सत्यदेव त्रिपाठी
आखिर भंसाली के थैले से बिल्ली बाहर आ ही गई… (द कैट इज आउट आॅफ भंसालीज बैग)! और थैले में हमेशा के लिए बन्द कर रखने की मंशा रखने वालों ने भी देख लिया कि यह बिल्ली वैसी कतई नहीं है, जैसा सोचकर उसे बाहर आने से रोका जा रहा था। हो सकता है, बल्कि ज्यादा उम्मीद इसी की है कि रोकने वालों की ताकत से डरकर गिरगिट ने रंग बदल लिया है और प्रेमी-युगल के अंतरंग दृश्य के बदले भर फिल्म कदम-कदम पर राजपूती आन-बान-शान को भर दिया है, जिससे रोकने वालों को भरमुंह का जवाब मिल गया है और अवाम की भावनाओं का दोहन भी हो गया है। इस तरह अवतरित नई बिल्ली में संजय की लीला रंग ला रही है- पांचवें दिन फिल्म सौ करोड़ी संघ (क्लब) में शामिल हो गई और सात दिन में भारतीय बाजार में डेढ़ सौ करोड़ एवं विश्व-बाजार को मिला लिया जाए, तो ढाई सौ करोड़ की कमाई कर चुकी थी। ऐसे दोहन बहुत हैं फिल्म में, जो यहां आगे आते रहेंगे और जिनके बल उनकी कमाई आगे बढ़ती रहेगी।
अभी यह कि काट-छांटक समिति (सेंसर बोर्ड) की परीक्षा में ‘पद्मावती’ उत्तीर्ण हुई ‘पद्मावत’ होके, तो समिति को तसल्ली हो गई कि ‘अस्वीकरण’ (डिस्क्लेमर) के मुताबिक फिल्म को जायसी-काव्य का ही नाम मिल गया और शीर्षक भी व्यक्तिवाची से भाववाची बनके अधिक उपयुक्तता पा सका, लेकिन इन (‘त’ और ‘ती’ आदि) से भंसाली को कोई फर्क नहीं पड़ा, क्योंकि बाजार को नहीं पड़ा। असली मकसद पूरा हो रहा- साहित्यिक मिथकों पर बनी भंसालीजी की ‘देवदास’ व ‘बाजीराव मस्तानी’ से भी अधिक कमाई हो रही। और इस सफलता ने ‘थप्पड़’ (यदि वह भी प्रायोजित न रहा हो) का गम भी भुलवा दिया होगा। अब वे बेचने के लिए और भी साहित्यिक मिथकों की खोज में लग जाएंगे।
‘पद्मावत’ : फिल्म बनाम काव्य
‘फिल्म कोई ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं है, न ही संजय ने बनाने की कोशिश की है’, जैसी गलतबयानी करने वाले आलोचक तीन तक नहीं गिन पा रहे कि मंगोलों को परास्त करने के उल्लेख व चाचा को मारकर सुल्तान बनने के अलावा पूरी फिल्म साहित्यिक मिथक है, इतिहास नहीं। फिर ‘अस्वीकरण’ (डिस्क्लेमर) में इसे जायसी के महाकव्य ‘पद्मावत’ पर आधारित बताया गया है। ऐसा कर देना निरापद होता है, क्योंकि अब जायसी या शरत बाबू तो आज रहे नहीं कि अस्वीकरण और असलियत को लेकर सवाल या मुकदमा करें। उनके लिए लड़ने वाली कोई ‘करणी सेना’ भी नहीं। और उनका दुरुपयोग करने वालों में ऐसे कला-संस्कार व दियानत नहीं कि क्लासिक के नाम पर अपना उल्लू सीधा करने से बाज आएं। लिहाजा संजय भी अब ‘स्क्रिप्ट’ को सर्वोपरि मानने’ के लिए तो अपने कलाकारों को आगाह करते पाए जा रहे हैं (2 फरवरी, 2018- ‘दैनिक जागरण’), परंतु यह नहीं बता रहे हैं कि जब स्क्रिप्ट के लिए आप किसी क्लासिक को आधार बनाते हैं, तो किसे सर्वोपरि मानते हैं- अपनी स्क्रिप्ट को या उस क्लासिक आधार को? कुछ उदाहरण लें-
….क्या जायसी ने रावल रतन सिंह को सिंहल भेजा था नागमती के लिए नायाब मोती लाने या इसमें उनके बुद्धिशाली तोते व रानी नागमती के बीच की कोई कहानी और तोते की कोई अहम भूमिका थी, जो ली जाती, तो फिल्म के लिए कहीं ज्यादा मोहक होती। जिस निर्गुण सूफी मत के चलते ‘पद्मावत’ क्लासिक बना, उस दर्शन में ‘गुरु सुआ तेहिं पंथ बतावा, बिनु गुरु कहहु को निरगुन पावा’ कितना मायने रखता है? लेकिन फिल्म में उस तोते का तो भ्रूण भी नहीं आने दिया और उस दर्शन के संस्पर्श को भी शामिल करना आज की कमाऊ मंशा में कहां संभव था? सो, सब कुछ को रूपसी नायिका के तीरन्दाजी के निखार पर वार दिया! फिर उसके साथ एकांत गुफा में इलाज कराके सीधे प्रेम पनपा दिया गया!
