धर्म, जाति, समुदाय और भाषा के नाम पर वोट मांगने को गैरकानूनी करार देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इस आधार पर वोट मांगना संविधान की भावना के खिलाफ है। चुनाव एक धर्मनिरपेक्ष पद्धति है। जन प्रतिनिधियों को भी अपने कामकाज धर्मनिरपेक्ष आधार पर ही करने चाहिए। इस फैसले का असर पांच राज्यों के आगामी विधानसभा चुनाव पर दिख सकता है। चुनाव आयोग को ऐसे उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों के खिलाफ कार्रवाई करनी होगी जो इस आधार पर वोट मांगेंगे।
सात जजों की संवैधानिक पीठ ने इस संबंध में दायर एक याचिका पर सुनवाई करते हुए 4-3 से यह फैसला दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की कि भगवान और मनुष्य के बीच का रिश्ता व्यक्तिगत मामला है। कोई भी सरकार किसी एक धर्म के साथ विशेष व्यवहार नहीं कर सकती। एक धर्म विशेष के साथ खुद को नहीं जोड़ सकती। याचिका में सवाल उठाया गया था कि धर्म और जाति के नाम पर वोट मांगना जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत भ्रष्ट आचरण है या नहीं। जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा-123 (3) के तहत ‘उसके’ धर्म की बात है और इस मामले में सुप्रीम कोर्ट को व्याख्या करनी थी कि ‘उसके’ धर्म का दायरा क्या है? प्रत्याशी का या उसके एजेंट का भी।
मामले की सुनवाई के दौरान मसला ये आया कि जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 (3) के तहत ‘ उसकी’ क्या व्याख्या होगी। इसके तहत धर्म के नाम पर वोट न मांगने की बात है। एक्ट के तहत उसके धर्म (हिज रिलीजन) की बात है। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर की अगुवाई वाली पीठ ने इस मामले में सुनवाई के दौरान जन प्रतिनिधित्व कानून के दायरे को व्यापक करते हुए कहा कि हम ये जानना चाहते हैं कि धर्म के नाम पर वोट मांगने के लिए अपील करने के मामले में किसके धर्म की बात है? प्रत्याशी के धर्म की बात है या एजेंट के धर्म की बात है या फिर तीसरी पार्टी के धर्म की बात है जो वोट मांगता है या फिर वोटर के धर्म की बात है। पहले इस मामले में आए फैसले में कहा गया था कि जन प्रतिनिधत्व कानून की धारा-123 (3) के तहत धर्म के मामले में व्याख्या की गई है कि उसके धर्म यानी प्रत्याशी के धर्म की बात है।
इससे पहले पिछले 6 दिनों में लगातार मामले की सुनवाई हुई और इस मामले में सीनियर एडवोकेट श्याम दीवान, अरविंद दातार, कपिल सिब्बल, सलमान खुर्शीद और इंदिरा जय सिंह आदि ने दलीलें पेश की। भाजपा के वकील की दलील थी कि धर्म के नाम पर वोट का मतलब प्रत्याशी के धर्म से होना चाहिए। इसके लिए व्यापक नजरिये को देखना होगा। राजनीतिक पार्टी अकाली दल का गठन अल्पसंख्यक सिख के लिए काम करने के लिए बना है। वहीं आईयूएमएल मुस्लिम के कल्याण की बात करता है। वहीं डीएमके भाषा के आधार पर काम करने की बात करता है। ऐसे में धर्म के नाम पर वोट मांगने को पूरी तरह से कैसे रोका जा सकता है।
वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस की ओर से पेश सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल की दलील थी कि किसी भी प्रत्याशी, एजेंट, तीसरी पार्टी द्वारा धर्म के नाम पर वोट मांगना करप्ट प्रैक्टिस है। इंटरनेट के युग में सोशल मीडिया के माध्यम से धर्म के नाम पर वोटर को आकर्षित किया जा सकता है।
राजस्थान, मध्य प्रदेश व गुजरात की ओर से पेश एडिशनल सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने दलील दी कि धर्म को चुनावी प्रक्रिया से अलग नहीं किया जा सकता। हालांकि प्रत्याशी धर्म के नाम पर वोट मांगता है तो इसे भ्रष्ट आचरण माना जाए। इस पर चीफ जस्टिस ने टिप्पणी की कि राज्य इस तरह का रिप्रेजेंटेशन क्यों दे रही है। क्यों धर्म के नाम पर इजाजत दी जाए। संसद का मकसद साफ है कि किसी भी इस तरह के वाकये को स्वीकार न किया जाए।
इसी बीच इस मामले की सुनवाई के दौरान माकपा ने मामले में दखल की अनुमति की गुहार लगाई। पार्टी महासचिव की ओर से इस मामले में दखल के लिए अर्जी दाखिल की गई थी। सीपीएम की दलील थी कि धर्म के नाम पर वोट मांगने पर चुनाव रद्द हो।
सुप्रीम कोर्ट के सात जजों की बेंच ने साफ किया कि वह हिंदुत्व के मामले में दिए गए 1995 के फैसले पर पुनर्विचार नहीं करेगा। 1995 के दिसंबर में जस्टिस जेएस वर्मा की बेंच ने फैसला दिया था कि हिंदुत्व शब्द भारतीय लोगों की जीवन शैली की ओर इंगित करता है। हिंदुत्व शब्द को सिर्फ धर्म तक सीमित नहीं किया जा सकता।
गौरतलब है कि सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़, रिटायर प्रोफेसर शम्सुल इस्लाम और दिलीप मंडल ने अर्जी दाखिल कर धर्म और राजनीति को अलग करने की गुहार लगाई थी। इस संवैधानिक पीठ में प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति टी एस ठाकुर के अलावा न्यायमूर्ति एमबी लोकुर, न्यायमूर्ति एलएन राव, न्यायमूर्ति एसए बोबडे का विचार बहुमत में था जबकि अल्पमत में न्यायमूर्ति यूयू ललित, न्यायमूर्ति एके गोयल और न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ का विचार था।