आलोक पुराणिक
पंजाब नेशनल बैंक से करीब 11,400 करोड़ रुपये पार हो गए। कानपुर के रोटोमैक पेन के कारोबारी विक्रम कोठारी ने तमाम सरकारी बैंकों से फर्जी दस्तावेज दिखाकर करीब 3,700 करोड़ रुपये का कर्ज ले लिया। ऐसा लग रहा है कि सरकारी बैंकों में महाभोज चल रहा है जिसमें सिर्फ बड़े उद्योगपति आमंत्रित हैं। सरकारी बैंक आम जमाधारक से रकम लेकर बड़े उद्योगपतियों को डुबाने के लिए दे रहे हैं। क्योंकि वे सरकारी बैंक हैं इसलिए उनके लिए और रकम करदाताओं की जेब से दोबारा आ जाएगी। पीएनबी की क्रेडिट रेटिंग कम होने की पूरी आशंका है। क्रेडिट रेटिंग कम होने का आशय है कि उसे बाजार से पूंजी जुटाने में समस्याएं पेश आएंगी। सरकार को ही इसमें फिर से पूंजी डालनी पड़ेगी।
तमाम बैंक घोटाले सामने आने के बाद केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली पूछ रहे हैं कि आखिर चार्टर्ड अकाउंटेंट आॅडिटर क्या कर रहे थे, उन्होंने तमाम गड़बड़ियों को रेखांकित क्यों नहीं किया। रिजर्व बैंक ने हाल की बैंकिंग गड़बड़ियों पर अपने एक पूर्व निदेशक की अध्यक्षता में एक समिति बना दी है। पर यह सारा काम लकीर पीटने जैसा है, सांप तो निकल गया है। बस इतना सुनिश्चित किया जाए कि भविष्य में इस तरह के घोटालों की पुनरावृत्ति न हो। पीएनबी ने कबूल किया है कि उसके अंतरराष्ट्रीय लेनदेन में कुछ ऐसी गड़बड़ हुई है जिसकी वजह से करीब 11,400 हजार करोड़ रुपये के दायित्व बैंक को झेलने पड़ सकते हैं। यह कितनी बड़ी रकम है इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि शेयर बाजार के हिसाब से पीएनबी के कुल शेयरों की कीमत 28,000 करोड़ रुपये है। यानी अपनी कुल कीमत के एक तिहाई मूल्य से ज्यादा का दायित्व बैंक के लिए इस घोटाले की वजह से पैदा हुआ है। इस बैंक को हाल में जितनी नई पूंजी सरकार से मिली थी उस पूंजी की करीब दोगुनी रकम इस घोटाले में उड़ने की आशंका है।
गहरी है घोटाले की जड़
मोटे तौर पर इस घोटाले को यूं समझा जा सकता है कि पीएनबी से करीब 11,400 करोड़ रुपये के भुगतान की ऐसी गारंटी ग्लोबल संस्थानों को दी गई जिसके बारे में बैंक का कहना है कि वह गारंटी अनधिकृत थी। यानी बैंक के शीर्ष प्रबंधन को नहीं पता पर किसी जूनियर अफसर ने बैंक की तरफ से ऐसी गारंटी दे दी। गौरतलब है कि इस तरह की गारंटी दिए जाने का बहुस्तरीय ढांचा है यानी एक से अधिक लोग इस तरह की गारंटी दिए जाने में शामिल होते हैं। कई स्तर की तकनीकी मंजूरियां जरूरी होती हैं। ऐसा घोटाला कई स्तर पर षड़यंत्र के बगैर नहीं हो सकता। अब बैंक ने कई कर्मियों को निलंबित किया है। सीबीआई की जांच शुरू हो गई है। पर इस घोटाले का मुख्य आरोपी देश से भाग चुकाहै। यह एक पैटर्न बन गया है, बड़ा घोटाला करो और विजय माल्या की तरह देश से बाहर निकल जाओ। कानूनी प्रक्रिया की जटिलताओं के चलते आरोपी को विदेश से लाने और यहां दंडित करने में बहुत दिक्कतें आती हैं।
देंगे करदाता ही
