प्रो. रीता सिंह समाजशास्त्री।
भारत की यह विडम्बना है कि यहां स्त्री को देवी माना जाता है एवं वस्तु की तरह उपभोग भी किया जाता है। विश्व के लगभग हर क्षेत्र में जहां केवल पुरुषों का वर्चस्व था वहां आज स्त्री अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है। तमाम प्रगति और आधुनिकता के बावजूद अधिकांश पुरुषों की नजर में स्त्री महज एक देह के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। स्त्रियों के प्रति समाज की चिंता, कानून एवं विकास कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के बाद भी अपराध दर बढ़ती ही जा रही है। हमारा देश विकास की प्रत्येक चुनौती का उत्तर देने में सक्षम है किन्तु मानव निर्मित अमानवीय चुनौतियों के प्रबन्धन में असमर्थ है। हम किंकर्तव्यविमूढ़ अपने को ठगा सा महसूस करते हैं। शिक्षा के विकास स्तर को देखकर ऐसा लगता था कि स्त्री की स्थिति बेहतर होगी। शायद वे भी मानव की श्रेणी में आएंगी परन्तु यह एक मिथ्या या सपना सा प्रतीत होने लगा है। आज महिला अपराध की रेखा विकास की रेखा की तरह लगातार ऊपर की ओर ही जा रही है।
भारतीय संविधान में स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त है। हमें लिंग के आधार पर कोई विशेष कार्य नहीं दिया गया है किन्तु व्यावहारिक रूप में वह स्थिति नहीं है जो सैद्धान्तिक रूप में स्वीकार की गई है। हमें आज भी परम्परावादी दृष्टिकोण से मुक्ति नहीं मिल पायी है। स्त्री की पहचान उसके पिता पुत्र व पति से होती है। ऐसे में स्त्री के लिए शेष अधिकारों की बात करना बेमानी होगा। कन्या भ्रूण हत्या, लैंगिक भेदभाव, यौन शोषण के साथ-साथ कन्या बलात्कार भी स्त्री अधिकार हनन की लम्बी फेहरिस्त में जुड़ गया है। वास्तविक आंकड़े तो मिलते नहीं, जो प्राप्त होते हैं उसमें से अधिकांश घटनाएं अपनों द्वारा ही घटित होती हैं। मानो समाज में समय-समय पर शोषित एवं अपमानित होना ही स्त्रियों का मौलिक अधिकार है। आश्चर्य की बात यह है कि अक्सर वह व्यक्ति जिस पर सुरक्षा एवं न्याय की जिम्मेदारी होती है, वही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अपराधों में लिप्त होता है।
समाज के प्रत्येक स्तर पर दिखने वाले भेदभाव के बारे में गम्भीरता से विचार करने पर लगता है कि स्त्रियों को कमजोर व हीन बनाकर रखने का षड़यन्त्र चल रहा है। घर हो या कार्यस्थल पहले तो यह सीख दी जाती है कि यह कार्य तुम्हारा नहीं है और तुम इसको नहीं कर सकती। यदि आगे बढ़कर साबित करने की कोशिश की तो सबक सिखाया जाएगा। सबक सिखाने का सबसे सरल व घिनौना रास्ता है बलात्कार। पुरुषों का ऐसा कृत्य जिसमें स्त्री शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक तौर पर आहत होती है। बाल्यावस्था में बलात्कार की शिकार बच्ची को तो दुनिया ही दुश्मन नजर आएगी। ऐसे में परिवार द्वारा चुप रहने की सलाह उसे और भी अशक्त बना देती है। जिससे वो दुर्व्यवहार को अपनी नियति मान लेती है। आज बालिकाओं व स्त्रियों से छेड़छाड़ के आंकड़ों को देखेंगे तो सिर शर्म से झुक जाएगा कि हम मानवों के साथ रहते हैं या हैवानों के साथ रहते हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार प्रति बीस मिनट में किसी न किसी महिला के साथ दुष्कर्म होता है। क्षोभ का विषय यह है कि नन्ही बालिका से लेकर वृद्धा तक को इसका शिकार बनना पड़ता है। 