जीत कर हार गर्इं मायावती

वीरेंद्र नाथ भट्ट।

भारतीय जनता पार्टी के पूर्व उपाध्यक्ष दया शंकर सिंह के बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती पर टिकट बेचने के अभद्र भाषा में लगाए विवादास्पद आरोप से दोनों दलों के बीच शुरू हुए शह और मात के खेल में मायावती अब घिर गई हैं। बयान के चौबीस घंटे बाद तक तो मायावती भाजपा पर हमलावर थीं। लेकिन राजनीति का चक्र इतना तेज घूमा कि अब बसपा की प्रमुख चुनौती दया शंकर सिंह का बयान या भाजपा नहीं बल्कि अपना सवर्ण वोट बैंक बचाना है। मायावती पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आगरा में 21 अगस्त को और आजमगढ़, जो समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव का संसदीय क्षेत्र है, में 28 अगस्त को ‘सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय’ महारैली करेंगी।
समाजवादी पार्टी और भाजपा के बीच मिलीभगत होने का पारंपरिक आरोप लगा मायावती कह रही हैं कि अब बहुजन समाज के लोग समस्त पीड़ित मां-बहनों विशेषकर सर्व समाज की महिलाओं को उत्पीड़न से बचाने और उन्हें हर स्तर पर न्याय दिलाने के लिए संघर्ष करेंगे। लखनऊ विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के प्रोफेसर डॉ. प्रमोद कुमार कहते हैं, ‘इस विवाद से मायावती के कोर वोट बैंक यानी दलित वोटर पर असर तो नहीं होगा, लेकिन शहर के मध्य वर्ग का एक बड़ा तबका जो फ्लोटिंग वोट है, जो लचर कानून व्यस्था और गुंडागर्दी से त्रस्त होकर कहने लगा था कि इससे तो मायावती की सरकार ही अच्छी थी वो अब बसपा से बिदक गया है। अब सर्व समाज की दुहाई देना और सवर्ण वोट को फिर से वापस लाने के लिए आगरा और आजमगढ़ में सर्व समाज महा रैली करना और पच्चीस जुलाई को प्रदेश भर में प्रस्तावित विरोध प्रदर्शन/आंदोलन को वापस लेना मायावती की मजबूरी को दर्शाता है। अब 2017 के विधानसभा चुनाव तक मायावती केवल डैमेज कंट्रोल करेंगी। यह घटना मायावती के लिए सबक है। उन्हें एक वर्ग के वोट साधने के लिए दूसरे वर्ग के प्रति आक्रामक रुख की अपनी रणनीति पर ध्यान देना होगा।’

वहीं चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ में राजनीति शास्त्र विभाग के अध्यक्ष डॉ. संजीव शर्मा ने का कहना है, ‘ऐसा पहली बार देखने में आया है कि मायावती ने अपने और बहुजन समाज के सम्मान के पक्ष में किसी विरोध कार्यक्रम को रद्द किया हो। केवल रद्द ही नहीं किया बल्कि दया शंकर सिंह मुद्दे का ही पटाक्षेप कर दिया… कि चलो अब बहुत हो गया। इससे स्पष्ट है कि मायावती को अहसास हो गया है कि पांसा तो उलटा पड़ गया। बसपा ने प्रारंभ से ही सामाजिक यथास्थिति को चुनौती देकर राजनीति की है। यह उसके अस्सी और नब्बे के दशक के नारों जैसे- ‘तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ और ‘वोट हमारा राज तुम्हारा, नहीं चलेगा नहीं चलेगा’ से भी स्पष्ट होता है। कुंडा, प्रतापगढ़ के नेता और सपा सरकार में मंत्री रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया, उनके पिता और भाई की 2003 में आतंकवाद विरोधी कानून पोटा के तहत गिरफ्तारी भी सामंती सामाजिक व्यस्था को चुनौती थी। 2003 में विधानसभा में जब मायावती बीजेपी के समर्थन से तीसरी बार मुख्यमंत्री बनी थीं, तब सपा के नेता आजम खान के आंबेडकर उद्यान और अन्य दलित नायकों के स्मारकों को जेहनी अय्याशी कहने पर इतना भड़क गई थीं कि तुरंत ही पोल खोल या दलित अस्मिता और सम्मान रैली आयोजित करने की घोषणा कर दी थी। ऐसा क्या हो गया जो मायावती राज्यसभा में दया शंकर के बयान से इतना उबाल खा रही थीं और अपने को बहुजन समाज द्वारा देवी के रूप में पूजित होने का दावा कर रही थीं, वह स्वाति सिंह के मैदान में उतरते ही मैदान छोड़ भाग खड़ी हुर्इं।’