पीएनबी सरकारी बैंक है। इसमें घोटाले के राजनीतिक निहितार्थ हैं। इसीलिए घोटाले की खबर आते ही सरकार की तरफ से यह स्पष्टीकरण आ गया कि घोटालेबाजी 2011 से यानी मौजूदा सरकार के 2014 में आने से पहले से चल रही है। राजनीतिक बहस अपनी जगह है पर मुद्दा यह है कि इतने बडेÞ बैंक को सरकार डूबने नहीं देगी। उसमें और पूंजी डाली जाएगी। जाहिर है यह पूंजी करदाताओं की जेब से ही जाने वाली है। बैंकिंग में बहुत तेजी से बदलाव हो रहे हैं। घोटाले अब पुराने तरीके से नहीं हो रहे हैं। ग्लोबल बैंकिंग में ऐसा घोटाला हो रहा है कि नुकसान तो भारतीयों का हो रहा है और अपराधी विदेश में मजे कर रहा है। इस घोटाले के अभियुक्तों को दंड दिया जाए यह तो जरूरी है ही, साथ में यह भी जरूरी है कि तमाम सिस्टम, प्रक्रियाएं भी मजबूत की जाएं। नए तरह के घोटालों से सबक लेकर नई व्यवस्था हो वरना चिड़िया के खेत चुग जाने के बाद सिर्फ सतत रुदन ही बचेगा।
सरकारी बैंकों में आम तौर पर होता यूं है कि बड़े मगरमच्छ बहुत आराम से खा पीकर निकल जाते हैं। कुछ प्रभावी लोग शीर्ष प्रबंधन से सेटिंग करते हैं। सेटिंग या तो धन के आदान प्रदान पर आधारित होती है या प्रभाव आधारित। जैसे विजय माल्या राज्यसभा के सांसद थे। लगभग हर राजनीतिक पार्टी में उनका प्रभाव था। कई सांसद उनके प्राइवेट जेट से उड़ते थे। जाहिर है ऐसे व्यक्ति के लिए कर्ज लेना आसान हो जाता है। कर्ज लेकर माल्या लंदन निकल गया, अब कानूनी प्रक्रियाएं चलती रहें। पीएनबी के मामले में अभी तो यह आरोप-प्रत्यारोप सामने आ रहे हैं कि घपला 2010 में शुरू हुआ था, 2011 में शुरू हुआ था, तो इस सरकार की जिम्मेदारी नहीं है। इसके जवाब में यह कहा जा रहा है कि 2010 से शुरू हुआ घपला 2018 तक चलता कैसे रहा, यह देखना तो अभी की सरकार की जिम्मेदारी है। जिम्मेदारी किसी की भी न निकले तो आखिरी जिम्मेदारी जनता की निकलेगी जिसकी जेब से वसूले गए पैसों से सरकारी बैंकों के घाटे की भरपाई होनी है। घपले के सूत्रधार मेहुल चोकसी और नीरव मोदी किसकी सरपरस्ती में अपना काम कर रहे थे यह बात कभी भी सामने नहीं आएगी। सामने आ भी गई तो कानूनी तौर पर अदालत में साबित नहीं हो पाएगी।
तकनीक के मसले
यहां यह बात गौरतलब है कि तमाम सरकारी बैंकों में पचपन साल से ऊपर के अधिकारियों, कर्मचारियों का तकनीक के प्रति वैसा रुझान नहीं है जैसा बदलते वक्त में होना चाहिए। निजी क्षेत्र के बैंकों में तकनीक के प्रति जैसी सजगता देखने को मिलती है वह सरकारी बैंकों में नहीं है। यह अलग बात है कि तमाम तरह के घपलों घोटालों में निजी क्षेत्र के बैंकों की भूमिका अलग तरह की रही है। नोटबंदी के दौरान निजी क्षेत्र के एक बड़े बैंक एक्सिस बैंक की भूमिका बहुत संदिग्ध रही थी। यानी कुल मिलाकर मामला सिर्फ तकनीक का नहीं रहता, मामला प्रबंधन का, प्रबंधन की गुणवत्ता का भी हो जाता है। प्रबंधन की गुणवत्ता को लेकर लगातार काम किए जाने की जरूरत है। बैंकिंग तकनीक, बैंकिंग के तौर तरीके एकदम बदल रहे हैं। उन बदलावों में घोटालों के नए सूत्र छिपे हैं। उनके प्रति सतर्कता नहीं दिखाई गई तो ऐसे घोटाले भविष्य में भी होंगे। रिजर्व बैंक ने कहा है कि जिस तकनीकी सिस्टम से पीएनबी में घोटाला हुआ है उस सिस्टम को लेकर रिजर्व बैंक लगातार चेतावनी देता रहा है। पर सिर्फ चेतावनी देने से कुछ नहीं होता। रिजर्व बैंक को आवश्यक सिस्टम स्थापित करने चाहिए।
