अमीश।
अपने स्तंभों और साक्षात्कारों में मैं एक सुनहरे नियम का पालन करने की कोशिश करता हूं: राजनीति पर बोलने या लिखने से बचना। इसकी कई वजहें हैं। उनमें से एक है कि जिन विषयों पर लिखना होता है, मैं पहले उन पर विचार करना पसंद करता हूं। इसलिए, आमतौर पर, जब तक किसी राजनीतिक घटना पर मैं कोई राय बना पाता हूं, वह सामयिक नहीं रह जाती। जून 2014 में, जब एक मीडिया संस्थान ने लिखने को कहा, वह मुद्दा जो हमारे देश के सियासी थिएटर में उभरा था और इसके बारे में मैं पहले भी सोच चुका था, इसलिए, मैंने इस विषय पर अपने विचार व्यक्त करने का फैसला किया।
कुछ संस्थापित बुद्धिजीवी इस प्रकार के विचार रख रहे थे… तब के आम चुनावों में चूंकि नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस या एनडीए को कुल वोटों का 38.5 फीसदी (और भाजपा को 31 फीसदी) ही मिला था, इसलिए उनकी जीत एक प्रकार से अधूरी/अवैध है। हमें बताया गया कि 61.5 फीसदी भारतीयों ने एनडीए को नकार दिया था (और भाजपा को 69 फीसदी ने नकारा था) और इसलिए यह एक वास्तविक प्रतिनिधि सरकार नहीं है। क्या यह निष्पक्ष आलोचना है? मैंने बड़े परिदृश्य में इस मुद्दे की जांच की।
जरा सा पीछे हटते हैं। एक सरकार का वजूद क्यों होता है? क्या यह मुख्य रूप से देश की विभिन्न संस्कृतियों, लोगों और दृष्टिकोणों के लघु-रूप के तौर पर देश का प्रतिनिधित्व करना है? या इसका अस्तित्व प्रशासन करने के लिए होता है?
ग्रीक दार्शनिक प्लूटो का स्पष्ट मानना था कि सरकार का प्राथमिक उद्देश्य समाज का दायित्व लेना और प्रशासन करना है। वास्तव में, लोकतंत्र को तो वे हिकारत से देखते थे। उनके अनुसार, सरकार का बेहतरीन रूप धर्मतंत्र-दिव्य शासन- था जिसे वे व्यावहारिक संदर्भ में असंभव मानते थे। प्लूटो की दूसरी प्राथमिकता कुलीनतंत्र था… दार्शनिक-राजाओं या जैसा कि वे उन्हें कहते थे, रजत पुरुषों का शासन। इनकी कल्पना उन पुरुषों के रूप में की गई थी जिन्हें सुनियोजित ढंग से उन लोगों से बेहतर बनने के लिए प्रशिक्षित किया जाता था जिनका वे नेतृत्व करते थे, ताकि वे अपने देश के आध्यात्मिक और भौतिक विकास का मार्गदर्शन कर सकें।
प्राचीन भारतीय भी मानते थे कि सरकार का प्राथमिक कार्य शासन करना है, देश के विभिन्न दृष्टिकोणों का प्रतिनिधित्व करना नहीं। लेकिन उनका विश्वास था कि राजाओं को पूर्ण शक्ति का उपयोग करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए! इसीलिए प्राचीन भारत में राजगुरु और राजसभा की व्यवस्था थी ताकि वे शासकों पर किसी सीमा तक नियंत्रण रख सकें। मगर, ये नियंत्रण भी इस मंशा से नहीं बनाए गए थे कि राजाओं को ‘प्रजा के दृष्टिकोणों का प्रतिनिधित्व’ करने के लिए मजबूर किया जाए। उन्हें यह सुनिश्चित करने के लिए बनाया गया था कि राजा राजधर्म का पालन करे।
प्राचीन दुनिया में ‘एक प्रकार के लोकतंत्र’ भी थे जो शासकों के अतिरिक्त कुछ अन्य लोगों के दृष्टिकोण को स्थान प्रदान करते थे, उदाहरण के लिए भारत का मशहूर वज्जी संघ या प्राचीन एथेंस की सरकारें। मगर इन उदाहरणों में भी तथाकथित ‘प्रतिनिधित्व’ आम लोगों का नहीं, बल्कि कुलीनों का था। प्राचीन एथेंस में, उदाहरण के लिए, गुलामों और औरतों को मताधिकार नहीं था।
