मां बनने का पछतावा

संध्या द्विवेदी ।
‘पहली बार मां बनने पर सुखद अहसास हुआ मगर मां बनने के बाद बच्चों की प्राथमिक जिम्मेदारी मुझ पर डाले जाने से उलझन पैदा हुई। आप मानो या न मानो बच्चा पैदा करना फिर उसे पालना मां की ही जिम्मेदारी है। अगर आप इससे तनिक भी पीछे हटते हैं तो आप समाज में घृणित नजरों से देखी जाएंगी। आपका सजना-धजना, घूमना-फिरना, आपकी नौकरी सब पीछे, पहले आप मां बनो। गलती से भी आपने अपने लिए कुछ सोच लिया तो आप पर बुरी औरत का तमगा जड़ दिया जाएगा।’ यह कहना है सुरभि का। सुरभि जानेमाने कॉल सेंटर में बतौर टीम लीडर काम कर चुकी हैं। दो साल पहले बच्चा होने पर उन्हें जॉब छोड़ना पड़ा। अब जब वह दोबारा नौकरी तलाश रही हैं तो उन्हें न तो वह पोजीशन मिल रही है और न ही उतना वेतन। सुरभि कहती हैं, ‘आठ साल का करियर इन दो सालों में मानों शून्य हो गया है। कभी कभी लगता है कि मां बनकर कहीं मैंने खुद को खत्म तो नहीं कर लिया।’

एक राष्ट्रीय अखबार में बतौर सीनियर सब एडिटर काम कर चुकी अनीता का कहना है, ‘करीब नौ साल जॉब करने के बाद जब मैं गर्भवती हुई तो घरवालों और दोस्तों ने सलाह दी कि मुझे जॉब छोड़ देनी चाहिए। घरवालों ने कहा कि पति अच्छी तनख्वाह पाते हैं। तुम्हें क्या जरूरत? मैंने जॉब छोड़ दी। मगर आज मैं आर्थिक रूप से अपने पति पर निर्भर हूं। मुझसे पूछा जाता है कि इतने महंगे ब्यूटी पार्लर की क्या जरूरत है? घर पर ही तो रहना है! इतना महंगा कपड़ा क्या करोगी? फोन का बिल जो पहले से बहुत कम आता है, उस पर भी सवाल उठते हैं। बच्चा होने के बाद मेरी सोशल लाइफ खत्म हो गई। इस बारे में कोई खुलकर नहीं बोलता मगर अपनी पहचान जब खत्म होती है तो पछतावा जरूर होता है।’

महिलाओं के लिए काम करने वाली एक संस्था में नौकरी कर रही संगीता का भी कुछ ऐसा ही मानना है। उन्होंने बताया, ‘घरवाले तो यह मानकर ही चलते हैं कि बच्चा मां की जिम्मेदारी है। उससे भी बुरा तब होता है जब दफ्तर में आपको सारी सुविधाएं न मिलें। मेरे साथ तो अजीब हुआ। मैं महिलाओं की आवाज उठाने वाली संस्था में काम करती हूं। मगर बिना मेरी समस्याओं को समझे मुझ पर जबरन काम थोप दिया जाता है। मेरा ट्रांसफर एक शहर से दूसरे शहर कर दिया जाता है। बिना यह सोचे कि मेरे बच्चों की पढ़ाई का क्या होगा? जब यह सवाल उठाती हूं तो जवाब मिलता है कि आप जॉब छोड़ दीजिए। मैं कई सालों से इस संस्था में एक प्रमुख हिस्सा बनकर रही हूं। मगर बिना मशविरा किए मुझे कहीं भी कभी भी भेज दिया जाता है। समझ नहीं आता कि जब यह हाल महिलाओं की संस्था का है तो फिर दूसरी जगह क्या होता होगा? मैं अब नौकरी छोड़ नहीं सकती क्योंकि खर्च बढ़ गए हैं। घरवालों से मुझे नौकरी करने की छूट इसीलिए मिली थी क्योंकि मैं यह तर्क देती थी कि आर्थिक रूप से मजबूत होकर मैं अपने बच्चों का बेहतर भविष्य बनाऊंगी। लेकिन अकसर एक जगह से दूसरी जगह जाने से मेरे बच्चों की पढ़ाई सबसे ज्यादा प्रभावित हो रही है। अब मेरे घरवाले लगातार दबाव बना रहे हैं, ताने मार रहे हैं। मेरी शादी कम उम्र में हो गई थी तो मां भी जल्दी ही बन गई। अब सोचती हूं कि जब मेरी उम्र कुछ करने की थी तब मैंने बच्चों को पालने में वक्त गुजार दिया। आज भी बच्चों से आगे मैं सोच नहीं सकती। क्या करूं? दुविधा में हूं। सोचती हूं कि बच्चे क्या सिर्फ मेरी जिम्मेदारी हैं? पति पर यह जवाबदेही क्यों नहीं है? मेरा संस्थान मेरा योगदान कैसे भूल सकता है? काश मैं मां न होती तो यह घुटन तो न होती!’