2007 में महिला एवं बाल विकास विभाग की तरफ से किए गए एक सर्वे से पता चलता है कि देश में 50 प्रतिशत से अधिक बच्चे यौन शोषण के शिकार होते हैं। ऐसी घटनाएं गांव से लेकर बड़े शहरों तक में होती हैं। किसी कानून या एक्ट का भय भी इन घटनाओं को नहीं रोक पा रहा है। सर्वे के अनुसार बच्चियों के साथ अमानवीय कृत्य करने वाले लोगों में लगभग 80 प्रतिशत उनके अपने रिश्तेदार, अध्यापक एवं आसपास के लोग होते हैं। अत: हमें चुप्पी तोड़नी होगी क्योंकि यौन शोषण की जड़ कहीं न कहीं हमारी सामाजिक संरचना के अन्दर ही है।
2012- नई दिल्ली में निर्भया केस के पश्चात जनता का जो सैलाब जनपथ पर उतरा उसे देखकर ऐसा लगा कि समाज परिवर्तन का वक्त आ गया। महीनों तक मोमबत्तियों की रोशनी हमारी आशा की किरण बनी रही। कानून बदले, रेप से जुड़े टैबू व सच में परिवर्तन हुआ। नारी को दोषी समझने वाला समाज वास्तविक अपराधी को पहचानने लगा। लोग खुलकर बलात्कार जैसे विषय के कारण व निवारण पर चर्चा करने लगे। ऐसा प्रतीत हुआ कि अब सम्भवत: महिला अपराध की दर में कमी होगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ, बलात्कार के साथ हत्या जैसी क्रूर वारदात होने लगीं। वर्तमान समय में संवेदनहीनता की चरम सीमा पार करके लोग धर्म एवं जातिगत बदलने को भी बलात्कार के साथ जोड़कर राजनीति करने लगे हैं।
आज के प्रबुद्ध समाज में भी स्त्री अपहरण और रेप हो रहे हैं। जनवरी 2018- कश्मीर में कठुआ के पास रसना गांव में आठ वर्षीय बालिका का मन्दिर परिसर में कई दिन तक कई व्यक्तियों द्वारा शारीरिक, मानसिक शोषण होता रहा। अन्त में क्रूरता से उसकी हत्या कर दी गई। बलात्कार का कारण जमीन खाली कराना बताया गया। यह घटना सड़क से संसद तक इसलिए पहुंची क्योंकि उसे धार्मिक ढंग देकर राजनीति का प्रयास कूटनीतिज्ञों द्वारा किया जाने लगा।
दिल्ली में तीन वर्ष की बालिका के साथ दुर्व्यवहार स्कूल के कर्मचारी द्वारा होता रहा। बालिका भय वश माता-पिता को नहीं बता सकी। उसके भय व असामान्य व्यवहार से माता-पिता सजग हुए। ऐसा आज असंख्य बच्चों के साथ हो रहा है। कुछ कह पाते हैं और कुछ सहते रहते हैं। बच्चों की बात पर माता-पिता या तो विश्वास नहीं करते या परिवार की घटना होने और बदनामी के भय से उसे छिपाने का प्रयास करते हैं। उनमें सत्य का सामना करने की क्षमता नहीं होती। जिसका परिणाम अपराधी की हिम्मत बढ़ती है और बच्चों का आत्मविश्वास भी नहीं लौटता।
मध्य प्रदेश के मंदसौर में मासूम के साथ हुई हैवानियत ने लोगों को चुप्पी तोड़ने पर मजबूर कर दिया। इस घटना के खिलाफ सभी वर्ग, जाति एवं धर्म के लोगों ने विरोध खुलकर प्रदर्शित किया है। घटना का राजनीतिकरण भी हुआ। नेतागण वहां हाल पूछने के बहाने अपनी पार्टी की तारीफ व अपना जय-जयकार कराने में लग गए जिससे उनकी संवेदनहीनता स्पष्ट रूप में उजागर हुई। धार्मिक रंग में रंगे लोगों ने सांप्रदायिक दंगे करने का प्रयास भी किया। कुछ लोगों ने कठुआ कांड के बदले का नाम भी दिया। परन्तु हैवानों का कोई धर्म नहीं होता। इसे साबित कर दिया मंदसौर के लोगों ने, जब दोषियों को फांसी की सजा की मांग करते हुए सभी धर्मांे के लोग सड़क पर एक साथ उतर आए।
