वीरेंद्र नाथ भट्ट।
15 अगस्त को समाजवादी पार्टी के प्रदेश दफ्तर में झंडा रोहण के बाद अपने भाषण में मुलायम सिंह यादव ने मुख्यमंत्री बेटे अखिलेश यादव को उनकी सरकार की कार्यशैली पर खूब खरी खोटी सुनाई। पार्टी नेता हैरान थे कि आखिर नेताजी को क्या हो गया है। मुख्यमंत्री ने पर्ची भी भिजवाई कि मीडिया के लोग मौजूद हैं। मुलायम ने पर्ची को किनारे रख दिया और अपनी बात कहना जारी रखा। उन्होंने कहा, ‘रहने दो मीडिया को। ये लोग क्या रोज- रोज आएंगे मेरी बात सुनने के लिए।’ अपने छोटे भाई शिवपाल यादव का बचाव करते हुए उन्होंने कहा, ‘उसे परेशान किया जा रहा है। पार्टी में उसकी कोई बात नहीं सुनी जाती। अगर उसने पार्टी से इस्तीफा दे दिया तो पार्टी और सरकार दोनों की ऐसी-तैसी हो जाएगी और सरकार भी खतरे में पड़ जाएगी।’ मुलायम जब यह कह रहे थे तो अपना ही इतिहास दोहरा रहे थे। जुलाई 2012 में मुलायम अपने दोनों भाइयों शिवपाल यादव और राज्यसभा सदस्य राम गोपाल यादव को फटकार लगा चुके हैं। तब उन्होंने उनसे कहा था कि यदि आप दोनों अपने झगड़े हल नहीं कर सकते तो पार्टी से इस्तीफा देकर घर बैठिए। तब यह बात मीडिया में जगह नहीं पा सकी थी। अब चुनाव नजदीक है, सत्ता संघर्ष निर्णायक दौर में जा रहा है तो नई पुरानी सब बातें सामने आ रही हैं।
राजनीतिक जानकार कहते हैं कि यह केवल चाचा-भतीजे की या विधानसभा चुनाव के लिए टिकटों के बंटवारे की लड़ाई नहीं है। यह समाजवादी पार्टी के प्रथम परिवार के बूढ़े हो चुके मुखिया मुलायम सिंह के बेटे और भाई के बीच राजनीतिक विरासत का संघर्ष है जो विकास बनाम गठबंधन के नाम पर लड़ा जा रहा है। पिता और चाचा की बैसाखी के सहारे अपने कार्यकाल के अंतिम दौर में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की चिंता अब पार्टी और संगठन पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने की है। अखिलेश यादव का दावा है कि उनके कार्यकाल में उत्तर प्रदेश का बहुत तेजी से विकास हुआ है। प्रदेश के हर वर्ग को इसका लाभ मिला है। लिहाजा केवल विकास को ही चुनावी मुद्दा बना कर पार्टी को चुनाव मैदान में उतरना चाहिए। इससे पार्टी को अपने दम पर पूर्ण बहुमत मिलेगा। लेकिन जमीनी राजनीति की समझ और पकड़ रखने वाले पार्टी के अधिकांश नेता और खुद मुलायम सिंह इससे सहमत नहीं हैं। उनका मानना है कि सत्ता में वापसी के लिए समाजवादी पार्टी को छोटे दलों से गठबंधन करना होगा। समाजवादी पार्टी की अंदरूनी लड़ाई अब विकास बनाम गठबंधन पर केंद्रित हो गई है।
समाजवादी पार्टी में सत्ता का संघर्ष अब निर्णायक दौर मैं है क्योंकि विधानसभा चुनाव नजदीक है। चुनाव परिणाम केवल पार्टी की दिशा और दशा ही नहीं पार्टी में अखिलेश यादव का भविष्य भी तय करेगा। पार्टी के नेता खुल कर तो नहीं बोलते लेकिन इस बात पर आम राय है कि 2017 का चुनाव परिणाम कुछ भी हो, यह भी तय हो जाएगा कि मुलायम के बाद कौन पार्टी का सुप्रीमो होगा। पार्टी के नेता कुछ भी दावा करें लेकिन संभावित परिणाम का अंदाजा सभी को है। खुद मुलायम सिंह पार्टी नेताओं को लगातार आगाह कर रहे हैं कि जमीनों पर कब्जा और राजनीति को पैसा कमाने का जरिया मानने की प्रवृत्ति अगर कायम रही तो दोबारा सत्ता में आना मुश्किल होगा।
