अनूप भटनागर
देश की न्यायपालिका के इतिहास में 12 जनवरी, 2018 को एक काले दिन के रूप में हमेशा याद किया जाएगा। इसकी वजह उच्चतम न्यायालय के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों द्वारा उठाया गया एक ऐसा अभूतपूर्व कदम रहा है जिसकी कभी कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। प्रधान न्यायाधीश के बाद चार सबसे वरिष्ठ न्यायाधीशों न्यायमूर्ति जे चेलमेश्वर, न्यायमूर्ति रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर और न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ ने न्यायपालिका के मुखिया न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की कार्यशैली पर सवाल उठाते हुए एक तरह से बगावत ही कर दी।
इन न्यायाधीशों में से न्यायमूर्ति रंजन गोगोई इस साल अक्टूबर में न्यायमूर्ति मिश्रा के सेवानिवृत्त होने पर देश के नए प्रधान न्यायाधीश बनेंगे। हालांकि, शीर्ष अदालत के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों द्वारा प्रधान न्यायाधीश की कार्यशैली और मुकदमों के आवंटन जैसे मुद्दों पर न्यायपालिका के इतिहास में पहली बार इस तरह का कदम उठाया गया है। लेकिन न्यायाधीशों की नियुक्ति से लेकर पसंद के न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष मुकदमों के सूचीबद्ध होने जैसे बिन्दुओं पर लंबे समय से सवाल उठ रहे थे।
उच्चतम न्यायालय के दूसरे वरिष्ठतम न्यायाधीश जे चेलमेश्वर तो समय समय पर उच्चतर न्यायपालिका में नियुक्ति के लिए शीर्ष अदालत की कोलेजियम की कार्यशैली पर भी सवाल उठाते रहे हैं। चार न्यायाधीशों ने अचानक ही प्रेस कांफ्रेंस करके जिस तरह से उच्चतम न्यायालय में प्रशासनिक स्तर पर सब कुछ ठीक नहीं होने का हवाला देते हुए प्रधान न्यायाधीश को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास किया है उससे पूरा देश ही स्तब्ध रह गया। पत्रकारों ने जब उनसे यह जानना चाहा कि क्या वे प्रधान न्यायाधीश पर महाभियोग की कार्यवाही चाहते हैं तो न्यायमूर्ति चेलमेश्वर ने कहा कि अपने शब्दों को हमारे मुंह में डालने का प्रयास मत कीजिए।
इन न्यायाधीशों ने हालांकि इस तरह से प्रेस कांफ्रेस करने को बहुत ही पीड़ादायक बताया लेकिन साथ ही यह भी कहा कि इस संस्थान की रक्षा किए बगैर देश में लोकतंत्र नहीं बचेगा। संवाददाताओं को यह भी बताया गया कि चारों न्यायाधीशों ने पिछले कुछ समय से शीर्ष अदालत में जो कुछ चल रहा था उसे लेकर प्रधान न्यायाधीश को समझाने का भी प्रयास किया और इस प्रयास में उन्हें सफलता नहीं मिली।
तीन अन्य न्यायाधीशों के साथ मीडिया से रूबरू हुए न्यायमूर्ति चेलमेश्वर ने कहा, ‘हमारी इस संस्थान और राष्ट्र के प्रति जिम्मेदारी है और यह किसी भी देश, विशेषकर इस राष्ट्र और न्यायपालिका की संस्था के लिए असाधारण घटना है।’ उन्होंने तो यहां तक कहा कि हम राष्ट्र का कर्ज अदा कर रहे हैं। न्यायमूर्ति चेलमेश्वर का कहना था कि हम चारों को यह भरोसा हो गया है कि इस समय लोकतंत्र दांव पर है। न्यायपालिका की खामियों को हालांकि उन्होंने बताया नहीं लेकिन यह जरूर कहा कि इसमें मुकदमों का आवंटन भी शामिल है।