….क्लासिक में तो सिंहल का राजा यूं ही नहीं ब्याह देता अपनी बेटी को, बल्कि ‘गुरु सुआ’ से सुनकर रतन सेन हजारों सैनिकों को साधु वेश में लेकर सिंहल जाते हैं। पद्मिनी-सौन्दर्य के प्रथम दर्शन में बेहोश भी हो जाते हैं, लेकिन लाते हैं उसे जीत कर ही। परंतु संजयजी पद्मिनी के ग्लैमर के सामने रतनसेन की बुद्धि-बहादुरी को क्यों दिखाते? सो, बस गुडी-गुडी कर दिया।
….काव्य के राघव चेतन ने तो पंडितों को अपना विद्या-बल दिखाने के लिए एकम के दिन ही दूज कर दी थी, इसलिए देश-निकाला दिया था स्वत: रतनसेन ने। पद्मिनी का तो इससे कुछ लेना-देना ही न था। लेकिन फिल्म ने कथा के इस भाग को तोड़-मरोड़ (ट्विस्ट) करके तीन-तीन तानें तोड़ी हैं। एक तो पद्मिनी के शयन-कक्ष में राघव चेतन से ताक-झांक कराके और कुछ उसके हाव-भाव भी बदलवाके एक तांत्रिक को पद्मिनी के रूप पर लट्टू या आशिक बना दिया है।
….दूसरे यह कि देश-निकाला में पद्मिनी की पहल दिखाकर उससे बदला लेने वाला फोकस भर दिया है और इस तरह तीसरी बात यह बन गई है कि पद्मिनी के चरित्र की उठान के लिए रावल रतन प्रेमी नहीं, पत्नी-भक्त- मेहरबस (हेनपैक्ड) बन गया है।
….बन्दी रावल रतन को छुड़ा लाने में अलाउद्दीन से बेतरह क्षुब्ध उसकी पत्नी मेहरुन्निसा की मदद से भी बाजार के कई तोड़ जोड़े गए हैं, पर यह महाकवि से एकदम ही टूट कर मेहरुन्निसा और पद्मिनी दोनों के दुख से फिल्म के एक सुख वाली भंसाली की ही स्क्रिप्ट हो गई है।
….कई मामले में निर्णायक भूमिका वाला मलिक काफूर का किरदार कपोल कल्पना है। फिर बादशाह के लिए शूटर जैसा काम करने वाला शख़्स और किन्नर! गजब का विरोधाभास है तथा बादशाह की मलिका बनने की इच्छा में विद्रूप भी।
ऐसी बहुतेरी बातें-वारदातें हैं, छोटी-छोटी ढेरों शृंखलाएं (सेक्वेंसेज) हैं, उन सबका उल्लेख यहां संभव नहीं। पर इन सबके मद्देनजर यह सवाल उठता है कि जब सिर्फ प्रमुख पात्रों एवं स्थलों के नामों और रतन सिंह की धोखे से गिरफ्तारी और रानियों के जौहर जैसे कथा-ढांचे के स्तंभों के सिवा भंसाली को सब कुछ भहरा ही देना था, तो सरनाम साहित्यिक मिथकों को उठाया ही क्यों? अपनी कथा बनाएं। जो चाहें, कराएं। लेकिन नहीं, लोकविश्रुत देवदास, बाजीराव मस्तानी और अब पद्मावती जैसे चरित्रों व कथाओं की लोकप्रियता का जो बम्पर मुनाफा और नाम मिलता है, वह कैसे होता? यदि पसंदीदा साहित्यिक कृतियों या मिथकों को साकार करने का जुनूं (पैशन) होता, उन्हें लेकर नयी व्याख्या की वैचारिक चेतना होती, तो ‘आम्रपाली’, ‘तीसरी कसम’, ‘नटसम्राट’ या फिर ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ ही सही- जैसा कुछ बनाते। लेकिन वैसी जहनियत व नीयत से महरूम लोगों की कुदरत ही है- सरनामों-सम्मान्यों को उठाना, विवाद पैदा करना और कमाना। पद्मावत-कथा पर ‘भारत : एक खोज’ की मात्र 25 मिनट की प्रस्तुति के समक्ष भुनाने और सृजन का फर्क देखा जा सकता है… खैर!