अखिलेश यादव किसी भी दल से गठबंधन के सख्त खिलाफ हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि जब सभी दल सत्ता पाने को जिताऊ समीकरण बनाने में लगे हैं तो अखिलेश खिलाफ क्यों हैं? इसका कारण स्पष्ट है कि पार्टी यदि गठबंधन के साथ चुनाव मैदान में उतरती है तो यह तय नहीं है कि सहयोगी दलों के विधायक अखिलेश को अपना नेता मानेंगे ही। साथ ही किसी भी दल को बहुमत नहीं मिलने की स्थिति में यदि समाजवादी पार्टी की सरकार बनने का कोई समीकरण बनता है तो उसका नेता कौन होगा इसकी भी गारंटी नहीं है।
समाजवादी पार्टी के प्रथम परिवार का सत्ता संघर्ष एक बार फिर चर्चा में है मगर इसमें कुछ भी नया नहीं है। सरकार की हनक के चलते यह खबर मीडिया की सुर्खियां कभी नहीं बनी मगर अब चुनाव नजदीक है तो झगड़ा सतह पर आ गया है। चाचा-भतीजे की खींचतान को काबू में करने के लिए मुलायम सिंह को खुद मैदान में उतरना पड़ा। परिवार के मुखिया धर्म संकट में हैं। इस संघर्ष के दोनों योद्धा अपने ही हैं। एक तरफ बेटा है तो दूसरी तरफ भाई। समाजवादी पार्टी ने अपने 25 साल के इतिहास में पहली बार 2012 में अपने बूते प्रदेश की सत्ता हासिल की थी। 403 सदस्यीय विधानसभा में पार्टी 224 सीटों पर विजयी रही। तब इस जीत का श्रेय अखिलेश यादव को दिया गया था और कहा गया था कि उनके करिश्मे के कारण युवा वर्ग का भरपूर समर्थन पार्टी को मिला। उनके नेतृत्व ने पार्टी को लाठी की पार्टी से लैपटॉप की पार्टी बना दिया।
मुलायम परिवार के अंदर सत्ता संघर्ष तो अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री बनने से पहले ही शुरू हो गया था। मुलायम ने अपने बेटे को सत्ता सौंपने का निर्णय किया था जबकि पार्टी में नंबर दो की हैसियत रखने वाले उनके छोटे भाई शिवपाल यादव मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे। राजनीतिक समीक्षकों का स्पष्ट मानना है कि क्षेत्रीय दलों में शीर्ष नेता के उम्रदराज होने पर वारिसों में उत्तराधिकार का संघर्ष होना बहुत सहज और स्वाभाविक है।
तीन मार्च 2012 को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के अंतिम दौर के मतदान के बाद लगभग तय हो गया था कि सपा सरकार बनाने जा रही है। आठ मार्च को होली के अगले दिन मुलायम सिंह ने अपने गांव सैफई में परिवार की बैठक बुलाई जिसमें अगले मुख्यमंत्री के बारे में निर्णय लिया जाना था। मुलायम सिंह के छोटे भाई राजपाल यादव ने अखिलेश के नाम का प्रस्ताव किया जिसका शिवपाल ने यह कह कर विरोध किया कि नेताजी छह महीने के लिए मुख्यमंत्री बन जाएं उसके बाद अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है। राम गोपाल यादव ने इसका विरोध करते हुए कहा कि राजनीति में इतने महत्वपूर्ण निर्णय एक ही बार लिए जाते हैं। अभी नहीं तो कभी नहीं। मुलायम ने राम गोपाल के निर्णय पर मुहर लगा दी और 15 मार्च 2012 को अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बन गए।
