बनवारी ।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अब तक चलन में रहे पांच सौ और एक हजार रुपये के नोट बंद करने की घोषणा करते हुए उसके दो कारण बताए थे। एक कि उससे कालेधन की समस्या से निपटने में मदद मिलेगी और दूसरा कि उससे आतंकवादियों द्वारा प्रसारित किए गए जा रहे नकली नोटों की समस्या हल हो जाएगी। लेकिन ये दोनों उद्देश्य नोटबंदी के तात्कालिक और सीमित उद्देश्य ही हो सकते हैं। सरकार को इतना बड़ा कदम उठाते हुए उसके तात्कालिक कारणों की घोषणा करना आवश्यक था। इसलिए सरकार की तरफ से मुख्यत: ये कारण बताए गए। लेकिन नोटबंदी सरकार द्वारा उठाया गया अकेला कदम नहीं है। हमारे राजनीतिक और आर्थिक पंडितों को उसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में भी देखना चाहिए था। लेकिन दुर्भाग्य से अब तक सारी बहस इस आकलन तक सीमित होकर रह गई है कि नोटबंदी से सरकार कितना कालाधन निकाल पाएगी और आतंकवादियों को नए नोट की नकल करने से कितने दिन तक रोका जा सकता है।
नोटबंदी की घोषणा करते हुए सरकार निश्चय ही यह जानती थी कि यह कोई साधारण कदम नहीं है। देश में प्रचलित मुद्रा के मूल्य का 86 प्रतिशत पांच सौ और हजार के नोटों के रूप में बाजार में है। देश के साधारण और गरीब लोग भी पांच सौ और हजार के नोट के जरिये अपने लेन-देन के काम करते हैं। इसलिए इन नोटों की बंदी का मतलब देश की समूची आबादी को स्थिति सामान्य रहने तक असुविधा में डालना है। यह स्थिति पूरी तरह कब सामान्य होगी अभी नहीं कहा जा सकता। लेकिन सरकार के इस कदम से संकटग्रस्त रोगी, शादी-ब्याह, बड़े-छोटे सभी काम-धंधे और रोज की मजदूरी करने वाले लोग मुसीबत में पड़ रहे हैं। फिर भी देश के सामान्य लोगों ने सरकार के इस कदम का स्वागत ही किया है। अपनी दैनंदिन मुसीबतों को अब तक वे बहुत धैर्य और शांति से झेलते रहे हैं। विरोधी दलों ने लोग की तकलीफों को राजनीतिक मुद्दा बनाते हुए सरकार को घेरने की कोशिश की है। यह हमारे लोकतंत्र की बहुत बड़ी कमजोरी है कि सभी राजनीतिक दल केवल नकारात्मक राजनीति ही करते हैं। इस मुश्किल परिस्थिति में विरोधी दलों ने सरकार की आलोचना करते हुए लोगों की कुछ मदद भी की होती तो उनकी राजनीति अधिक सार्थक रही होती। अभी वे सामान्य लोगों के उपहास का पात्र ही बन रहे हैं।
सरकार के नोटबंदी के कदम से पैदा हो रही कठिनाइयों का एक बड़ा कारण यह है कि इतने बड़े पैमाने पर पूरे देश के आर्थिक जीवन को अस्त-व्यस्त कर देने वाला ऐसा कदम अपने यहां तो क्या हाल के इतिहास में विश्व में कहीं और भी नहीं उठाया गया। उसका कोई पूर्वानुभव नहीं है। फिर भी यह मानने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि यह कदम उठाने से पहले कुछ और तैयारी की जानी चाहिए थी। इस कदम की गोपनीयता बनाए रखने के लिए कोई प्रकट तैयारी नहीं की जा सकती थी। फिर भी ऐसी अप्रत्यक्ष योजना तैयार की जा सकती थी कि नए नोटों का पर्याप्त भंडार हो जाए और पुराने छोटे नोटों की बाजार में पर्याप्त उपलब्धता हो। साधारण लोगों की समस्याओं के हल के लिए केवल औपचारिक तंत्र पर निर्भर रहना सही नहीं था। अनौपचारिक तंत्र के उपयोग की विधियां निकाली जानी चाहिए थीं। कतार में लगे लोगों की इतनी अधिक संख्या में मृत्यु से स्पष्ट है कि लोगों के मन में भारी अनिश्चितता थी। उनमें यह भरोसा पैदा करना आवश्यक था कि देश के साधारण ईमानदार व्यक्ति को कोई तकलीफ नहीं होने दी जाएगी। हम यह सब नहीं कर सके, यह केवल सरकार की नहीं, हमारे राजनीतिक, आर्थिक तंत्र और पूरे समाज की असफलता है।