प्रजातंत्र का सुनहरा समय आधुनिक युग रहा है। आज के प्रजातंत्रों में, सर्वव्यापी वयस्क मताधिकार सर्वव्यापी है। इसके अलावा, लगभग सभी मताधिकार प्रणालियां इस प्रकार बनाई गई हैं कि देश के सभी लोगों के विभिन्न दृष्टिकोणों पर प्रशासन को प्राथमिकता दी जाए। और चूंकि प्रशासन को प्राथमिकता दी जाती है, इसलिए लगभग सभी चुनाव प्रणालियां इस प्रकार बनाई जाती हैं कि उच्चतर वोटिंग पैटर्न देश के विधानमंडल या चयनित कार्यकारिणी में विषम ढंग से उच्चतर शेयर की ओर ले जाता है। क्यों? क्योंकि स्थायित्व प्रशासन की पूर्व शर्त है। अगर कोई ऐसी सरकार बनाने की कोशिश करे जिसमें हरेक दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व हो, तो वह अंतहीन जड़ता और अंतत: अव्यवस्था की योजना बना रहा होगा।
इसलिए, अमेरिका में राष्ट्रपति के चुनावों के लिए निर्वाचक मंडल हैं, जिनमें मतों के बहुमत को बढ़ाकर एक बहुत बड़ा निर्वाचक मंडल बहुमत बना दिया जाता है (अमेरिकी राष्ट्रपति को तकनीकी रूप से निर्वाचक मंडल द्वारा चुना जाता है, सीधे जनता के द्वारा नहीं! जनता केवल निर्वाचक मंडल का चयन करती है)। इसके कारण, चार मामलों में, प्रत्यक्ष मत प्रतिशत में अल्पमत में होने के बावजूद राष्ट्रपति चुने गए। और उनमें से कुछ राष्ट्रपति तो सक्षम और कुछ उल्लेखनीय भी सिद्ध हुए।
आनुपातिक मतदान में, जो हाल में भारतीय संस्थानिक बुद्धिजीवियों के बीच मनभावन रहा है, सामान्यतया एक कट-आॅफ निचला स्तर होता है जिसके नीचे किसी पार्टी को विधानमंडल में कोई सीट नहीं मिलती। मसलन, जर्मनी में कट-आॅफ 5 फीसदी हुआ करता था (जर्मनी में कुछ सीटों के लिए प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली है! एक कोर्ट ने आनुपातिक प्रतिनिधित्व में कुछ और बदलावों का निर्णय दिया था, लेकिन सरलता के हित में मैं अभी उसे नजरअंदाज कर रहा हूं।) अगर हमने भारत में कट-आॅफ के साथ आनुपातिक मतदान प्रणाली अपनाई होती, तो सारी क्षेत्रीय पार्टियों और स्वतंत्र उम्मीदवारों को 2014 में कोई सीट नहीं मिलती, क्योंकि उनका राष्ट्रीय मतदान प्रतिशत 5 से कम था। लोकसभा में केवल भाजपा और कांग्रेस को सीट मिली होती। चुनाव परिणाम, कट-आॅफ के साथ आनुपातिक प्रतिनिधित्व के तहत, अगर बेहतर नहीं तो कमोबेश वही होता जो भाजपा/एनडीए का रहा है। मगर, क्षेत्रीय पार्टियां सिरे से मिट जातीं और उनकी सीटें कांग्रेस के खाते में चली जातीं।
कुल निष्कर्ष यह है कि हरेक चयन प्रणाली (चाहे वह अमेरिका का निर्वाचक मंडल, आनुपातिक प्रतिनिधित्व हो या हमारा अपना सबसे ज्यादा वोट पाना) को जान-बूझकर स्थायित्व और प्रशासन को प्रोत्साहन देने और साथ ही यथोचित मात्रा में लोगों के दृष्टिकोण को प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिए बनाया गया है।