अखिलेश अपने चाचा के इस उपकार को भूले नहीं हैं। वो उनकी किसी भी बात को नहीं टालते। अखिलेश सरकार के एक मंत्री कहते हैं कि इटावा से लेकर गाजियाबाद तक सभी जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक राम गोपाल की पसंद के हैं। इसकी बानगी इस बात से भी मिलती है कि राम गोपाल के विश्वासपात्र और नोएडा के चीफ इंजीनियर रहे यादव सिंह को सीबीआई जांच से बचाने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट तक मुकदमा लड़ा लेकिन यादव सिंह बच नहीं सके और इस समय जेल में हैं। राम गोपाल की बदौलत अखिलेश मुख्यमंत्री तो बन गए लेकिन इस घटना ने शिवपाल और राम गोपाल के बीच की दरार को और गहरा कर दिया। यह कम होने की बजाय बढ़ती गई जो आज चरम पर है।
जून 2012 में अखिलेश सरकार के सौ दिन पूरे होने पर मीडिया के सवाल पर मुलायम सिंह प्रदर्शन के आधार पर बेटे की सरकार को सौ में सौ नंबर दिए थे। लेकिन एक महीना भी नहीं बीता था कि मुलायम ने मुख्यमंत्री के कालिदास मार्ग स्थित सरकारी आवास पर सभी मंत्रियों की बैठक बुलाई और सबको जम कर लताड़ लगाई। उन्होंने कहा कि कोई मंत्री काम नहीं कर रहा है सब पैसा कमाने में लगे हैं। इसके बाद पार्टी की राज्य कार्यकारिणी की बैठक बुलाई गई। वहां भी मुलायम ने सबको लताड़ा और सुधर जाने की चेतावनी दी। फिर पार्टी कार्यालय में पार्टी के अगुवा संगठनों की बैठक हुई और सभी युवा नेताओं को उन्होंने फटकार लगाई। तब पार्टी और मीडिया के लोग हैरान थे की आखिर एक महीने पहले अखिलेश सरकार को पूरे नंबर देने वाले मुलायम एकाएक इतने तल्ख क्यों हो गए हैं।
मंत्रिमंडल और संगठन की बैठकों से पहले सपा सुप्रीमो ने अपने आवास पर एक बैठक बुलाई थी जिसमें शिवपाल यादव, राम गोपाल यादव समेत अखिलेश यादव भी शामिल हुए। बैठक में राम गोपाल ने कहा कि शिवपाल की हरकतों से सरकार की बदनामी हो रही है जिसका शिवपाल ने कड़ा प्रतिवाद ही नहीं किया बल्कि राम गोपाल पर भी कई आरोप लगाए। तब मुलायम ने दोनों को डांट लगाते हुए कहा की यदि आप लोग अपने झगडेÞ नहीं हल कर सकते तो इस्तीफा देकर घर बैठें। उसके बाद से मुलायम ने सरकार और संगठन के पेंच कसने शुरू कर दिए ताकि सरकार और संगठन पर अखिलेश का इकबाल कायम हो सके।
चार साल बाद अब अखिलेश का कद इतना बड़ा हो गया है कि वो अपने पिता और पार्टी अध्यक्ष के फैसलों को चुनौती दे रहे हैं। मुलायम सिंह के निर्देश पर वरिष्ठ मंत्री बलराम यादव अफजल अंसारी से मिलने उनके लखनऊ स्थित आवास पर गए थे और उनकी पार्टी कौमी एकता दल के दो विधयाकों का राज्यसभा चुनाव के लिए समर्थन मांगा। अफजल की पार्टी के दोनों विधयाकों ने सपा उम्मीदवार को वोट भी दिया। राज्यसभा चुनाव के बाद मुलायम के निर्देश पर ही 21 जून को शिवपाल ने कौमी एकता दल के सपा में विलय की घोषणा की। अखिलेश यादव को यह बात नागवार लगी और उन्होंने उसी दिन बलराम यादव को मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया। 25 जून को पार्टी के संसदीय बोर्ड की बैठक बुलाई गई और कौमी एकता दल के विलय के निर्णय को खारिज कर दिया गया। अब फिर से कौमी एकता दल के साथ संबंध बनाने की सुगबुगाहट है। उसका सपा में विलय होगा या चुनाव में उसके साथ गठबंधन, अभी तय नहीं है।