परिजनों एवं डॉक्टरों का कहना है कि बच्ची की हालत में सुधार हो रहा है। जख्म गहरे हैं। घाव भरने में वक्त लगेगा। ये घाव तो जिस्मानी हैं। बच्ची के रुहानी घाव को भरने में साल दो साल या पूरी जिन्दगी भी लग सकती है। वह कभी किसी व्यक्ति पर भरोसा नहीं कर पाएगी। मंदसौर घटना के चार दिन बाद ही सतना में चार वर्ष की बालिका का बलात्कार एक अध्यापक ने किया। प्रश्न यह है कि समाज निर्माण में अहम भूमिका निभाने वाला व्यक्ति ही हैवान है तो उस समाज व वहां के बच्चों का भविष्य कैसा होगा? ऐसी घटनाएं प्रतिदिन अखबार के हर पृष्ठ पर दिखाई देती हैं। अपराधी मात्र बालिका का रेप नहीं करते वरन वे अपने संस्कारों का भी रेप करते हंै। समाज, शिक्षा परिवार व कानून सभी को कठघरे में लाकर खड़ा कर देते हैं। नित्य होने वाली ऐसी घटना का क्या अर्थ निकाला जाए कि हमारा समाज मूल्य विहीन हो गया है या कानून व्यवस्था चरमरा गई है। लोगों में कानून का भय खत्म हो गया है।
आज भी अज्ञानता, अशिक्षा, निर्धनता एवं समाज के तानों के भय से स्त्रियां व बालिकाएं कानून एवं अन्य उपायों को अपनाने में स्वयं को असमर्थ पाती हैं। पुरुष का स्वभाव या सामान्य व्यवहार मानकर चुप रहती हैं। उन्हें इस बात का एहसास भी नहीं होता कि उनका भी अधिकार है। वे अत्याचार को अपना भाग्य एवं नियति समझ कर सहती रहती हैं। यूं तो बलात्कार जैसे जघन्य अपराध में आयु का कोई अर्थ नहीं होता। छह माह से लेकर 80 वर्ष तक की वृद्धा तक इनका शिकार होती है। परन्तु आंकड़ों के अनुसार अधिकांश घटनाएं युवतियों के साथ होती हैं। दुराचार एवं अन्य उत्पीड़न की घटनाओं में जब नारी सार्वजनिक अपमान का सामना करती है, तो हमारे समाज में शायद ही कोई उसे न्याय दिलाने सामने आता है। यदि आ भी जाए तो अपने नाम या फायदे के लिए कुछ दिनों तक उसी के दर्द का प्रयोग करता है। इतना ही नहीं, नारी को देवी मानने वाली हमारी रूढ़िवादी जनता का रवैया उस उत्पीड़ित महिला के प्रति पूरी तरह नकारात्मक और संवेदनहीन हो जाता है। निरपराध होते हुए भी समाज द्वारा उसे ही अपराधी करार दिया जाता है।
भारतीय संविधान द्वारा महिलाओं के समानता हेतु कानून हैं। किन्तु विडम्बना यह है कि अधिकांश महिलाएं एक्ट एवं कानून से अनभिज्ञ हैं। गृह मंत्रालय के पंजीकरण ब्यूरो के अनुसार स्त्रियां हर 47 मिनट में एक बलात्कार, 44 मिनट में अपहरण, 40 मिनट में छेड़छाड का शिकार होती हंै। हर तीसरी महिला पति या किसी सम्बन्धी के अत्याचार का सामना करती है। ये तो सरकारी आंकड़े हैं जो सत्य से कोसों दूर हैं, क्योंकि अधिकांश महिलाओं के मामले लोक लाज के भय से आंकड़ों तक पहुंचते ही नहीं हैं। चण्डीगढ़ उच्च न्यायालय के आसीन न्यायाधीश जस्टिस के. कानन का कहना है, ‘महिला अपराधों पर सख्त कानून बनाने की जरूरत है। आज भी अपराध पीड़ितों को समाज में अपमानित व संदेह की दृष्टि से देखा जाता है जिससे पीड़ित खुलकर अपराध के विरोध में अपना पक्ष नहीं रख पाते। इससे अपराधियों का हौसला बढ़ता है। अत: अपराध निन्तर बढ़ता ही जा रहा है। हम स्त्रियों को ही संस्कार व सम्मान की शिक्षा देते हैं। अपने बेटों को क्यों नहीं सिखाते नारी का सम्मान करें। दूसरों के अधिकारों का हनन न करें। वे स्त्री को देह से परे देखने का प्रयास करें। जिस दिन पुरुषों की सोच देह से परे हो जाएगी उसी दिन महिला अपराध का ग्राफ गिरता चला जाएगा।
