सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या प्रकरण में मध्यस्थों के जरिये हल खोजने की सलाह देते हुए तीन सदस्यीय पैनल गठित कर दिया है, लेकिन पेंच यह है कि इस कार्य में तकरीबन तीन महीने का समय लग सकता है, क्योंकि संबंधित दस्तावेजों के अनुवाद के लिए पर्याप्त संख्या में अनुवादक उपलब्ध नहीं हैं.
ज्यादा दिन नहीं बीते, जब देश में चारों तरफ से अयोध्या में राम मंदिर बनाने की मांग तेज हो गई थी. साधु-संतों और राम भक्तों ने केंद्र की मोदी सरकार पर दबाव बनाना शुरू कर दिया था कि अयोध्या भूमि विवाद पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई टलती जा रही है, इसलिए सरकार को अदालत के फैसले का इंतजार नहीं करना चाहिए और अध्यादेश लाकर अयोध्या में जल्द से जल्द भव्य राम मंदिर का निर्माण शुरू करा देना चाहिए. भारतीय जनता पार्टी के नेता अध्यादेश के विकल्प की बात करने लगे थे और भीतर ही भीतर सरकार के स्तर पर भी चर्चा होने लगी थी, क्योंकि भाजपा लोकसभा चुनाव में राम भक्त मतदाताओं की नाराजगी के साथ नहीं जाना चाहती थी. लेकिन, इसी बीच 14 फरवरी को पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर आतंकी हमला हुआ, जिसमें 40 जवान शहीद हो गए. अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की मांग पाकिस्तान को हर हाल में सबक सिखाने की मांग में बदल गई. सरकार ने एक बड़ा निर्णय लिया, पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए सेना को खुली छूट दी गई और 26 फरवरी को भारतीय वायुसेना के 12 मिराज लड़ाकू विमानों ने पाकिस्तान की सीमा में घुसकर आतंकी ठिकानों पर बमबारी की, जिसमें 300 से अधिक आतंकी मारे गए. सेना के शौर्य और मोदी सरकार के जयघोष के शोर में अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की मांग की आवाज कमजोर पड़ गई है.
इस बीच अयोध्या भूमि विवाद में एक नया मोड़ आ गया. सुप्रीम कोर्ट इस विवाद को समझौते के जरिये सुलझाना चाहता है. उसने करीब सात दशक पुराने इस संवेदनशील मामले को मध्यस्थता के लिए भेज दिया है. अदालत ने इसके लिए सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस एफएम इब्राहिम खलीफुल्ला की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय पैनल गठित कर दिया है. पैनल के दो अन्य सदस्य हैं, आर्ट आफ लिविंग के श्री श्री रविशंकर एवं वरिष्ठ वकील श्रीराम पंचू. पैनल को आठ सप्ताह का समय दिया गया है, अयोध्या विवाद का मध्यस्थता के जरिये समाधान निकालने के लिए. मुस्लिम पक्ष तो जनहित में समझौते के लिए तैयार है, लेकिन निर्मोही अखाड़े को छोडक़र अन्य हिंदू पक्षकार समझौते के लिए तैयार नहीं हैं. फिर भी अदालत ने मामले को मध्यस्थता के लिए भेज दिया है, क्योंकि उसे लगता है कि अयोध्या विवाद महज भूमि विवाद नहीं है, बल्कि दो समुदायों की आस्था और विश्वास से जुड़ा मामला है और ऐसे विवाद का समाधान समझौते के जरिये हो, तो बेहतर होगा. अदालत ने कहा कि वह दो समुदायों के रिश्तों में सुधार के पहलू पर विचार करके यह प्रस्ताव दे रही है. अगर मध्यस्थता के जरिये विवाद हल होने की एक प्रतिशत भी उम्मीद है, तो उसकी कोशिश होनी चाहिए. लेकिन, बहुत कम लोगों को उम्मीद है कि अयोध्या विवाद का समाधान समझौते से मुमकिन है.
समझौते से समाधान के असफल प्रयास
अयोध्या मामले में समझौते की पहली कोशिश पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह के समय में हुई थी. उन्होंने मामले के समाधान के लिए दोनों पक्षकारों से बातचीत के सिलसिले शुरू कराए. समझौते का अध्यादेश लाया जा रहा था, लेकिन सियासत ने ऐसी करवट ली कि उन्हें अध्यादेश वापस लेना पड़ा. दरअसल, समझौते की कोशिश के बीच ही भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने राम मंदिर के लिए सोमनाथ से अयोध्या के लिए रथ यात्रा शुरू कर दी. आडवाणी रथ लेकर बिहार पहुंचे, तो राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने उन्हें गिरफ्तार करा दिया. केंद्र में भाजपा के सहयोग से चल रही वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया गया, नतीजतन, सरकार गिर गई और अयोध्या विवाद में समझौते की कोशिशें अमलीजामा नहीं पहन सकीं. दूसरी पहल चंद्रशेखर के दौर में शुरू हुई, लेकिन दुर्भाग्य यह किजब तक समझौते से समाधान निकलता, उनकी सरकार भी चली गई. चंद्रशेखर सरकार गिर जाने के बाद 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में कार सेवकों ने बाबरी मस्जिद का विवादित ढांचा ढहा दिया. अटल बिहारी वाजपेयी के सत्ता में आने के बाद मामला एक बार फिर सुगबुगाने लगा. मामले की गंभीरता को समझते हुए वाजपेयी ने प्रधानमंत्री कार्यालय में ‘अयोध्या विभाग’ का गठन करके वरिष्ठ अधिकारी शत्रुघ्न सिंह को दोनों पक्षों से बातचीत के लिए नियुक्त किया. वाजपेयी ने 2003 में कांची पीठ के शंकराचार्य के जरिये भी अयोध्या विवाद सुलझाने की कोशिश की थी, तब दोनों पक्षों से मिलकर जयेंद्र सरस्वती ने भरोसा दिलाया था कि मसले का हल महीने भर में निकाल लिया जाएगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. हाल में आर्ट ऑफ लिविंग के श्री श्री रविशंकर ने हिंदू-मुस्लिम, दोनों पक्षकारों से मिलकर मध्यस्थता की कोशिश की, लेकिन वह भी नाकामयाब रहे.