अगले एक माह में यह स्पष्ट हो जाएगा कि सरकार ने नोटबंदी के जो तात्कालिक उद्देश्य गिनाए थे, उनमें कितनी सफलता मिली है। सरकारी एजेंसियों का आकलन है कि देश में लगभग चार सौ करोड़ रुपये के नकली नोट थे, जो पाकिस्तान में छापकर आतंकवादी गतिविधियों के लिए भारत में खपाए गए थे। आतंकवादियों की इस कुटिल योजना पर अब विराम लग गया है। विशेषज्ञों का मानना है कि नए नोटों की नकल करने में उन्हें दो-तीन वर्ष लग जाएंगे। लेकिन इससे निश्चय ही आतंकवादी तंत्र की कमर नहीं टूट जाएगी। यह कोई नहीं सोचता कि आतंकवादी तंत्र केवल नकली नोटों के भरोसे था। इसी तरह जो कालाधन पांच सौ और हजार रुपये के नोटों में जमा था, वह कुल कालेधन का एक छोटा हिस्सा ही था। यह कोई नहीं जानता कि कुल कितना कालाधन पांच सौ और हजार के नोटों में जमा था। 1978 के अनुभव के आधार पर अनुमान लगाने की कोशिश की गई है कि संभव है पांच सौ और हजार रुपये के नोटों के रूप में जो 14 लाख करोड़ रुपये चलन में हैं, उनमें से बीस प्रतिशत बैंकों के पास वापस न आएंगे। ऐसी स्थिति में लगभग तीन लाख करोड़ रुपये की रिजर्व बैंक की देनदारी बच जाएगी। वह पैसा लाभ के रूप में केंद्र सरकार को स्थानांतरित किया जा सकता या नहीं, इस पर अभी विवाद है। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर सुब्बा राव ने कहा है कि रिजर्व बैंक के हर नोट पर यह वचनबद्धता अंकित है कि मांगने पर उसके मूल्य की भरपाई की जाएगी। फिर रिजर्व बैंक कैसे उसे बट्टे खाते में डाल सकता है?
लेकिन यह मान भी लिया जाए कि नोटबंदी के कारण इतनी राशि सरकार को मिल जाएगी, तो भी यह कोई इतनी बड़ी राशि नहीं है जिसके लिए पूरे देश को आर्थिक अस्तव्यस्तता में डाला जाए। सब जानते हैं कि यह कदम उठाते समय हमारी अर्थव्यवस्था अच्छी हालत में थी। भारत को संसार की सबसे तेज रफ्तार से बढ़ रही अर्थव्यवस्था बताया जा रहा था। मुद्रास्फीति की दर अधिक नहीं थी। सबसे बड़ी बात यह कि यह रबी की फसल बोने का समय है। खेती ही नहीं, उद्योगधंधों के लिए भी जो वित्तीय वर्ष के उत्तरार्द्ध की बढ़ी हुई आर्थिक गतिविधियों का लाभ उठाने की स्थिति में होते हैं, यह महत्वपूर्ण समय था। अगर नोटबंदी के कारण खेती और उद्योगधंधों में अल्पकालिक ठहराव आता है तो उसका असर हमारी वृद्धि दर पर पड़ेगा। कई अर्थशास्त्रियों ने तो यह घोषित कर दिया है कि भारत की वृद्धि दर इस वर्ष घटकर 6.5 प्रतिशत रह जाएगी। लेकिन यह सारा विश्लेषण नोटबंदी के इस कदम के केवल तात्कालिक और सीमित उद्देश्य पर ही ध्यान केंद्रित करने के कारण हो रहा है।