स्त्री को कई विशेषणों में अबला, गोरी, कोमलांगी कहा जाता रहा है। ये सारे विशेषण बताते हैं कि नारी को नारी के रूप में नहीं देखा गया। नारी के अबला रूप की पुरुष मानसिकता व धारणा आज भी समाज में गहराई तक है। इसे बदलने की आवश्यकता है। स्त्री को उसकी प्रतिभा, योग्यता और क्षमता के अनुरूप अवसर मिलते ही वह पुरुष से अधिक कर्तव्यनिष्ठ साबित होगी। इस मानसिकता के तहत परिवारों को स्त्री के प्रति कायम क्षीण और हीन मानसिकता को बदलना होगा। समाज की दूषित प्रथा व परम्परा को हम आज तक बदलने में सफल न हो सके। बेटी को पढ़ाने व बढ़ाने की बात करते हैं। वास्तविकता तो यह है कि हम बेटी को बचाने की बात करनी होगी। आज जब तक अपने स्वार्थ की हानि न हो तो लोग शोषित स्त्री को अराजक तत्वों से बचाने या सहयोग करने से बचते हैं। इसलिए जब किसी महिला के साथ कोई बदसलूकी कर रहा होता है तो लोग विरोध करने की जगह उसे एक तमाशे के रूप में देखते रहते हैं। अब तो घटना को मोबाइल में कैद करके मीडिया में भी बेच देते हैं। उनमें संवेदना एवं दुख नामक संवेग भी समाप्त हो चुके हैं। यही कारण है कि पिछले दस सालों में स्त्री व बालिकाओं के प्रति अपराध में तेजी से वृद्धि हुई है। आंकड़े बताते हैं कि 2007 में जहां देश में स्त्री के प्रति अपराधों की संख्या 1,85,312 थी वहीं 2008 में छलांग लगाते हुए वह 2,03,804 जा पहुंची। इन आंकड़ों को देखकर लगता है कि परिवार में भी स्त्री व बेटी सुरक्षित नहीं रह गयी। नित नए कानून बन रहे हैं। फिर भी अपराधी खुले घूमते हैं, छूट जाते हैं और पुन: उसी कठुआ अपराध में लिप्त रहते हैं। जिसका उदाहरण मंदसौर एवं सतना जैसी घटनाएं हैं।
समाज में बढ़ते वहशीपन का विरोध हर स्तर पर होना चाहिए। बलात्कारी का कोई धर्म एवं जाति नहीं होती है। क्योंकि धर्म व जाति तो इन्सानों के लिए है बहशी दरिन्दों के लिए नहीं। मानवता की दुहाई देकर सजा कम करने की बात यदि कोई करता है तो उसे सोचना चाहिए कि यदि मानवता होती तो ऐसी घटना ही नहीं होती।
आज आवश्यकता है समाज के हर वर्ग को आवाज बुलन्द करने की कि दुष्कर्म में लिप्त अपराधियों को दंडित किया जाए। हम सबको अपनी चुप्पी तोड़नी होगी। देश की मोमबत्तियां जलते-जलते थक चुकी हैं। अगर नहीं थके हैं तो वो हैवान, जो मूल्य धर्म वर्ग से परे बिना भय के ऐसे अमानवीय कृत्य कर जाते हैं, जिनसे पूरा विश्व हिल जाता है- वे कैसे इतने बेखौफ हैं। किसी की नाराजगी, बदला चुकाने का सबसे सरल तरीका है रेप। इस मानसिकता में परिवर्तन लाना ही होगा। कानूनी एवं सामाजिक दृष्टि से ऐसे अपराधियों का कृत्य क्षम्य नहीं है।
साथ ही साथ समाज के हर व्यक्ति को जागरूक होना होगा। अपने बच्चों को शिक्षित करें। माता-पिता अपने बच्चों पर विश्वास करें क्योंकि अपराधी अधिकांशत: आस-पास के लोग एवं रिश्तेदार होते हैं। अत: बच्चे यदि कुछ शिकायत करते हैं तो उनकी बात सुनें या सतर्क हो जाएं। विद्यालयों एवं परिवार में भी गुड व बैड टच की जानकारी दी जाए। अनजान व्यक्तियों के साथ न उन्हें भेजा जाए न बच्चे स्वयं जाएं- ऐसी शिक्षा दी जाए। सरकारी तंत्र भी ऐसी घटनाओं को गंभीरता से देखे। उनकी उदासीनता से भी ऐसे अपराधियों का मनोबल बढ़ता है। राजनेता भी अपनी संवेदनशीलता को बढ़ाएं। ऐसी घटनाओं को राजनीति एवं धर्म से नहीं जोड़ना चाहिए। इससे उनका स्वार्थ व छोटापन समाज के सम्मुख आता है। वे जनता के आदर्श होते हैं अत: उन्हें अपने पद की गरिमा को बनाए रखना चाहिए।
आज ये समस्या एक चुनौती के रूप में हम सबके सामने उभर कर आ रही है जिसका सामना हम सबको समझदारी से करना होगा। समाज के प्रत्येक नागरिक को सुरक्षा, सम्मान एवं खुशहाल जीवन देंगे तभी भारत के विकास की रेखा अपनी चरम सीमा को स्पर्श करेगी।
(लेखिका बीएचयू के सेंटर आॅफ वीमन स्टडीज एंड डेवलपमेंट की कोआॅर्डिनेटर हैं)