पं. भानुप्रतापनारायण मिश्र
शारदीय नवरात्र के पहले दिन घट स्थापना के बाद मां दुर्गा के प्रथम स्वरूप शैलपुत्री की पूजा की जाती है। इस बार प्रतिपदा की तिथि दो दिन है। पार्वती के रूप में इन्हें भगवान शंकर की पत्नी के रूप में भी जाना जाता है। सती के पिता प्रजापति दक्ष यज्ञ कर रहे थे। सभी देवी- देवताओं को आमंत्रित किया गया, लेकिन अपने दामाद महादेव और पुत्री सती को आमंत्रित नहीं किया। सती आकाश में जाते देवी- देवताओं को देखकर अपने पिता के यज्ञ में जाने की इच्छा करती हैं। शिव न्यौता न मिलने की बात करते हैं।
कहते हैं कि प्रजापति दक्ष मुझसे नाराज हैं। इसलिए हमें न्यौता नहीं दिया गया। शिव के उत्तर से सती संतुष्ट नहीं हुर्इं। सती की जिद पर शिव ने उन्हें वहां जाने की अनुमति दे दी। साथ में अपने गणों को भेज दिया। सती जब अपने पिता के घर पहुंचीं तो सिर्फ मां ने उनका स्वागत किया। दक्ष ने शंकर का अपमान किया। सती अपने पति के अपमान को सह न सकीं और यज्ञ की अग्नि में कूद कर अपने को भस्म कर लिया। सूचना मिलने पर शंकर क्रोधित हो उठे और दक्ष के यज्ञ को अपने गणों से नष्ट करवा दिया।
सती ने फिर अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। शैलपुत्री बनीं। शैलपुत्री ने तप किया जिससे भगवान शिव से उनका विवाह हुआ। यूं यह सबकी स्वामिनी हैं लेकिन हिमालय ने तप किया और उन्हें पुत्री रूप में मांगा तो वह हिमालय की पुत्री हो गर्इं। यह हम भारतीयों में विराजमान सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, धार्मिक और समृद्ध वैज्ञानिक विचारों में मौजूद आस्था को प्रकट करती हैं।
माता शैलपुत्री अपने भक्तों से कहती हैं कि संसार में जो कुछ भी उपलब्ध है वह सब मुझसे ही उत्पन्न हुआ है। ऐसा कोई भी पदार्थ और जीव नहीं है जो मुझसे अलग हो, पृथक हो। यहां मौजूद सभी शक्तियां मुझ में ही समाहित हैं। दाएं हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल पुष्प लिए हुए देवी बैल पर सवार हैं और अपने भक्तों को प्रसन्नता और अभय प्रदान कर रही हैं। माता शैलपुत्री की आराधना का भाव यह है कि पर्वतों में हरियाली हो और वहां सब वनस्पतियां मौजूद रहें जिनसे उनकी सुंदरता और उपयोगिता हम सभी मनुष्यों को प्रदान करती रहे।
मां के इस प्रथम स्वरूप का पूजन हम इस प्रकार करते हैं- मैं मनोवांछित लाभ के लिए अपने मस्तक पर अर्धचंद्र धारण करने वाली, वृष पर सवार रहने वाली, शूलधारिणी और यशस्विनी मां शैलपुत्री की वंदना करता हूं।