किरदार बनाम कलाकार
जब मूल कथा के प्रति कलात्मक सरोकार की जवाबदेही ही ऐसी है, तो उसे व्यक्त करने वाले किरदारों का क्या पूछना! ‘जड़-चेतन गुण-दोषमय’ का ऐसा विद्रूप है कि अच्छे को इतना अच्छा बनाया, जिसे देख सृष्टा भी चकरा जाए और बुरे को इतना बुरा कि बुराई भी त्राहि-त्राहि करने लगे। यही जलजला है अलाउद्दीन खिलजी और रावल रतन के किरदारों में। राजपूती उसूलों व शान-स्वाभिमान को भरने में रत्नसेन देवता हो जाते हैं और अपनी सारी हविश को किसी भी कीमत पर पूरा करने में खिलजी राक्षस हो जाता है। आज के दौर में यह विलोमी रूप आम दर्शक के लिए हिन्दू-मुस्लिम का पर्याय बने बिना न रहेगा, जिसके लिए फिल्मकार ने कोई परहेज न बरता …क्या इरादतन? दोनों के धवल-कालिमा लिए पहनावों में भी यह साफ है। शादी के दिन किसी अन्य के साथ देह-रति और पत्नी के साथ जबरदस्ती सेक्स करने की हविश में मनमाना खिलजी बनाने के लिए रनवीर के चलने-बोलने व खासकर मांस खाने से लेकर सभी अदा-ओ-अन्दाज व मेकअप-वेश-भूषादि पर जितना काम किया गया है, उसका दसवां हिस्सा भी रतन बने शाहिद पर नहीं। मूल्यवता रत्नसेन की, पर फिल्म रनवीर की हो गई है। मूल्यों की मर्यादाएं लिए रतन बने शाहिद (विशाल भारद्वाज के हैदर के मुकाबले) बुझे-बुझे व फ्लैट हैं; तो सबकुछ को ध्वंस करता खिलजी बना रनवीर डांफ रहा है।
यही सलूक पद्मिनी बनी दीपिका पादुुकोण के समक्ष भी शाहिद का है। पद्मिनी पर ही फिल्म है और राजा रतन के मुकाबले रानी के महिमा-मंडन की थोड़ी झांकी ऊपर दिखायी गई। रतन के जीतेजी मृत्यु की आशंका के साथ जौहर करने की आज्ञा लेने तक में महत्ता दिखती है दीपिका की ही। और इस सलूक में सिनेमाई फितरत कम, टिकट खिड़की पर इनकी औकात से प्रेरित पसंदगी का ही मामला ज्यादा है। बाकी कलाकारों को कोई खास तवज्जो नहीं दी गई है। जैसे अलाउद्दीन के लिए काम-पूर्ति तक का साधन है राघव चेतन, उसी तरह पद्मिनी-खिलजी के अलावा सारे किरदार व कलाकार भंसाली के लिए काम-पूर्ति तक ही कीलित हैं। गोरा-बादल को राजपूती शान में शरीक करके उनकी मिथकीय हैसियत का सम्मान किया जा सकता था। बादल की मां में किंचित ऐसा हुआ भी है, पर उसका भी ज्यादा हिस्सा दीपिका के चरित्र को उभारने में परवान चढ़ गया है। नागमती का होना भी पद्मिनी के उठान की बलि है। ऐसी पूर्वग्रही किरदारी और कलाकारियत के साथ ऐसा सलूक… कम ही मिलेगा कहीं।
भव्यता बनाम वास्तविकता
भव्यता भंसाली की फिल्मों की अपनी खासियत है। और यह भी अपने महिमा-मंडन में वास्तविकता और सामाजिक चेतना को रौंदती हुई नुमायां हुई है। नयनाभिराम दृश्य संयोजन हर चौखटे (फ्रेम) में मौजूद हैं, किन्तु भव्यता की ऐसी भी कैसी आत्मरति कि स्त्रियों, जिनमें गर्भवती भी शामिल हैं, के सामूहिक अग्निस्नान के संवादहीन 15 मिनट सजी-धजी सुन्दरी नायिका की मारक गति और उस पर जंचते पार्श्व-संगीत के साथ भंसालीजी जैसे निर्देशक के लिए ‘अविस्मरणीय क्लाइमेक्स’(की जुगाली) बन जाएं। वरना खिलजी का सिर्फ आना और धुआं उठते राखों के ढेर को देखने भर से इस लंबी फिल्म के 15 मिनट तो बचते ही, वह भीषण त्रासदी जितनी गहराती, वो इस भव्यता में बह गई है।