इन न्यायाधीशों ने प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा को लिखे पत्र में विशेष रूप से न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया में अधिक पारदर्शिता के लिए बहुचर्चित मेमोरेंडम आॅफ प्रोसीजर को अंतिम रूप देने से संबंधित एक प्रकरण में अक्टूबर, 2017 के आदेश का जिक्र अवश्य किया। इस प्रकरण में एक वकील की याचिका पर सुुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल और न्यायमूर्ति उदय यू ललित की पीठ ने अपने आदेश में कहा था कि चूंकि संविधान पीठ ने अक्टूबर, 2015 के फैसले में मेमोरेंडम आॅफ प्रोसीजर को अंतिम रूप देने के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की थी, इसलिए इसे अनिश्चित काल तक अधर में नहीं रखा जा सकता। पीठ ने इस मामले में अटार्नी जनरल के के वेणुगोपाल से जवाब मांगा था। प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ ने चंद दिनों के भीतर ही इस आदेश को उलट दिया था। इसी तरह के कुछ अन्य मामलों में न्यायिक आदेशों की ओर भी इन न्यायाधीशोंं ने संकेत दिया है। पिछले साल नवंबर में एक और चौंकाने वाली घटना हुई थी। यह मामला उच्चतम न्यायालय में लंबित मेडिकल कॉलेज से संबंधित मामले में अनुकूल समाधान के लिए कथित रूप से रिश्वत से जुड़ा था। इस संबंध में उड़ीसा उच्च न्यायालय के एक पूर्व न्यायाधीश को सीबीआई ने गिरफ्तार किया था।
इसे लेकर वकील कामिनी जायसवाल ने उच्चतम न्यायालय मेंं याचिका दायर की। चूंकि प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा एक संविधान पीठ की अध्यक्षता कर रहे थे, इसलिए यह मामला न्यायमूर्ति जे चेलमेश्वर और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर की पीठ के समक्ष आया। वरिष्ठ अधिवक्ता दुश्यंत दवे के तर्क सुनने के बाद इस दो सदस्यीय पीठ ने कहा था कि यह अत्यंत गंभीर मामला है और उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठता के क्रम में पहले पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ इस पर सुनवाई करेगी।
लेकिन एक दिन बाद प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने कामिनी जायसवाल की याचिका पर विचार के लिए संविधान पीठ गठित करने का दो न्यायाधीशों की पीठ का आदेश निरस्त कर दिया। संविधान पीठ ने दो सदस्यीय पीठ के आदेश पर आपत्ति करते हुए कहा कि कोई भी पीठ प्रधान न्यायाधीश द्वारा मामला आवंटित किए जाने के बगैर कोई मामला नहीं ले सकती है क्योंकि प्रधान न्यायाधीश ही पीठ का गठन कर सकते हैं। इसके बाद इसी प्रकरण की निष्पक्ष और स्वतंत्र जांच हेतु विशेष जांच दल गठित करने के लिए कैम्पेन फॉर ज्यूडीशियल एकाउन्टेबिलिटी एंड रिफॉर्म की याचिका न्यायमूर्ति आर के अग्रवाल की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ ने खारिज कर दी और इस संगठन पर 25 लाख रुपये का जुर्माना भी किया था।
ऐसा लगता है कि इस तरह की घटनाओं को लेकर उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीशों के बीच मतभेद पनप रहा था। ऐसी कुछ और भी घटनाएं हुर्इं जिनमें संवेदनशील और महत्वपूर्ण मामलों को वरिष्ठ न्यायाधीशों के पास सुनवाई के लिए सूचीबद्ध नहीं किया गया।
इस तरह की घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में चार न्यायाधीशों ने मुखर होकर यह कदम उठाया। इन न्यायाधीशों की प्रेस कांफ्रेंस के तुरंत बाद प्रधान न्यायाधीश ने अटार्नी जनरल के के वेणुगोपाल से मंत्रणा की तो दूसरी ओर शीर्ष अदालत के अन्य न्यायाधीशों द्वारा भी परस्पर विचार विमर्श करने की जानकारी सामने आई है। इन न्यायाधीशों ने प्रधान न्यायाधीश को लिखे सात पन्नों के पत्र में कुछ मुद्दों के बारे में साफ साफ और कुछ के बारे में इशारों में जिक्र किया था। इन न्यायाधीशों ने कहा था कि गहरी व्यथा के साथ हमने उचित समझा कि शीर्ष अदालत के हाल के कुछ न्यायिक आदेशों को उजागर किया जाए जिसने न्याय प्रदान करने की संपूर्ण प्रणाली के कामकाज और कुछ उच्च न्यायालयों की स्वतंत्रता को प्रतिकूल तरीके से प्रभावित किया है।