उत्तर प्रदेश की बाजी हाथ से निकल जाने की आशंका से बेचैन मायावती अब भाजपा को दलित विरोधी साबित करने में जुट गई हैं। अपने को बहुजन समाज द्वारा देवी की तरह पूजित होने का दावा कर रही मायावती भाजपा पर आरोप लगा रही हैं कि गुजरात के उना शहर में दलित उत्पीड़न को उन्होंने राष्ट्रव्यापी मुद्दा बना दिया जिससे घबराकर भाजपा ने साजिश के तहत दया शंकर सिंह से उनके खिलाफ अभद्र भाषा में बयान दिलवाया ताकि गुजरात और अन्य भाजपा शासित राज्यों में हो रही दलित उत्पीड़न की घटनाओं से दलित समाज का ध्यान भटकाया जा सके।

कार्यकर्ताओं का मनोबल बनाए रखने के लिए मायावती उन्हें आश्वस्त कर रही हैं कि 2017 में बसपा सत्ता में वापस लौटेगी। सपा को निशाने पर लेते हुए मायावती ने कहा, यदि भाजपा के दबाव में अखिलेश यादव ने अपनी बुआ (मायावती) का अपमान करने वाले दया शंकर सिंह को सजा नहीं दिलवाई तो 2017 में सत्ता में आने पर बसपा की सरकार एक निश्चित समय अवधि में जांच पूरी कर दया शंकर सिंह के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करेगी।

दया शंकर सिंह की पत्नी स्वाति सिंह की प्रथम सूचना रिपोर्ट में अपना नाम आने से बौखलाई मायावती लखनऊ पुलिस को संविधान की दुहाई दे रही हैं और इसे अपने खिलाफ सपा और भाजपा की साजिश बता रही हैं। मायावती का तर्क है कि पुलिस को संविधान की जानकारी नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 105 के अंतर्गत संसद या विधानसभा में सदस्य को बोलने की आजादी है और सदन में दिए गए भाषण के आधार पर किसी सदस्य पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। सपा नेता डॉ. अनिल कुमार वर्मा कहते हैं, ‘मायावती बिलकुल ठीक कह रही हैं कि उनको संविधान का सरक्षण प्राप्त है लेकिन राज्यसभा में उनके तीखे भाषण से उनका राजनीतिक नुकसान तो हो गया, उसे वे कैसे रोक सकती हैं।’ समाजवादी पार्टी के नेता ने चुटकी लेते हुए कहा कि मुकदमा दर्ज होने से मायावती भयभीत हैं और पुलिस पर दबाव बनाने की कोशिश कर रही हैं।

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दया शंकर सिंह की बदजुबानी से उपजे राजनीतिक भूचाल से बसपा के सामने समस्या का बड़ा पहाड़ खड़ा हो गया है। आज मायावती को अतीत, वर्तमान और भविष्य- तीनों से एक साथ लड़ना पड़ रहा है। मायावती अब 1995 के स्टेट गेस्ट हाउस कांड में भाजपा से मिली उस आपात सहायता को भी नकार रही हैं जब भाजपा के नेताओं खास कर ब्रह्मदत्त द्विवेदी ने उनको सपा के गुंडों के जानलेवा हमले से बचाया था।