चोर कॉरपोरेट, यार कॉरपोरेट
पीएनबी-मेहुल चौकसी-नीरव मोदी घपले पर रुदन चल ही रहा था कि रोटोमैक पेन से जुड़े कोठारी परिवार के करीब 3,700 करोड़ रुपये के घपले के समाचार आने लगे। विक्रम कोठारी ने फर्जी दस्तावेज के जरिये अरबों रुपये का कर्ज सरकारी बैंकों से ले लिया। इन सरकारी बैंकों की सूची में सबसे ऊपर बैंक आफ इंडिया है जिसने करीब 755 करोड़ रुपये कोठारी कुनबे को बतौर कर्ज दिए हैं। 2008 से कोठारी कुनबे को दिए गए कर्जों में गड़बड़ियां चल रही हैं। कर्ज कोई और वजह बताकर लिया गया और उसे कहीं और लगा दिया गया। साफ तौर पर यह बेईमानी है। यह लंबे अरसे से चल रहा था। जो सरकारी बैंक अपने दफ्तरों में पेन तक बांध कर रखते हैं उनके खजाने बेईमान कारोबारियों के लिए खुले रहे। जाहिर है यह सब किसी ठोस वजहों से हुआ होगा। भ्रष्टाचार से लेकर निकम्मापन तक इन वजहों में शामिल है। जो गड़बड़ियां कर रहे थे वे तो अपने स्तर पर गड़बड़ियां कर ही रहे थे पर सवाल यह है कि इन गड़बड़ियों को अब तक किसी स्तर पर पकड़ा क्यों नहीं गया? आॅडिटिंग की त्रिस्तरीय व्यवस्थाओं के बावजूद करीब दस साल में ये गड़बडियां पकड़ में क्यों नहीं आ पार्इं।
हर बैंक में आंतरिक आॅडिटर होते हैं जिनका काम यही पड़ताल करने का होता है कि खाता-बही, हिसाब-किताब तय मानकों के हिसाब से रखा जा रहा है या नहीं। फिर हर बैंक का सालाना आॅडिटिंग बाहरी आॅडिटर द्वारा भी किया जाता है। वह भी यही सुनिश्चित करता है कि सब कुछ नियमों के हिसाब से हो रहा है या नहीं। फिर रिजर्व बैंक भी अपने स्तर पर जांच पड़ताल करता रहता है कि तमाम बैंकों में नियमों का पालन हो रहा है या नहीं। तीनों स्तर पर धरपकड़ नहीं हो पाई। आखिर आॅडिटर कर क्या रहे थे? सवाल उनसे भी पूछा जाना चाहिए।
आर्थिक सर्वेक्षण 2015-16 ने बैंकों के डूबे कर्जों से निपटने के लिए चार आर की बात की थी- रिकग्निशन यानी पहचान, रिकैपिटलाइजेशन यानी पुनर्पूंजीकरण, रिजोल्यूशन यानी निपटारा और रिफॉर्म यानी सुधार। इन चार आर का आशय यह है कि पारदर्शिता के साथ जो डूबा कर्ज है उसे डूबा मान लिया जाए, उस पर लीपापोती न की जाए। बैंकों को नई पूंजी दी जाए, कर्जों का निपटारा किया जाए, हिसाब-किताब निपटाया जाए और पूरी व्यवस्था में सुधार किया जाए। इन चारों की महत्ता घोटालों के बाद फिर से रेखांकित हो गई है। पर अब जरूरी है कि इसमें पांचवां आर यानी रेगुलेशन भी जोड़ा जाए और बैंकिंग रेगुलेटर यानी रिजर्व बैंक से भी पूछा जाए कि यह सब चल कैसे रहा था। चोर जब नए-नए तरीकों से चोरी करने में जुटे हुए हैं तो फिर उन्हें नियंत्रित करने के नए-नए तौर तरीके ईजाद क्यों नहीं किए जा रहे हैं। रिजर्व बैंक को इस सवाल का जवाब जल्दी से जल्दी देना चाहिए।