पत्र में कहा गया है कि प्रधान न्यायाधीश ही कामकाज आवंटित करने के मामले मे सर्वेसर्वा हैं और यह उनका विशेषाधिकार है। पत्र के अनुसार देश के विधिशास्त्र में यह सुस्थापित व्यवस्था है कि प्रधान न्यायाधीश उच्चतम न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों के बराबर ही होते हैं और न इससे अधिक और न ही इससे कुछ कम होते हैं। लेकिन अनौपचारिक रूप से उन्हें सम्मान दिया जाता है।
इन न्यायाधीशों ने यह भी लिखा कि उन्हें यह लिखते हुए काफी दुख हो रहा है कि पिछले काफी समय से प्रतिवादित व्यवस्था का पालन नहीं हो रहा है और ऐसे कई उदाहरण हैं जब राष्ट्र और संस्था के लिए दूरगामी परिणाम वाले मामलों को प्रधान न्यायाधीशों ने चयनात्मक आधार पर इन मामलों को बगैर किसी तार्किक आधार के अपनी पसंद के न्यायाधीशों को आवंटित कर दिया।
इस पत्र के सार के आलोक में यदि गौर किया जाए तो पाएंगे कि पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम के पुत्र कार्तिक चिदंबरम से संबंधित धन शोधन के मामले में दायर याचिका पर सुनवाई से खुद को अलग करते हुए प्रधान न्यायाधीश ने इस मामले को एक अन्य पीठ को सौंप दिया। न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ जब इस पर सुनवाई कर रही थी तो कार्तिक चिदंबरम के वकील ने मामला इस पीठ के समक्ष आने पर खुशी जाहिर की। इस तरह से खुशी व्यक्त करने की पीठ ने सराहना नहीं की और कहा कि वह अपना सांविधानिक कार्य कर रही है। इस घटना के बाद जाने माने विधिवेत्ताओं ने गहरी चिंता व्यक्त करने के साथ ही उम्मीद जताई कि न्यायाधीशों द्वारा उठाए गए मुद्दों को लेकर व्याप्त गतिरोध सद्भावपूर्वक खत्म हो जाएगा।
विधिवेत्ताओं और पूर्व न्यायाधीशों ने इस घटना को पीड़ादायक और न्यायपालिका की छवि को ठेस पहुंचाने वाला माना है। इन सभी का मानना है कि न्यायपालिका के प्रति जनता का विश्वास बनाए रखने के लिए तत्काल सुधारात्मक कदम उठाने की आवश्यकता है। हालांकि, सरकार ने इसे न्यायपालिका का अंदरूनी मामला बताते हुए इसमें किसी भी तरह के हस्तक्षेप की संभावना से इनकार किया है, लेकिन राजनीतिक दलों की प्रतिक्रियाएं ज्यादा चिंताजनक हैं। कुछ राजनीतिक दलों और उनके नेताओं ने इस घटनाक्रम को लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी बताया है जबकि भाजपा के एक नेता ने प्रधानमंत्री से इस मामले में हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया है।
इस घटना ने यह संकेत तो दे ही दिया है कि न्यायपालिका में सब कुछ ठीक नहीं है और इसमें तत्काल बड़े पैमाने पर संस्थागत सुधार की आवश्यकता है। इसलिए इन न्यायाधीशों द्वारा उठाए गए मुद्दों पर आरोप प्रत्यारोप की बजाय इनका यथाशीघ्र सर्वमान्य समाधान खोजना जरूरी है ताकि भविष्य में इस तरह की घटना की पुनरावृत्ति नहीं हो और न्यायपालिका के प्रति जनता का अटूट विश्वास पूर्ववत बना रहे।
<इसमें कोई दो राय नहीं है कि न्यायपालिका में पारदर्शिता के अभाव को लेकर लंबे समय से आवाजें उठ रही थीं। इस घटना के बाद तो निश्चित ही यह उम्मीद है कि सभी संबंधित पक्ष आत्म निरीक्षण करेंगे और यह पता लगाने का प्रयास करेंगे कि आखिर यह नौबत क्यों आई।