर कोई आंच नहीं आने वाली लेकिन उनकी राजनीतिक हैसियत जरूर घटेगी। जीत से लोकसभा चुनाव में पार्टी कार्यकर्ताओं में उत्साह भरने में आसानी होगी। इसलिए कांग्रेस के लिए लाख टके का सवाल यही है कि क्या गुजरात में राहुल का दांव लगेगा। दूसरी ओर भाजपा की जीत मोदी के तिलिस्म को बरकरार रखने में सहायक होगी। और गुजरात में पहले से बड़ी जीत भाजपा विरोधियों के हौसले पस्त करेगी। इस विधानसभा चुनाव में कोई हारना नहीं चाहता। कांग्रेस जीत चाहती है तो भाजपा पहले से बड़ी जीत।