विजय माथुर
राजस्थान की वसुंधरा सरकार की माली हालत कैसी है? इसका दो टूक जवाब है, ‘सरकारी सम्पत्तियां बेचने में जुटी राज्य सरकार ने फिर एक विवादित फैसला ले लिया है। तंगहाली का हवाला देकर सरकारी विभागों और उपक्रमों की इमारतें और भूखंडों को खुर्द-बुर्द करने की शुरुआत कर दी गई है।’ सरकार के इस फैसले को तर्कसंगत बताते हुए नगरीय विकास मंत्री श्री चंद्र कृपलानी का कहना है, ‘काफी अर्से से खाली पड़ी सरकारी इमारतें और अनुपयोगी जमीनों को बेचने में क्या हर्ज है? आखिर तो इससे सरकार की आर्थिक स्थिति को मजबूती मिलेगी?’ इससे पहले सरकार बीकानेर हाउस, खासा कोठी और कुछ नामचीन होटलों के भी टके खड़े कर चुकी है। कहावत है कि जब किसी के बुरे दिन आते हैं तो घर-जमीनें बिकने का सिलसिला शुरू हो जाता है और ऐसा तब होता है जब गवर्नेंस में जान फूंकने की आकबत नहीं रह पाती? राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि, ‘सरकार के इर्द-गिर्द महारथियों का सर्वथा अकाल है। अलबत्ता जो लोग हैं, सत्ता से गोंद की तरह चिपकने वाले चाटुकारिता प्रवृत्ति के धुरंधर हैं या फिर डुगडुगीबाज। इनके बूते अपनी हैसियत के गुरूर में डूबी सरकार की मुखिया एक बार फिर सूबे की भाग्य विधाता बनने का ख्वाब संजोए हैं। सरकार के चार साल के जश्न पर उन्होंने अपने मंसूबों का मुजाहिरा भी कर दिया है, ‘मैं तो यही कहूंगी, जीना यहां, मरना यहां…. इसके सिवा जाना कहां ?’ विश्लेषक कहते हैं, ‘हर मोर्चे पर नाकाम वसुंधरा सरकार के इन्द्रधनुष फीके पड़ने लगे हैं और क्षितिज से ओझल हो सकते हैं। बावजूद इसके उनकी महत्वाकांक्षा में उफान कायम है कि चुनाव तो उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा जाएगा।’
नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की रपट ने दुष्कर्म के मामलों में राजस्थान को चौथे पायदान पर खड़ा कर दिया है। बच्चियों से गैंगरेप आम बात हो गई है। महिला मुख्यमंत्री होने के नाते उन्हें इन मामलों में ज्यादा सख्त होना चाहिए था, लेकिन कार्यकाल के चौथे साल में भी सख्ती नहीं कर सकी, अमल करने की कोशिश करती दिखाई दे रही हैं कि, ‘अगले विधानसभा सत्र में हम नाबालिग से दुष्कर्म के दोषियों को फांसी के फंदे तक पहुंचाने का बिल ला रहे हैं…।’ दरिन्दगी की खौफनाक वारदात के मद्देनजर क्या बिल बहुत पहले लाने के लिहाज से यह अहम मसला नहीं था? विश्लेषक कहते हैं, ‘सरकार में खास मुद्दों पर आग्रह की भावना मजबूत नहीं है। महिला मुख्यमंत्री के शासन में तो औरतों और बच्चों की सुरक्षा के दावों पर फौरी अमल होना चाहिए, लेकिन कहां हो पाया है? केंद्र सरकार द्वारा करवाए गए एक सर्वेक्षण में राजस्थान में पिछले चार सालों में एक लाख नवजात मौत के आगोश में चले गए। राजस्थान में पिछले कुछ वर्षों में लापता बच्चों की बढ़ती तादाद ने इस बात की तस्दीक कर दी है कि, ‘राजस्थान बाल तस्करी का भी गढ़ बन चुका है। तस्करी के जाल में लापता हुए बच्चों की संख्या 956 बताई गई है, जिनमें 130 तो सिर्फ लड़कियां हैं। नवजात की मौत के आंकड़े गलत पेश कर सरकार कोर्ट से फटकार खा चुकी है तो प्रसव के सही आंकड़े तक नहीं जुटा पा रही है। प्रदेश में संस्थागत प्रसव को बढ़ावा देने के लिए जननी सुरक्षा और जननी शिशु सुरक्षा जैसी योजनाएं चलाई जा रही हैं। इन पर मोटी रकम भी खर्च की जा रही है। बावजूद इसके, सरकार के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि, ‘हर साल तीन लाख गर्भवती महिलाओं का प्रसव कहां हो रहा है? आखिर क्यों सरकार इन्हें मिसिंग डिलीवरी बताकर अपने दायित्वों की इतिश्री कर रही है? राज्य सरकार मातृ-शिशु सुरक्षा का लाख दम भरे लेकिन इस मामले में राजस्थान सबसे फिसड्डी राज्यों में शुमार किया जाता है? इसका साफ मतलब है कि भू्रण परीक्षण का धंधा प्रदेश में पूरी तरह फल-फूल रहा है।
आखिर सरकार के पास इस बात का क्या जवाब है कि, ‘क्लिनिकल एस्टैब्लिशमेंट एक्ट को पूरी तरह क्यों लागू नहीं किया जा रहा? क्या निजी क्षेत्र के अस्पतालों के साथ कोई गठजोड़ या उनके साथ सरकार के मीठे रिश्ते हैं?’