यह समस्या ज्यादातर पेशेवर महिलाओं की है। फर्क सिर्फ इतना है कि सामाजिक धारणा और ढांचे के विपरीत जाकर इस तरह की बात करने से महिलाएं घबराती हैं। यह हाल भारत ही नहीं बल्कि जर्मनी और इजरायल जैसे देशों का भी है। इजरायल की लेखिका ओरना डोनथ कहती हैं, ‘पुरुषों की तरह हम औरतों को अलग-अलग भूमिकाओं में आज भी स्वीकार नहीं कर पाते। मुझे नहीं लगता कि पहले और अब में कोई अंतर आया है। पहले भी औरत को बच्चों के पालन पोषण की भूमिका में प्राथमिकता के साथ देखा जाता था और आज भी यही उसकी पहचान है। मातृत्व को लेकर समाज में एक काल्पनिक माहौल बनाया जाता है या यूं कहें कि कई कहानियां गढ़कर भ्रम फैलाया जाता है।’

इजराइली लेखिका डोनथ की जर्मनी से जब ‘रिग्रेटिंग मदरहुड’ शीर्षक से किताब प्रकाशित हुई तो वहां की मीडिया, सोशल मीडिया में हड़कंप मच गया। सोशल साइट ट्विटर पर हैशटैग के साथ ‘रिग्रेटिंग मदरहुड’ ट्रेंड चला। मजेदार बात यह है कि इजराइल में तो यह बहस हफ्ते भर में ही खत्म हो गई मगर जर्मनी जैसे विकसित देश में यह बहस महीनों चली। ओरना डोनथ की किताब उन 23 औरतों के इंटरव्यू पर आधारित है जिन्होंने मातृत्व को लेकर पछतावा जाहिर किया। इस पछतावे के पीछे कई कारण सामने आए। मगर जब ‘रिग्रेटिंग मदरहुड’ ने ट्विटर पर ट्रेंड किया तो हंगामा पूरे देश में मचा। भारत से भी कई टिप्पणियां आर्इं। मसलन, हे भगवान यह कैसी बहस चल रही है! क्या कोई मां मातृत्व को लेकर पछता सकती है? ट्विटर पर बंगलुरु की श्रुति की यह टिप्पणी दरअसल अधिकांश समाज खासतौर पर भारतीय समाज की प्रतिक्रिया का ही हिस्सा है।