नरेंद्र मोदी के विरोधी भी यह स्वीकार करेंगे कि उनकी सरकार पिछली कांग्रेसी सरकारों की तरह यथास्थिति की पोषक सरकार नहीं है। उसकी सबसे बड़ी चुनौती यह है कि विश्व मंदी के इस दौर में भारतीय अर्थव्यवस्था को तेज गति कैसे दी जाए। अब तक उसने रक्षा उद्योग खड़ा करने, मूलभूत ढांचे का विकास करने, ऊर्जा की उपलब्धता बढ़ाने, औद्योगिक विकास की रफ्तार तेज करने, सरकारी नियमों को सरल और पारदर्शी बनाने और टैक्स प्रणाली में सुधार करने की काफी कोशिश की है। यह सब करते हुए उसने अनुभव किया है कि राज्य के पास अपनी सभी नीतियों के कार्यान्वयन के लिए पर्याप्त साधन नहीं हैं। कराधान का दायरा बहुत छोटा है। करों के दायरे के बाहर एक समानांतर अर्थव्यवस्था चल रही है। जब तक हम इस समानांतर अर्थव्यवस्था पर अंकुश नहीं लगा पाते, राज्य के पास अपनी नीतियां लागू करने के लिए पर्याप्त साधन नहीं हो सकते। कर चोरी से जो कालाधन पैदा होता है, उसे अनुत्पादक कामों में लगाने, जमा रखने या विदेश स्थानांतरित कर देने की प्रवृत्ति रहती है। काफी काला धन भ्रष्ट तरीकों से जमा होता है। यह भ्रष्ट तंत्र इतना व्यापक है कि उस पर सीधे अंकुश लगाना कठिन हो गया है। सरकारी तंत्र का एक बड़ा भाग इस भ्रष्ट तंत्र का अंग है। इस तंत्र के कारण देश में ईमानदारी से कारोबार करना कठिन बना हुआ है।
काले धन के अनुत्पादक कामों में लगने से देश में चल संपत्तियों और सोने-चांदी जैसी मूल्यवान धातुओं के दाम बेतहाशा बढ़ गए हैं। काफी काला धन जमीनों की खरीद में लगा है। उसके कारण यह हालत हो गई है कि अब कोई व्यक्ति अपनी ईमानदारी की कमाई से अपना घर नहीं बना सकता। कुछ दशक पहले तक एक निम्न-मध्य वर्ग का व्यक्ति भी अपनी ईमानदारी की आमदनी से अपना घर बना लेता था और बिना कर्ज में पड़े अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और शादी-ब्याह भी कर लेता था। अब यह संभव नहीं रहा। निर्वाह लागत लगातार बढ़ती जा रही है। इसकी तुलना में काम-धंधे और आय नहीं बढ़ पा रही। इस दुष्चक्र से निकलने के लिए बड़े कदम उठाना आवश्यक है। पिछले कई वर्षों से कहा जा रहा था कि विदेशों में काले धन के रूप में भारत का काफी पैसा जमा है। सरकार ने उसे वापस लाने का वायदा भी किया था। लेकिन विदेशों में किसका, कितना और कहां पैसा जमा है, इसका पता लगाना आसान नहीं है। विदेशों में केवल समर्थ और चतुर लोग ही अपना काला पैसा स्थानांतरित कर सकते हैं। वह भी एक ही जगह जमा नहीं रहता। उसे एक से दूसरी जगह और एक से दूसरे नाम पर स्थानांतरित किया जाता रहता है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी के बावजूद इसमें अधिक प्रगति नहीं हो पाई।