दस्तावेजों का अनुवाद अभी बाकी है
सुप्रीम कोर्ट ने मध्यस्थता के लिए आठ सप्ताह का समय दिया है. दरअसल, अदालत अयोध्या विवाद से जुड़े दस्तावेजों का अनुवाद अभी तक नहीं करा सकी है, जिसमें कम से कम तीन महीने का समय लग सकता है. उत्तर प्रदेश सरकार ने इस मामले से जुड़े दस्तावेजों का अनुवाद जरूर कराया है, लेकिन उस पर मुस्लिम पक्षकारों को ऐतराज है, उन्होंने अनुवाद की सत्यता पर सवाल उठाए हैं. अदालत ने सभी पक्षकारों से कहा है कि वे उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा संबंधित दस्तावेजों के कराए गए अनुवाद की जांच करके पता लगा लें कि वह सही है और उन्हें स्वीकार्य है, ताकि मामले पर नियमित सुनवाई शुरू हो सके. यानी अगर उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा अनुवाद कराए गए दस्तावेजों पर किसी पक्षकार ने असहमति जताई, तो भी अयोध्या मामले के लटकने की पूरी गुंजाइश है.
सुप्रीम कोर्ट रूल्स 2013 के ऑर्डर (८) के मुताबिक, अंग्रेजी को छोडक़र किसी अन्य भाषा के दस्तावेज के आधार पर सुप्रीम कोर्ट में कार्र्यवाही नहीं की जा सकती. दस्तावेज का अंग्रेजी में अनुवाद किया जाना जरूरी है, लेकिन इसकी भी एक शर्त है कि उक्त दस्तावेज के अनुवाद पर दोनों पक्षों की सहमति हो या अदालत द्वारा नियुक्त अनुवादक द्वारा अनुवादित दस्तावेज प्रमाणित किया गया हो या खुद उसके द्वारा अनुवादित हो. चूंकि अनुवाद उत्तर प्रदेश सरकार ने कराया है, इसलिए सभी पक्षकारों की सहमति की जरूरत होगी. अगर सहमति नहीं बनी, तो सुनवाई में विलंब होगा और मामला लटक जाएगा.
इलाहाबाद हाईकोर्ट से अयोध्या मामले से जुड़े जो दस्तावेज सुप्रीम कोर्ट में आए हैं, उनमें अंग्रेजी के अलावा हिंदी, अरबी, फारसी, संस्कृत, उर्दू और गुरुमुखी के दस्तावेज भी मौजूद हैं. उनमें बाबर से लेकर रामायण के जमाने तक के दस्तावेज शामिल हैं, जिनका अनुवाद किया जाना है. कुल 38,147 पृष्ठों के दस्तावेजों में से 12,814 पृष्ठ हिंदी, 18,607 पृष्ठ अंग्रेजी, 501 पृष्ठ उर्दू, 97 पृष्ठ गुरुमुखी, 21 पृष्ठ संस्कृत, 86 पृष्ठ अन्य भाषाओं में हैं. 1,729 पृष्ठों के दस्तावेज ऐसे हैं, जो एक से अधिक भाषाओं में हैं. हाईकोर्ट का फैसला कुल 8,170 पृष्ठों का है.
सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार ने अदालत को जो रिपोर्ट सौंपी है, उसके मुताबिक सुप्रीम कोर्ट के अनुवाद सेल में अनुवादकों के 10 पद हैं, जिनमें से दो रिक्त हैं. शेष आठ अनुवादकों में से दो मैटरनिटी लीव पर हैं, जो मार्च के आखिरी हफ्ते में अवकाश से लौटने वाली हैं. अभी केवल छह अनुवादक काम कर रहे हैं. अगर सभी आठ अनुवादकों को अयोध्या विवाद से जुड़े दस्तावेजों के अनुवाद के काम पर लगा दिया जाए, तब भी कम से कम तीन महीने का समय लग सकता है. यानी अनुवाद और समझौते की कोशिश के नाम पर अयोध्या मामला एक बार फिर ठंडे बस्ते में चला गया है. अदालत समझौते की उम्मीद तलाशेगी, मुस्लिम पक्षकार दस्तावेजों के अनुवाद की सत्यता परखेंगे और तब तक लोकसभा चुनाव संपन्न हो चुका होगा.