सौन्दर्य-हानि और उससे छीजती भव्यता के डर से शिकार करती नायिका के भी सर-कमर तो बंधते नहीं, केश भी खुले ही रहते हैं, पर संजय की लीला ऐसी कि मजाल है जो आंचल तक खिसक जाए। घूमर नृत्य दिखाने का कथित उद्देश्य तो राजस्थानी संस्कृति के प्रतीक का निदर्शन है, पर हाय री भव्यता की लत (लस्ट) कि उसे रानी पर ही फिल्माना है, जिससे वस्त्र-आभूषण की भव्यता का निखार भी आ जाए – फिर चाहे भले महारानी को नचाने में उसी राजपूती संस्कृति का पूरा विखंडन ही क्यों न हो जाए। और विरोध न हुए होते, तो भंसाली की रानी पद्मिनी भरी महफिल में ही नाचती। और क्या अब कहने की जरूरत रह जाती है कि इस पूरे प्रकरण की चाबी दीपिका-रूप के दोहन में छिपी है। भव्यताओं की ऐसी विद्रूपताएं शयन-कक्ष में होली-गीत जैसी तमाम और भी हैं, जो 3डी की तकनीक में अधिक जगमगा उठी हैं।
फिल्म बनाम दर्शक
ऊपर से शालीन लगती फिल्म में बड़ी चतुराई से पिरोये उक्त हॉट तत्त्वों से हिट हुई जा रही फिल्म को अधिकांश समीक्षाओं में ढाई स्टार देने वालों ने शायद समझा भी है। लेकिन आम दर्शक को तो यही भाता है, जो और जिस तरह भंसाली परोस रहे हैं। और असल बात यही है कि जायसी की कालजयी कृति, दीपिका पादुकोण के सौन्दर्य व अलाउद्दीनी नृशंसता के नाम पर रनवीर सिंह के जलवे… आदि सब कारक मात्र ही हैं। सच में दोहन तो हो रहा है अवाम की इसी मानसिकता का, जिसे भंसाली ने ‘देवदास’ से लेकर ‘पद्मावत’ तक निरंतर बढ़ाया है- बल्कि ऐसे तमाम फिल्मकार अवाम की सोई हुई ईहाओं को जगाने का यही काम कर रहे हैं और इसी के बल उसे लूट रहे हैं। इससे समाज और संस्कृति पर पड़ने वाले फर्क को भी वे जानते हैं, पर दुर्योधन के ‘जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्ति:’ की तरह उन्हें इसकी पड़ी नहीं और अवाम को इसका पता नहीं। सो, आम दर्शक इन्हीं सब पर दिल खोल कर पैसे लुटा रहा है और अपनी इसी लीला को लूट रहे हैं भंसाली… आदि।
लेकिन लूटने वाले भी काव्य, कला व सौन्दर्य को बाजार में बेचने के बदले वही मांग-पा रहे हैं, जिसके लिए बाबा तुलसी कह गए हैं- ‘का मांगौं कछु थिर न रहाई’। तो, नाम-दाम लेकर ये लोग भी ‘थिर न रहाई’ हो जाएंगे। लेकिन छह सौ सालों से जड़ जमाए ‘पद्मावत’ को हिला न सकेंगे, जैसे 16 साल हो गए ‘देवदास’ का विद्रूप बनाए, पर शरत बाबू के ‘देवदास’ का कुछ न बिगड़ा। सच्ची कला व संस्कृति की फितरत यह भी है।
पर बरवक़्त क्या हो इसका कि रनवीर के कारनामे सड़कों-नुक्कड़ों पर सराहे जा रहे हैं। मूल्यों के लिए कुर्बान हो जाने वाले रावल रतन बने शाहिद के साथ फिल्म ने जितनी अनवधानता बरती, वही जनता में उतर रही। दीपिका की देहयष्टि पर फबते विविध रूपरंगी लहंगों और विशिष्ट कोणों से नुमायां किए गए आंगिक सौन्दर्य व दिलकश अदाओं पर फिदा हैं लोग। दुष्यंतकुमार के शब्द उधार लेकर कहूं, तो इन तथाकथित ‘रहनुमाओं की अदाओं पे फिदा है दुनिया, इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारो।’