पछतावे की वजह अस्तित्व का संकट : अरुणा ब्रूटा
जानीमानी मनोवैज्ञानिक अरुणा ब्रूटा भी मानती हैं कि इस मुद्दे पर ज्यादातर महिलाएं बोलना नहीं चाहतीं। जो बोलती हैं वह अपनी पहचान छिपाकर रखना चाहती हैं। डॉ. ब्रूटा यह भी कहती हैं कि यह भाव अस्थायी होता है। मातृत्व के पछतावे के पीछे यह बिल्कुल नहीं होता कि औरत अपने बच्चे से नफरत करती है। दरअसल, यह अस्थायी पछतावा भी घर, समाज और दफ्तर में महिलाओं को मां बनने के बाद उसे न मिलने वाली सुविधाओं के कारण होता है। कह सकते हैं कि मातृत्व के कारण अस्तित्व का संकट जब खड़ा होता है तो हर मां खीझती है। सोचती है कि काश वह औरत न होकर पुरुष होती। या कम से कम मां न बनती। वो मानती हैं कि हर मां को कभी न कभी यह पछतावा होता है कि वह मां क्यों बनी। यह पछतावा तब ज्यादा होता है जब उसे मां बनने का क्रेडिट नहीं मिलता। ऐसे में वह उन दिनों को याद करने लगती है जब वह आजाद थी। जब मन होता था बाहर जाती थी, काम करती थी। सजती थी, संवरती थी। aruna ji
ब्रूटा कहती हैं कि अपनी आजादी और बच्चे के बीच में से किसी एक को चुनने की दुविधा की भावना है यह पछतावा। खासतौर पर भारत के संदर्भ में देखें तो औरतों पर अप्रत्यक्ष रूप से कई जिम्मेदारियां थोप दी जाती हैं। मां बनना उसके अस्तित्व से जोड़ा जाता है। इस तरह की भावना का आना न तो नया है और न ही गलत। बल्कि संबंध लंबे और बेहतर रहें इसके लिए जरूरी है कि कभी-कभी हम पछताएं भी। इस बहस को नकारत्मक ढंग से न लेकर औरतों की भावनाओं को समझें। उनके ख्वाबों को पूरा करने में मददगार बनें। बच्चे की परवरिश केवल औरत की नहीं बल्कि परिवार की जिम्मेदारी है।
अरुणा ब्रूटा कहती हैं कि भारत और विदेश की महिलाओं की सोच में फर्क है। वह डोनथ की बात से पूरी तरह सहमत नहीं हैं। वह कहती हैं कि अगर यहां हर औरत को सुविधा मिले, सपोर्ट मिले, उसे मातृत्व की वजह से अपनी आजादी और करियर से समझौता न करना पड़े तो 99 फीसदी औरतें मां बनना चाहेंगी। फ्रांस जैसे देशों में गर्भवती महिलाओं और नवजात बच्चों की मांओं को सुविधाएं मिलती हैं। नवजात बच्चों की मां आॅफिस के काम के बीच में अपने बच्चे को स्तनपान करा सकती है। उसे एक-दो बार देखकर आ सकती हैं। ऐसे में जब भारत में भी महिलाएं बराबरी से आगे बढ़ रही हैं तो इस तरह की सुविधाएं मुहैया करवानी चाहिए।

क्वेरा जैसी दूसरी सोशल साइट पर जब यह सवाल पूछा गया तो ज्यादातर लोगों ने इस सवाल पर ही सवाल उठा दिए। पेशे से टीचर दिल्ली की एक महिला ने साफ कहा कि ‘मां बनना भगवान का वरदान है। मां नहीं बनने पर पछताते तो कई महिलाओं को देखा है मगर मां बनने पर पछतावा…कोई औरत भला कैसे कर सकती है? मातृत्व का सुख हर सुख से बड़ा है। मैं तो कहती हूं जो औरत मां बनने पर पछतावा महसूस करती है, उसे औरत कहलाने का हक ही नहीं है।’ दूसरे जवाब भी कुछ ऐसे ही थे। एक जवाब मिला- मां बनने से पहले हमें सोच लेना चाहिए कि हमारी प्राथमिकता क्या है क्योंकि बच्चा आने के बाद आप पहले मां हो फिर कुछ और। और पछतावा कैसा, यह तो हमारी ताकत है कि केवल औरत ही मां बन सकती है।