इस बड़े परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर ही केंद्र सरकार के नोटबंदी के इस निर्णय का आकलन किया जाना चाहिए। इस निर्णय के पीछे सरकार के तीन दीर्घकालिक उद्देश्य दिखाई देते हैं। उसका पहला उद्देश्य कराधान के दायरे को बढ़ाना है। एक अरब तीस करोड़ आबादी वाले अपने देश में केवल बीस लाख लोग अपनी कर योग्य आमदनी पांच से दस लाख के बीच घोषित करते हैं। देश की आर्थिक गतिविधियों का एक बड़ा भाग कर के दायरे के बाहर बना रहता है। नोटबंदी से ऐसे लोगों को चिन्हित करने में आसानी होगी जो कमाते खूब हैं, लेकिन टैक्स नहीं देते। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि इस समय हमारी दो सबसे बड़ी चुनौतियां हैं- देश की सुरक्षा और गरीबी। उत्तरी और पश्चिमी सीमाओं पर हमारी सुरक्षा को आज जितना बड़ा खतरा है, पहले नहीं था। इसी तरह हमने सबसे तेज गति से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था के रूप में जो ख्याति अर्जित की है, उसका कोई मूल्य तभी है जब हम अपने यहां गरीबी में जीने के लिए विवश लोगों को उसके बाहर निकालने में सफल हो पाएं। इन दोनों उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अधिक साधन चाहिए और बिना कराधान का दायरा बढ़ाए यह संभव नहीं है। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि हमारे लेन-देन में नकदी का दायरा कुछ छोटा हो। व्यापार में जब तक नए इलेक्ट्रॉनिक तरीकों का उपयोग नहीं बढ़ेगा, हमें कराधान का दायरा अधिक बढ़ाने में सफलता नहीं मिलेगी।
काले धन के निर्माण में और उसे संरक्षण प्रदान करने में सबसे बड़ी भूमिका हमारे राजनीतिक-प्रशासनिक तंत्र की है। हमारे लोकतंत्र की धमनियों में यह काला धन ही बह रहा है। चुनाव में करोड़ों का खर्च उचित साधनों से नहीं किया जा सकता। चुनाव आयोग ने उस पर कुछ अंकुश लगाया है, पर वह सतही ही है। हमारा न्याय तंत्र, पुलिस और प्रशासन के काफी लोग आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं। यह सारा पैसा बेनामी संपत्तियों और सोने-चांदी की खरीद में जाता है या विदेश स्थानांतरित हो जाता है। हवाला का कारोबार केवल उद्योगपतियों के भरोसे नहीं चल रहा। यह भ्रष्ट तंत्र इतना व्यापक है कि उसकी जड़ों में मट्ठा डाले बिना उसे समाप्त नहीं किया जा सकता। नोटबंदी इस दिशा में एक कदम भर है। अगली मुहिम बेनामी संपत्तियों पर होगी, ऐसा सरकार ने संकेत दिया है। इस भ्रष्ट तंत्र पर अंकुश लगे तो उद्योगधंधों के पनपने का अवसर भी आएगा।
इस नोटबंदी का एक और बड़ा उद्देश्य आम लोगों की निर्वाह लागत कम करना है। काला धन सबसे अधिक जमीन और सोना खरीदने में लगता है, इसलिए जमीनों और सोने के दाम आसमान पर पहुंच गए हैं। जिन लोगों के पास पहले से कोई संपत्ति है, उसे बेचकर ही कोई नई संपत्ति खरीद सकते हैं। अन्यथा ईमानदारी से अर्जन करने वाला व्यक्ति अपने घर का सपना नहीं पाल सकता। अगर स्थिति ऐसी ही बनी रही तो सामाजिक संकट पैदा होने लगेगा। काले धन पर अंकुश से जमीनों के दाम भी घटेंगे और सोने के भी। इससे आर्थिक दबाव कम होंगे और उत्पादकता में वृद्धि होगी। नोटबंदी के यह सब उद्देश्य तभी सफल हो सकते हैं जब सरकार को राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक वर्गों का पूरा समर्थन और सहयोग मिले। भारतीय समाज इस निर्णय के साथ है, लेकिन दुर्भाग्य से हमारा राजनीतिक तंत्र केवल अपने दलीय स्वार्थ देख रहा है। दलीय राजनीति के इस नकारात्मक स्वरूप को बदलने के लिए भी समाज के भीतर से कुछ दबाव पैदा होना चाहिए।