यहां फिर यह सवाल खड़ा हो उठता है कि आखिर बड़े उद्योगपति बैंकों को चूना लगाकर आराम से हंसते खेलते रहते हैं और किसान का एक लाख रुपये का कर्ज माफ होने में आफत आ जाती है। कर्ज लेकर नहीं चुकाना अच्छी बात नहीं है। न किसानों के लिए और न उद्योगपतियों के लिए। पर जिस सिस्टम से एक नीरव मोदी 11,400 करोड़ रुपये निकाल कर ले जाए और एक विजय माल्या 9,000 करोड़ रुपये निकाल ले उस सिस्टम में यह नैतिक बल नहीं रहता कि किसान से कह सके कि तुम्हारा एक लाख रुपये का कर्ज माफ करने से सिस्टम तबाह हो जाएगा। तथ्यों के मुताबिक बैंकों का करीब नौ लाख पचास हजार करोड़ रुपये डूबत कर्जों के तौर पर फंसा हुआ है और किसानों का कुल कर्ज करीब 12 लाख साठ हजार करोड़ रुपये का है। जितनी रकम माल्या-चौकसी-मोदी बैंकों से लेकर उड़ गए हैं उतनी रकम में तो कई छोटे किसानों के कर्ज माफ किए जा सकते थे।
निजी बनाम सरकारी
सरकारी बैंकों में मिल्कियत सरकार की होती है। सरकार की प्रतिक्रिया आम तौर पर तमाम मसलों पर बहुत धीमी होती है। इस घोटाले में भी सामने यही आ रहा है कि गड़बड़ियों की शिकायतें बहुत पहले से की जाती रही थीं पर उन पर कार्रवाई नहीं हुई। निकम्मेपन को इसकी वजह के तौर पर चिन्हित किया जा सकता है। इस घोटाले में एक बात तो साफ हुई कि इसमें तकनीक की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। तमाम मंजूरियों को लिए दिए जाने में तकनीक की भूमिका रही है। सरकारी बनाम निजी बैंकों की तुलना को लेकर यह बात तो साफ है कि सरकारी बैंकों में बड़े घोटालों की आशंका राजनीतिक हस्तक्षेप के चलते ज्यादा रहती है। शेयर बाजार के भावों के जरिये इस स्थिति को समझने की कोशिश करें तो पता चलता है कि निजी क्षेत्र के सबसे बड़े बैंक एचडीएफसी बैंक के शेयर एक साल में करीब 32 फीसदी चढ़ गए जबकि सरकारी क्षेत्र के सबसे बड़े बैंक भारतीय स्टेट बैंक के भाव एक साल में एक फीसदी भी नहीं बढ़े। यानी बाजार में निजी क्षेत्र के प्रति थोड़ा भरोसा ज्यादा दिखता है। हालांकि भ्रष्टाचार की गुंजाइश निजी क्षेत्र में भी है पर वहां डूबत कर्जों के प्रति सजगता ज्यादा है। इसलिए डूबत कर्जों का अनुपात भी सरकारी बैंकों में ही ज्यादा दिखता है।
सरकारी बैंकों में घोटाले की खबरें आते ही यह मांग भी शुरू हो गई कि उनका निजीकरण कर दिया जाए। सवाल यह है कि क्या बैंकों के निजीकरण से ही सारी समस्याएं निपट जाएंगी। 1969 में निजी बैंकों को पहली बार व्यापक तौर पर राष्ट्रीयकृत किया गया था। फिर 1980 में दूसरी बार तमाम निजी बैंक राष्ट्रीयकृत हुए थे। निजी बैंकों को सरकारी बनाने का तर्क यह था कि ये बैंक आम आदमी को कर्ज नहीं देते, सिर्फ बड़े कारोबारियों को ही इनका लाभ मिलता है। कुछ समय पहले तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जनधन खातों पर अपनी उपलब्धियां गिनाते वक्त यही कहते थे कि करोड़ों गरीबों को बैंकिंग के दायरे में लाया गया। जनधन खातों का इतना व्यापक तौर पर खुलना सरकारी बैंकों के बगैर संभव नहीं था। सरकारी बैंक ही गांवों और दूर दराज के इलाकों में काम करते दिखाई देते हैं। निजी बैंकों की दिलचस्पी तो मलाईदार संपन्न इलाकों में ही है।
