रामचरित मानस में तुलसीदास अपने समय और समाज को धुरी बनाते हैं। वे कंदाराओं में जाकर तपस्या करने को सार्थक जीवन नहीं बल्कि गृहस्थ आश्रम में रहकर एक ऐसे संतुलित और दायित्वपूर्ण समाज में वास करने को कहते हैं, जिसमें प्रजा और राजा में पिता और पुत्र की तरह का संबंध हो। उक्त विचार साहित्य अकादेमी द्वारा आयोजित ‘तुलसीदास: एक पुनःपाठ’ विषयक संगोष्ठी में बीज भाषण देते हुए रामजी तिवारी ने कहे।
आगे उन्होंने कहा कि तुलसीदास ने अपने साहित्य में सभी वादों का समन्वय किया है। यह बहुत महत्त्वपूर्ण है। तुलसीदास अपने समय और समाज के विभिन्न विवादों और मतभेदों का उत्तर दे रहे थे। उन्होंने भारत की आम जनता को पुरुषोत्तम राम जैसा नायक दिया, जिससे जन-जन अपने को जुड़ा हुआ पाता है। उन्होंने कहा कि तुलसीदास के साहित्य में शास्त्र भी है और लोक भी। शास्त्र का परम उद्देश्य लोक का उद्धार है।
सत्र के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने कहा कि तुलसीदास का समय अकबर का शासन काल है, जिसमें पाँच बार भीषण अकाल पड़ा था। तुलसीदास ने अपने साहित्य में उन अकालों के दुःखों का, कष्टों का मार्मिक वर्णन किया। प्रो. तिवारी ने कहा कि तुलसीदास का बीज शब्द ‘कलि’ है। यह ‘कलि’ तुलसीदास के समय का यथार्थ है। तुलसीदास ने अपने समय की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक समस्याओं से जूझ रहे आम जन-जीवन को बहुत महत्त्वपूर्ण तरीके से व्यक्त किया। आगे उन्होंने कहा कि महात्मा गाँधी ने भी तुलसीदास से रामराज्य और सर्वोदय की संकल्पना प्राप्त की।
तुलसीदास अपने समय के अराजक और विभिन्न विवादों में घिरे समय में भी रामराज्य का स्वप्न देखते हैं, यह एक बड़ी बात है। इससे पहले साहित्य अकादेमी के सचिव ने अपने स्वागत भाषण में कहा कि साहित्य अकादेमी कालजयी रचनाकारों पर पूरे देश में इस तरह के कार्यक्रम आयोजित कर रही है, जिससे देश की युवा पीढ़ी उन कालजयी संत रचनाकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व को भली भाँति समझ सके।
संगोष्ठी का दूसरा सत्र रामकथा परंपरा और तुलसीदास पर केंद्रित था, जिसकी अध्यक्षता रमेश कुंतल मेघ ने की और श्रीभगवान सिंह और सूर्यप्रसाद दीक्षित ने अपने आलेख प्रस्तुत किए। अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में रमेश कुंतल मेघ ने कहा कि ‘‘मिथक को इतिहास के रूप में समझने की गलती के कारण ही हम इतिहास और मिथक को एक दूसरे के साथ गडमड कर देते हैं और सारी गलतफहमियाँ यहीं से शुरु होती हैं। तुलसीदास मिथकीय चरित्र राम पर लिखते तो जरूर हैं, लेकिन उनका बोध मध्यकालीन है, पौराणिक नहीं। तुलसीदास राम को राजा के रूप में नहीं बल्कि लोक नेता के रूप में प्रस्तुत करते हंै। अगला सत्र तुलसीदास का युग और उनका काव्य विषय पर केंद्रित था, जिसकी अध्यक्षता प्रख्यात आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने की। उन्होंने भक्ति आंदोलन में चारों वर्ण से ऊपर एक भक्ति का पंचम वर्ण पैदा किया, जिसमें भक्त एक जन के रूप में प्रस्तुत किया गया है। उन्होंने तुलसीदास को इस मामले में उच्च कोटि का सर्जक कहा, जोकि अपने समय और समाज के अनुसार पात्रों की पुनः रचना करता है। तुलसीदास इस संदर्भ में विश्वकोटि के कवि हंै। गोपेश्वर सिंह, ब्रजकिशोर स्वैन और नीरजा माधव ने भी अपने सुचिंतित आलेख प्रस्तुत किए।