महेंद्र पाण्डेय
किसानों की समस्याओं पर आजकल खूब विश्लेषण किया जा रहा है। बंपर पैदावार, कम पैदावार, लागत मूल्य, विक्रय मूल्य, बिचौलिये और कर्ज के बोझ पर लगातार लिखा जाता रहा है। इन सब के बीच देशभर में किसानों द्वारा आत्महत्या का निर्बाध सिलसिला चल रहा है। प्रोसीडिंग्स आॅफ द नेशनल एकेडमी आॅफ साइंसेज के जुलाई अंक में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन के कारण फसलों को जो नुकसान हो रहा है उसके कारण प्रतिवर्ष 59,000 किसान आत्महत्या कर रहे हैं। भारत में औसत तापमान के 20 डिग्री सेल्सियस के पार करते ही प्रति सेल्सियस 67 किसान आत्महत्या करते हैं। बुरी खबर यह है कि देश का औसत तापमान आज की तुलना में वर्ष 2050 तक 3 डिग्री सेल्सियस अधिक होगा।
खेती से जुड़ी दो गंभीर समस्या है जिन पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। देश के अधिकतर हिस्सों में सघन वायु प्रदूषण के कारण सूर्य की पृथ्वी तक पहुंचने वाली किरणें कम हो रही हैं। इसका सीधा प्रभाव कृषि उत्पादकता पर पड़ रहा है। दिल्ली और इसके आसपास के क्षेत्रों में वायु प्रदूषण के कारण सामान्य की तुलना में 10 प्रतिशत कम किरणें पृथ्वी तक पहुंच पा रही हैं। भारत सरकार के स्पेस एप्लिकेशन सेंटर द्वारा वर्ष 2016 में प्रकाशित ‘डेजर्टिफिकेशन एंड लैंड डीग्रेडेशन एटलस आॅफ इंडिया’ के अनुसार देश में भूमि की दुर्दशा का क्षेत्र और मरूभूमिकरण का क्षेत्र बढ़ रहा है। वर्ष 2011 से 2013 के दौरान 9.64 करोड़ हेक्टेयर भूमि यानी देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 29.32 प्रतिशत बर्बादी के रास्ते पर है जबकि 2003 से 2005 के बीच देश की 28.76 प्रतिशत भूमि यानी 9.453 करोड़ हेक्टेयर भूमि बर्बादी के कगार पर थी।
वर्ष 2011-13 के दौरान 8.264 करोड़ हेक्टेयर भूमि मरुभूमिकरण की तरफ बढ़ रही थी जबकि 2003-05 के दौरान यह क्षेत्र 8.148 करोड़ हेक्टेयर था। शुष्क क्षेत्रों में हवा के द्वारा अपरदन मरुभूमिकरण का मुख्य कारण है जबकि अर्धशुष्क क्षेत्रों में वनस्पतियों और पानी के कारण अपरदन होता है। भूअपरदन से प्रभावित क्षेत्रों में 10.98 प्रतिशत का कारण पानी, 8.91 प्रतिशत का कारण वनस्पति और 5.55 प्रतिशत का कारण वायु है। भूमि की बर्बादी में से 23.95 प्रतिशत क्षेत्र राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, जम्मू और कश्मीर, कर्नाटक, झारखंड, ओडिशा, मध्य प्रदेश और तेलंगाना में स्थित है। झारखंड, राजस्थान, दिल्ली, गुजरात और गोवा के 50 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र की भूमि बर्बादी की तरफ अग्रसर हो रही है। दूसरी तरफ केरल, असम, मिजोरम, हरियाणा, बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब और अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों के 10 प्रतिशत से भी कम हिस्से में यह समस्या है।
विश्व स्तर पर भूमि में खराबी और मरुभूमिकरण के कारण प्रतिवर्ष 120 लाख हेक्टेयर भूमि का नाश होता है और एक अरब लोगविशेष तौर पर सबसे गरीब भूमि उत्पादकता में गिरावट से प्रभावित होते हैं। मरुभूमिकरण का एक प्रभाव धूल और रेत भरी आंधी है जिससे करोड़ों लोगप्रभावित होते हैं। सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र उत्तरी अफ्रीका और पश्चिम एशिया हैं। भूमि और पारिस्थितिकी तंत्र का क्षरण, भूअपरदन, सूखा, भूमि और जल संसाधनों का अवैज्ञानिक उपयोग, शहरीकरण और जलवायु परिवर्तन के कारण धूल भरी आंधी की संभावना बढ़ती है। मवेशियों के चारागाह का अत्यधिक उपयोग भी इसे बढ़ाता है। धूल भरीआंधी से वायु प्रदूषण भी बढ़ता है जिससे 65 लाख व्यक्ति प्रति वर्ष मरते हैं। अकेले मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में धूल भरीआंधी के कारण 13 बिलियन डॉलर का प्रतिवर्ष नुकसान होता है।
भूमि क्षरण के कारण लोग घर छोड़ रहे हैं। वर्तमान में 50 करोड़ हेक्टेयर भूमि जो चीन के कुल क्षेत्र का लगभग आधा है, पूरी तरह से वीरान है। इसका कारण सूखा, मरुभूमिकरण और भूमि का कुप्रबंधन है। अनुमान है कि अगले दशक में विश्व भर में 14 करोड़ व्यक्ति अपना घरबार छोड़कर विस्थापित हो जाएंगे। भूमि की दुर्दशा के मुख्य कारण अत्यधिक खेती, कृषि अपशिष्ट का जलना, जलवायु परिवर्तन और कुप्रबंधन है। खेती को यदि बचाना है तो इन समस्याओं के समाधान के उपाय समय रहते खोजने पड़ेंगे वरना कर्ज माफ होने के बाद भी खेती घाटे का धंधा बनी रहेगी।