बीमारियों पर तो सियासत के संक्रमण ने पूरे प्रदेश को स्तब्ध कर दिया है। स्वाइन फ्लू और डेंगू के कोप की बदौलत हजार से ज्यादा लोग अकाल मौत के आगोश में चले गए। अकेले हाड़ौती संभाग में 165 लोगों की मौत सरकारी अस्पतालों की निष्क्रियता से हो गई, लेकिन चिकित्सा मंत्री कालीचरण सिर्फ चार लोगों की मौत के आंकड़े पर अड़े रहे? सरकार मौत का तांडव नकारती हुई इस गंभीर मुद्दे को आंकड़ों में ही उलझाती रही। दिलचस्प बात है कि चिकित्सा मंत्री कुछ करने की बजाय अपनी ही पार्टी के विधायक भवानीसिंह राजावत से उलझ गए? विश्लेषकों का कहना है कि, ‘सफाई के लिए जिम्मेदार संस्थाओं में काम कम और राजनीति ज्यादा हो रही है। अफसर ‘एलाइजा’ और ‘कार्ड टेस्ट’ जैसी शब्दावली से सरकार को घनचक्कर बना रहे हैं। बीमारियों के उपचार के मामले में तो असंतोष का धुंआ थमता नजर नहीं आ रहा? संक्रामक रोगों की आमद कोई नहीं बात नहीं है, लेकिन इनसे जूझने की बजाय सरकार के मंत्री तो तमाशाई बनकर खीझ पैदा करते रहे हैं।’
किसान तो अपनी समस्याओं को लेकर निपट निरुपाय हो गए हैं। किसान कर्ज माफी आंदोलन को फरेबी वादों से निपटा दिया। विश्लेषक कहते हैं कि, ‘सरकारी घोषणाओं की जमीन में उगने से पहले ही आस का बीज तो दम तोड़ गया।’ किसान किस हद तक हताशा में डूबे हुए हैं? उनके इस संकल्प से पता चलता है कि उन्होंने आने वाली पीढ़ी को खेती-किसानी से दूर करने का फैसला कर लिया है। किसानों के कर्ज माफी के आंदोलन को कमेटी का झुनझुना थमा कर खत्म करवा दिया। चार महीने बीत चुके लेकिन कमेटी आज तक नहीं बनी? किसान तो ठगा सा रह गया?
मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से यह पूछे जाने पर कि, ‘आखिर कर्ज कब तक माफ होगा? उनका कहना था, ‘हमने कमेटी बना दी है जो अलग-अलग राज्यों के कर्ज माफी मॉडल का अध्ययन कर रही है। रिपोर्ट आते ही हम लागू कर देंगे?’ लेकिन इस बात में कितना दम है? जल संसाधन मंत्री डॉ. रामप्रताप तो यह कहते हुए साफ मुकरते नजर आते हैं कि, ‘हमने कब कहा कि किसानों का कर्जा माफ करेंगे? सरकार ने तो सिर्फ विचार करने के लिए कहा था?’ उनका तो यहां तक कहना था कि, ‘किसी भी राज्य में कर्ज माफी की बात धरातल पर नहीं उतर पाई तो रिपोर्ट का क्या मतलब?’ बहरहाल यह बात चौंकाने वाली है कि वसुंधरा सरकार के चार सालों में कृषि बदतर हालत में पहुंच गई है। दशक की शुरुआत में सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान 28.06 प्रतिशत था, जो गिरकर 26.1 प्रतिशत रह गया है। भारतीय किसान संघ आंदोलन के संयोजक तुलछाराम सिंवर का कहना है कि, ‘सरकार की नजर में किसान की प्राथमिकता अंतिम पायदान पर है।
केंद्र सरकार के थिंक टैंक नीति आयोग ने अपने तीन साल के एक्शन एजेंडा में खराब प्रदर्शन कर रहे सरकारी स्कूलों को पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के आधार पर निजी क्षेत्रों के हवाले करने की सिफारिश क्या की? राज्य सरकार ने कस्बाई हलकों के सभी सेकेंडरी, हायर सेकेंडरी स्कूलों को निजी क्षेत्रों को सौंप दिया। जिन इलाकों में एकल शिक्षक स्कूल है और जो शिक्षा की दृष्टि से वहां इकलौते स्कूल हैं, उन्हें भी इस भेड़चाल में शरीक कर दिया? अब कस्बाई क्षेत्रों से तो शिक्षा का जनाजा ही उठ गया। दिलचस्प बात है कि चिकित्सा सेवाएं निजी क्षेत्रों को सौंप चुकी सरकार अब शैक्षिक सेवाएं भी निजी हाथों में सौंप रही है। फिर सरकार क्या करेगी? उधर राज्य कर्मचारी भी मुंह फुलाए बैठे हैं। उनका शिकवा भी वाजिब है कि जब देश की अन्य राज्य सरकारों ने सातवें वेतन आयोग का लाभ जनवरी 2016 से दे दिया तो राजस्थान सरकार एक साल की रकम हजम करने पर क्यों तुली है? मुख्यमंत्री राजे देने की बजाय गिनाने पर तुली हैं कि, ‘छठा वेतन आयोग भी तो हमीं ने दिया था? अभी हमारे पास पैसा ही नहीं है?