मोबाइल चैटिंग एप व्हाट्सअप पर भी अलग-अलग जवाब मिले। थॉमसन डिजिटल कंपनी में सिस्टम एनालिस्ट अंकित कहते हैं, ‘नौकरी करना औरत की जरूरत है मगर मां बनना प्राकृतिक है। इसलिए जो औरत मां बनने या मातृत्व को लेकर पछतावा करती हंै वह प्रकृति के खिलाफ हैं। यह औरत और भगवान दोनों की गरिमा से जुड़ा मसला है। इसलिए हमें करना यह चाहिए कि हम महिलाओं के लिए ऐसा माहौल बनाएं जिससे वह अपने इस प्राकृतिक गुण का वहन करते हुए दूसरे काम कर सकें।’

भारत में भी यह ट्रेंड बढ़ रहा है

क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट महिमा त्रिवेदी का भी मानना है कि कई औरतें मां बनने पर पछतावा महसूस करती हैं। औरतों की प्राथमिकताएं भी बदल रही हैं। उन्होंने अपने मरीजों की केस स्टडी का हवाला देते हुए हमें इस बारे में विस्तार से बताया। उनका कहना है कि भारत के महानगरों में जहां औरतें पेशेवर हैं वहां यह ट्रेंड लगातार बढ़ रहा है। वह खुलकर मानती हैं कि उनका बच्चा उनके करियर में बाधा है। अभी हाल ही में एक महिला ने मुझसे संपर्क किया। वह कॉल सेंटर में काम करती थी। अच्छी पोजीशन में थी। उनके एक बच्चा है। बच्चे की देखरेख को लेकर इतना विवाद हुआ कि बच्चे को पति के पास छोड़कर वह मायके चली गई। उनका कहना था कि मेरा वेतन पति से ज्यादा है। मेरा करियर ज्यादा उज्जवल है। फिर मैं अपने करियर से समझौता क्यों करूं? पति को बच्चे की देखरेख की प्राथमिक जिम्मेदारी लेनी चाहिए। मैं बस उनकी मदद कर सकती हूं। वह बार बार कह रही थी कि मैंने पहले क्यों नहीं सोचा कि मां बनकर मैं अपनी जिंदगी दांव पर लगा रही हूं।

mahima-trivediमहिमा त्रिवेदी का कहना कि दरअसल औरतें अब महत्वाकांक्षी हैं। उनकी सोशल लाइफ है। वह क्वालिटी आॅफ लाइफ को लेकर भी सजग हैं। वह नहीं चाहतीं कि बच्चे की देखरेख में अपना कीमती समय दें। दरअसल, कहीं न कहीं औरत और मर्द में बराबरी की सोच से भी यह भावना उपजी है। कई औरतें मातृत्व को लेकर पछतावा महसूस करती हैं। अब तो वो इसका इजहार भी कर रही हैं। उन्होंने बताया कि एक कंपनी में बतौर सीनियर साइकोलॉजिस्ट काम करने के दौरान एक महिला सहकर्मी के गर्भधारण करने का पछतावा अकसर उनके चेहरे पर झलक जाता था। वह महिला वहां बतौर डायटीशियन थीं। प्रेगनेंसी के शुरुआती महीनों में उसे बैठने में दिक्कत होती थी। उसने अपने बॉस से कहा कि वह हर आधे घंटे में उठकर टहलना चाहती है तो जवाब मिला कि पैसे कटेंगे। उसने मुझसे कहा कि मैं अभी बच्चा नहीं चाहती थी मगर मेरे पति चाहते थे।

त्रिवेदी ने बताया कि ऐसा ही एक केस मेरे सामने और आया। एक महिला बैंक परीक्षा की तैयारी कर रही थी। परीक्षा से पहले ही वह प्रेग्नेंट हो गई। परीक्षा के बीच में आई इस बाधा को लेकर उसे बहुत पछतावा था। उसके पास विकल्प होता तो शायद वह अबार्सन करा लेती। उनके मुताबिक यह कहना कि भारत में मातृत्व को लेकर किसी औरत में पछतावे की भावना नहीं होती, गलत होगा। पहले का जमाना अलग था जब औरत का वजूद उसकी औलाद और घर की चाहरदीवारी होती थी। उसके पास खुद को साबित करने का भी यही रास्ता था। लेकिन जैसे-जैसे मौके बढ़ रहे हैं औरतें खुद को अलग-अलग भूमिकाओं में देख रही हैं। इसलिए इस तरह की भावना लगातार बढ़ रही है।