उन्हें बचाने के भाजपा के दावे को खारिज करते हुए मायावती ने कहा कि 1995 में प्रदेश का हर राजनीतिक दल सपा की गुंडागर्दी से त्रस्त था और सभी सपा से छुटकारा चाहते थे। सभी दलों ने बसपा का साथ दिया था। चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी मायावती तीन बार 1995, 1997 और 2002 में भाजपा के समर्थन से सत्ता के शीर्ष पर पहुंची थीं। चौथी बार यानी 2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने पूर्ण बहुमत हासिल कर सरकार बनाई थी। अब मायावती कहती हैं कि तीन बार भाजपा का समर्थन उस दल की तत्कालीन राजनीतिक जरूरत के तहत था।

दयाशंकर सिंह द्वारा मायावती पर की गई अमर्यादित टिप्पणी पर मचे बवाल के बीच उमा भारती ने बसपा प्रमुख को गेस्ट हाउस कांड की याद दिला दी। उमा भारती ने कहा, ‘बीस साल पहले जब समाजवादी पार्टी के लोगों ने गेस्ट हाउस में मायावती पर हमला बोला था तो उस समय भाजपा ने ही उन्हें बचाया था। हम वही भाजपा हैं। हम समझते हैं कि एक महिला के तौर पर मायावती को कैसा महसूस हो रहा होगा। दयाशंकर सिंह की टिप्पणी पर हम खेद व्यक्त करते हैं। हमारी पार्टी ने उनके खिलाफ तुरंत एक्शन लिया। यदि मायावती पर फिर हमला होगा तो हमारी पार्टी फिर से उनके साथ खड़ी रहेगी। लेकिन उन्हें दयाशंकर की टिप्पणी को चुनावी हथकंडे के रूप में प्रयोग नहीं करना चाहिए।

वर्तमान में अपने ही दल के वरिष्ठ नेताओं के भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगा कर पार्टी छोड़कर जाने के संकट में घिरी मायावती के लिए दया शंकर सिंह के बयान ने संजीवनी का काम किया था, लेकिन वो क्षण भंगुर ही साबित हुआ। अपने बिखरते खेमे को बचाने और बागियों से निपटने के साथ साथ 2017 में सत्ता की प्रबल दावेदार भाजपा से भी निपटने के लिए बसपा को बैठे बिठाए एक मजबूत मुद्दा मिला था, लेकिन वो उलटा पड़ गया।

उन्हें भविष्य की चिंता भी खाए जा रही है क्योंकि 2017 में विधानसभा चुनाव होने हैं। मायावती ने आगरा और आजमगढ़ में रैली की घोषणा तो चौबीस जुलाई को प्रेस कांफ्रेंस में की थी। उनका भाषण रैली वाला ही था और उन्होंने पूरे 50 मिनट अपना लिखित बयान पढ़ा।
राजनीतिक विश्लेषकों का मत है कि एक बहुत ही नाजुक मौके यानी विधानसभा चुनाव के छह माह पूर्व यह घटना मायावती की पार्टी को बहुत नुकसान पहुंचा सकती है। सेंटर फॉर स्टडी आॅफ सोसाइटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक डॉ. अनिल कुमार वर्मा का कहना है- ‘2007 के विधानसभा चुनाव में सर्व समाज के मुद्दे से मायावती ने महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की थी। दयाशंकर सिंह के बयान से उपजे विवाद और बसपा की उग्र प्रतिक्रिया से मायावती का सवर्ण वोट तो अब साथ आने से रहा। सवर्ण वोट का वो हिस्सा जो चुप था और अनिश्चित दिमाग का था अब भाजपा की ओर ही जाएगा। यदि सवर्ण बसपा से दूरी बनाता है तो इसका असर मुसलमान वोट पर भी बिना पड़े नहीं रह सकता और उसके पास सपा और कांग्रेस दो विकल्प मौजूद हैं। जहां तक दलित वोट का सवाल है तो उसे मायावती से न तो पहचान मिली न ही कोई विशेष आर्थिक लाभ या सशक्तिकरण हुआ।’ उन्होंने कहा कि आगरा और आजमगढ़ में सर्व समाज की महारैली की घोषणा से स्पष्ट है कि मायावती दिक्कत में हैं।