तो उन सभी लोगों के लिए जो शिकायत कर रहे थे कि 2014 के आम चुनावों में मत प्रतिशत में अल्पमत की बढ़त को विसंगत ढंग से संसदीय सीटों के बहुमत में बदल दिया गया… हां, प्रणाली को इसी तरह से विकसित किया गया है। इसी तरीके से दुनिया भर की सभी निर्वाचन प्रणालियों को बनाया गया है। क्योंकि किसी भी निर्वाचन प्रणाली का उद्देश्य देश के हरेक व्यक्ति के दृष्टिकोण का लघु रूप बनाना नहीं होता। चुनाव का उद्देश्य ऐसी सरकार चुनना होता है जो शासन करने में सक्षम हो।
बेशक, मेरे दृष्टिकोण को किसी राजनीतिक संरचना के पक्ष या विपक्ष के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। इसका उद्देश्य तो उन व्यक्तियों की चिंताओं को संबोधित करना है जो किसी बड़े चुनाव के परिणाम को एक खास संकुचित तरीके से देखते हैं और हमारी चुनाव प्रणाली पर ही सवालिया निशान लगाते हैं। मैं तो बस प्रणाली का बचाव कर रहा हूं, किसी राजनीतिक दल का नहीं। और उन लोगों से जो 2014 के चुनाव परिणामों से नाखुश हैं और उसे लगातार नकार रहे हैं, मैं कहूंगा: परिपक्व बनिए, जननिर्णय का सम्मान कीजिए। और अगर आपको चुनाव परिणाम पसंद नहीं आए थे, तो अगले चुनावों में वापस आएं और ज्यादा सरगर्मी से चुनाव प्रचार करें। यही प्रजातंत्र का सार है।
एक और बिंदु
मेरे ख़्याल से ब्रिटेन के ब्रेक्सिट परिणाम निश्चय ही उन लोगों के विचारों पर विराम लगा देंगे जो मई 2014 के चुनाव परिणामों की वैधता के खिलाफ आक्रामक हैं। प्रजातंत्र नेताओं के लिए बहाना नहीं बन सकता कि जटिल निर्णय लेने का दायित्व लोगों पर छोड़ दें और उन्हें भावात्मक और वैयक्तिक अनुभवों के आधार पर किसी एक विकल्प को चुनने के लिए विवश करें। प्रजातंत्र एक प्रणाली है जो आम लोगों को एक आवाज, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता और अपनी सरकार होने का अहसास देती है। लेकिन निर्णय तो सरकार द्वारा ही लिए जाने चाहिए, जिन्हें अगले चुनावों में उसके कुल प्रदर्शन के आधार पर आंका जाएगा। जटिल निर्णयों को जनमत के जरिये लोगों के ऊपर नहीं छोड़ना चाहिए! जैसा क्लेमेंट एटली ने कहा था, जनमत ‘तानाशाहों और भड़काऊ नेताओं का यंत्र’ है। दिलचस्प यह है कि 2014 में चुनी गई भारत सरकार की वैधता पर, यह देखते हुए कि मतदाताओं के बहुमत ने सरकार को मत नहीं दिया था, सवाल उठाने वाले लोगों में से अनेक अब ब्रेक्सिट के परिणाम पर सवाल उठा रहे हैं, बावजूद इसके कि ब्रिटेन की जनता के बहुमत ने इसके पक्ष में मत दिया था। स्पष्ट रूप से, अनेक प्रजातंत्रों के संस्थापकों ने ज्यादातर निर्वाचन प्रणालियों को प्रशासन में सक्षम सरकार चुनने के मकसद से संतुलन के साथ बनाया था! और वे हमारे आज के दौर के संस्थापित बुद्धिजीवियों से कहीं ज्यादा बुद्धिमान थे। एक बार फिर, मैं भारत की किसी भी राजनीतिक संरचना की तरफदारी या मुखालफत नहीं कर रहा हूं। मैं तो बस ऐसी प्रणाली की बुद्धिमता की सराहना कर रहा हूं जो प्रशासन में जनता को एक आवाज देती है, मगर स्थायित्व और प्रशासन की आवश्यकताओं के साथ इसे संतुलित करती है। जैसा हमारे राष्ट्रपति ने कहा था, ‘प्रजातंत्र और भीड़तंत्र में फर्क होता है।’