महिमा त्रिवेदी का कहना है कि बच्चा केवल मां का नहीं बल्कि पूरे परिवार का होता है। सभी को अपने काम के अलावा यह जिम्मेदारी भी साझी करनी चाहिए। जैसे-जैसे पति और परिवार की साझीदारी बच्चे को पालने में बढ़ेगी, वैसे-वैसे औरत बच्चे के जन्म के बाद अपनी पहले जैसी जिंदगी जीने के लिए खुद को फिट कर पाएगी। पहचान का संकट ही ऐसी भावनाएं पैदा करता है। अगर औरत का वजूद बरकरार रहेगा तो यह भावना गुम हो जाएगी।

‘रिग्रेटिंग मदरहुड’ में औरतों ने खुलकर स्वीकार किया कि उन्हें मां बनने या आपने मातृत्व पर पछतावा है। इस किताब में मातृत्व के दौरान हुई उस दुविधा को भी विस्तृत रूप से दर्ज किया गया है जिसमें एक मां के भीतर अपने बच्चे को लेकर अथाह प्रेम उमड़ता है तो दूसरी तरफ उस बच्चे की जिम्मेदारी के कारण पछतावा भी होता है। डोनेथ मानती हैं कि एक औरत सामाजिक धारणा के अनुकूल मां बनने पर खुशी तो जाहिर कर सकती है लेकिन पछतावा महसूस करने पर उस पर एक बुरी औरत होने का तमगा चस्पा कर दिया जाता है। यही वजह है की औरतें अपनी इस भावना को दबाए रहती हैं। दरअसल, यह भावना उस खीझ की प्रतिक्रिया होती है जो उस पर थोपे गए अतिरिक्त भार से पैदा होती है। बच्चे के पालन पोषण की सारी जिम्मेदारी उस पर डाल दी जाती है।

डोनथ कहती हैं कि पछतावे की भावना को अपराध से जोड़कर देखा जाता है। इसलिए जैसे ही इस शब्द का इस्तेमाल मैंने किया, हंगामा हो गया। पहले भी और आज भी मातृत्व को सुख और औरत की पूर्णता के साथ जोड़कर देखा जाता है। हमने पुरुषों को कई भूमिकाओं में स्वीकार कर लिया लेकिन औरतों के साथ मां की भूमिका को मजबूती से जोड़ दिया। मेरा मानना है कि कोई भी औरत मां बनने से ज्यादा जरूरी काम भी कर सकती है। मसलन, वह देश की आर्थिकी में हिस्सेदारी निभा सकती है या बहुत कुछ ऐसा कर सकती है जो मां बनने से ज्यादा जरूरी और संतुष्ट करने वाला हो सकता है। दूसरी तरफ वह यह भी कहती हैं कि इस धारणा से भी बचना चाहिए कि अगर कोई महिला मां नहीं बनती है तो उसे करियर की बुलंदियों पर पहुंचना चाहिए। क्या पुरुष अगर पिता नहीं बनता है तो उससे भी हम यही चाहते हैं?

ट्विटर पर जुल्स ग्रे कहती हैं कि शायद इस बहस को गलत संदर्भ में लिया जा रहा है। मसला पछतावे का नहीं बल्कि खीझ का है। वहीं गैब्रलिया का कहना है कि दरअसल इसे गलत तरह से दिखाया जा रहा है। हां यह रोज का संघर्ष जरूर है मगर पछतावा नहीं है। जूडी इस बहस को रुचिकर मानती हैं। वह कहती हैं, हां यह बहस जरूरी है। इस तरह की बहसें कई बातों को सामने लाती हैं। कई पोस्टर भी ट्विटर पर प्रकाशित किए गए। जैसे एक पोस्टर में दिख रहा है कि एक औरत के पैर में जंजीर बंधी है। उसके चेहरे पर दुविधा की लकीरें साफ नजर आ रही हैं। इस जंजीर का दूसरा सिरा बच्चे से बंधा है।

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