घटनाक्रम

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घटनाक्रम का प्रारंभ बीस जुलाई को दया शंकर सिंह के बयान से हुआ। उसी दिन शाम को बसपा ने अगले दिन इक्कीस जुलाई को लखनऊ में विशाल विरोध प्रदर्शन का एलान कर दिया। विशाल प्रदर्शन के दौरान बसपा के नेताओं ने अपने भाषणों में दया शंकर सिंह की मां, पत्नी और उनकी बारह वर्ष की बेटी को जिस तरह निशाने पर लिया और बेटी को पेश करने की चुनौती दी, वो अब बसपा को भारी पड़ रही है। इस प्रदर्शन के दौरान जिस तरह सवर्णांे को निशाना बनाया गया उससे 2004 से बसपा का सवर्ण जातियों को पार्टी से जोड़ने के लिए बड़ी मेहनत से बनाया गया सोशल इंजीनियरिंग का समीकरण तार तार हो गया। दया शंकर सिंह को केवल कुत्ता ही नहीं बसपा के वरिष्ठ नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी के मंच से जातिसूचक गालियां दी गर्इं। सिद्दीकी उत्तर प्रदेश विधान परिषद में विपक्ष के नेता हैं और उनको कैबिनेट मंत्री का दर्जा हासिल है।

विश्व संवाद केंद्र , लखनऊ के निदेशक अशोक सिन्हा कहते हैं, ‘अगर भारत की आजादी के सत्तर साल बाद भी कोई व्यक्ति सरेआम किसी की बेटी, बहन को पेश करने का आदेश देता है, तो कहीं न कहीं यहां भारतीय लोकतंत्र पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा होता है। नसीमुद्दीन द्वारा एक भाजपा नेता की बेटी मांगने की घटना को यदि आप एक सामान्य घटना मानते हैं तो शायद आप इतिहास की एक और बड़ी भूल का हिस्सा बन रहे हैं। आपसे आपकी बेटी मांगने की यह घटना वैसी ही है, जैसी आज से बीस साल पहले कश्मीर में घटी थी, जब किसी दूसरे नसीमुद्दीन ने कश्मीरी पंडितों से उनकी बेटियां मांगी थीं। …उस भारत में जहां हम यह मानते आए हैं कि बेटियां किसी एक की नहीं पूरे गांव की होती हैं, जहां हम कुमारियों का चरण पूजते समय उसकी जात पूछे बिना उसे दुर्गा स्वीकार करते हैं, वहां की बेटियां क्या इतनी असहाय हैं? दयाशंकर की बेटी सिर्फ दयाशंकर की नहीं पूरे राष्ट्र की बेटी है। नसीमुद्दीन ने सिर्फ एक दया शंकर सिंह की बेटी नहीं मांगी, उसने पूरे उत्तर प्रदेश की बेटी मांगी है।’

बसपा के उग्र प्रदर्शन के अगले दिन बाइस जुलाई को दया शंकर सिंह की पत्नी स्वाति सिंह ने मायावती के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। मायावती के पक्ष में लड़ी जा रही लड़ाई का रुख इस आम गृहिणी ने चंद घंटे में मोड़ दिया है। वह गृहिणी जो स्कूटी से चलती है। रोज सुबह बच्चों को स्कूल छोड़ती है। घर के लिए सब्जी लाने जाती है। लखनऊ-कानपुर रोड पर बसे आशियाना के मोहल्ले वालों की मानें तो वह आम गृहिणी और बहुत ही सहज स्वभाव की हैं। हम बात कर रहे हैं दयाशंकर सिंह की पत्नी स्वाति सिंह की। महज 24 घंटे के भीतर स्वाति के मायावती पर पलटवार ने यूपी की राजनीति में उथल-पुथल मचा दी। स्वाति आज आम नागरिक का चेहरा बन चुकी हैं। अपनी सास, मां और बच्चों की सुरक्षा के लिए स्वाति जिस तरह से लड़ रही हैं, उससे स्वाति यूपी में हर औरत और हर घर का चेहरा बनती जा रही हैं।

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