समस्याएं निजी बैंकों में भी कम नहीं हैं। नोटबंदी के दिनों में निजी क्षेत्र के एक बैंक एक्सिस बैंक के घोटालों की बहुत खबरें थीं। कुल मिलाकर भारतीय स्थितियों में बैंकों को पूरे तौर निजीकृत करने का अर्थ होगा कि देश की बड़ी जनसंख्या को बैंकिंग से बाहर कर दिया जाएगा। यह ठीक नहीं है। जरूरत है कि हाल के हादसों से सबक लिए जाएं और भविष्य में इनकी पुनरावृत्ति को रोका जाए। भारत के श्रेष्ठ निजी बैंकों के सिस्टम का अध्ययन करके वैसी व्यवस्थाएं सरकारी बैंकों में भी लागू हों और सरकारी बैंकों के कामकाज में और पारदर्शिता आनी चाहिए। तमाम निदेशक राजनीतिक या किन्हीं और आधार पर नियुक्त होते हैं। बाद में वही कर्ज वगैरह के मामले में सिफारिश चलाते हैं। इन मसलों पर पारदर्शिता की जरूरत है।
सबक
पीएनबी-मोदी-चोकसी घोटाले में यह तर्क कि इस घोटाले की शुरुआत 2010 में हुई थी या 2011 में हुई थी, एक दृष्टि से निरर्थक है। बैंक घोटाले किसी तारीख के इवेंट की तरह नहीं होते, वे मूलत: प्रक्रियागत मसले होते हैं। प्रक्रियाओं में लगातार सुधार जरूरी है। प्रक्रियाओं की लगातार चेकिंग जरूरी है। प्रक्रियाओं को चेक करने वाले लोगों की चेकिंग लगातार जरूरी है। घोटाला चाहे यूपीए सरकार के कार्यकाल में हो या एनडीए सरकार के कार्यकाल में, इसकी भरपाई जनता की जेब से ही होगी। जनता को ही भुगतान करना पड़ेगा। जरूरी यह भी है कि इस तरह के घोटालों में संलग्न लोगों को ऐसी सजा मिले कि वह एक उदाहरण बने। अभी तो बड़े घोटालेबाजों में यह संदेश व्याप्त है कि भारतीय कानून व्यवस्था की कड़ाई सिर्फ छोटे अपराधियों के लिए है। बड़े अपराधी तो महंगे वकीलों के चलते बड़े आराम से बचकर निकल जाते हैं। इतिहास गवाह है कि बड़े आर्थिक अपराधी किसी भी सरकार के कार्यकाल में पकड़ में ही नहीं आए। पकड़ में आ भी गए तो उनसे नुकसान की भरपाई करवा पाना संभव नहीं हुआ। कड़ी सजा और नुकसान की भरपाई हो जाए तो शायद आगे के लिए कुछ सबक मिले।
भ्रष्टाचार की लागत
भारतीय घोटालों के इतिहास में घोटाली सजा मुक्त ही रहता है। कंपनियां डूब जाती हैं, उनके मालिक मौज में रहते हैं। बैंक डूबने के कगार पर आ जाते हैं, विजय माल्या और नीरव मोदी जैसे मौज कर रहे होते हैं। इस स्थिति में साधारण गणित समझ में आता है कि कई अरब के घोटाले के बाद कई अरब के महंगे वकील कर लिए जाएं तो मुकदमे बरसों बरस खिंचते रह सकते हैं। भ्रष्टाचार की लागत बहुत कम है और इससे कमाई बहुत ज्यादा है। नीरव मोदी 11,400 करोड़ रुपये अंदर कर चुके हैं। इससे बहुत से वकील बहुत सालों तक मुकदमा खिंचवा सकते हैं। नीरव मोदी की लाइफस्टाइल पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। भ्रष्टाचार करना जब तक महंगा नहीं होगा, जब तक कोई उदाहरण स्वरूप सजाएं नहीं दी जाएंगी, तब तक इस तरह के घोटालों को दोबारा होने से रोका नहीं जा सकेगा।