भारत माता के निहितार्थ

बनवारी । भारतीय सभ्यता के स्वाभाविक गौरव को लौटाने में प्रकृति की भूमिका हमसे अधिक रही है। अपनी सहस्र (अनगिनत) नदियों और शस्य श्यामला भूमि के कारण भारतवंशी संसार में सबसे बड़ा समूह रहे हैं। पिछली कुछ शताब्दियों में यूरोपीय जाति के विस्तार ने हमारी इस जनसांख्यिकीय वरीयता को समाप्त कर दिया था। लेकिन पिछली आधी शताब्दी में वह वरीयता फिर स्थापित हो गई है। अगर हम 1947 तक रही अपनी राजनीतिक पहचान को ही देखें तो भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश की सम्मिलित जनसंख्या अब एक अरब 67 करोड़ हो गई है, जो यूरोपीय और चीनी जनसंख्या से अधिक है। अंग्रेजी शिक्षा ने हमारी सभ्यतागत पहचान को इतना धुंधला कर दिया है कि आज भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश को एकजातीय समूह बताने पर भी हल्ला होने लगेगा। लेकिन 1947 से पहले केवल इन तीन क्षेत्रों के लोग ही नहीं श्रीलंका, बर्मा और नेपाल के राजनीतिक चेतना से युक्त सभी लोग अपने आपको सहज रूप से भारतीय स्वाधीनता संग्राम का अंग बनाए हुए थे। इस पूरे क्षेत्र की जातीय स्मृति एक ही है।
आज राजनीतिक पहचान मुख्य हो गई है और राष्ट्र को सीमाओं में बांध दिया गया है। इससे वृहत भारतीय समाज को अनेक विधियों में पिरोए रखने का सभ्यतागत पुरुषार्थ क्षीण हो गया है। एक वृहत भारतीय समाज की चेतना खोकर हम अपने आपको कितना कमजोर और विभाजित किए दे रहे हैं, यह हाल की कुछ घटनाओं से समझा जा सकता है। इनमें से एक है भारत की भारत माता के रूप में पहचान। अंग्रेजी शिक्षा ने हमारे एक वर्ग को कितना छिछला और असभ्य बना दिया है, इसे अंग्रेजी अखबारों की इस विषय पर की गई टिप्पणियों से समझा जा सकता है। केवल अंग्रेजी अखबारों ने ही नहीं हमारे अधिकांश बौद्धिक और राजनीतिक लोगों ने भी इस पहचान को हिन्दू दुराग्रह के रूप में ही देखा। महात्मा गांधी के नेतृत्व में लड़े गए पूरे स्वाधीनता संग्राम में भारत की प्रतीति भारत माता के रूप में ही की जाती रही। यह कोई आरोपित छवि नहीं थी, स्वाभाविक रूप से ग्रहण की जाती रही छवि थी। इसलिए उस पर कोई आपत्ति नहीं उठी थी।
भारत को भारत माता के रूप में ग्रहण करने पर सबसे बड़ी आपत्ति उन मुस्लिम संगठनों को है, जो मानते हैं कि भारत को भारत माता के रूप में देखना उसका दैवीकरण है। इस्लाम के अनुसार अल्लाह के अतिरिक्त किसी में दिव्यता नहीं देखी जा सकती। अगर भारत के मुसलमानों में कोई तात्विक बहस हुई होती तो अधिकांश मुसलमान इस मत को ठुकरा देते। भारत में 25-30 प्रतिशत जनसंख्या शियाओं की है, जो सृष्टि को दिव्यता से हीन देखने के अल-हदीस मत के विरुद्ध है। इन चार-पांच करोड़ शिया मुसलमानों के अलावा सुन्नी मुसलमानों में भी 80 प्रतिशत बरेलवी मत के हैं, जो पीर-औलियों को पूजनीय मानते हैं और अल-हदीस मत के विरुद्ध हैं। यही स्थिति पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी है, जहां की अधिकांश मुस्लिम जनसंख्या, मोहम्मद साहिब और सिद्ध पुरुषों को अल्लाह के नूर से संपन्न मानती है। इन सभी लोगों को भारत भूमि के प्रति भक्ति का भाव दिखाने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
इस तरह की स्थितियों को मजहबी दुराग्रह से देखने के दोषी केवल कुछ मुस्लिम नेता ही नहीं हैं, ईसाई भी लगभग इसी तर्कपद्धति का आश्रय लेते रहे हैं। देव पूजा का विरोध करने वाले ईसाइयों को सबसे कड़ी भर्त्सना गांधी जी से ही मिली थी। उन्होंने कहा कि अगर ईसाइयत में पूजा निषिद्ध है तो वे वर्जिन मेरी या क्रॉस के प्रति पूजा भाव क्यों दिखाते रहते हैं। कोई भी धर्मावलंबी प्रतीक पूजा के पूरी तरह विरुद्ध नहीं हो सकता। हम ईश्वर का स्मरण करने के लिए जिन संज्ञाओं का उपयोग करते हैं, वे भी सांसारिक ही हैं। सृष्टि को दिव्यता से हीन देखना वैसे भी एक तार्किक और राजनीतिक धारणा अधिक लगती है- उसे धार्मिक मान्यता नहीं बनाया जा सकता। यह घोषित करना कि ईश्वर सृष्टि से परे है, उसे जाना नहीं जा सकता, उसे कोई रूप नहीं दिया जा सकता, केवल मसीहा के वचन में श्रद्धा रखकर उसके प्रति निष्ठा दिखाई जा सकती है, मनुष्य और सृष्टि दोनों की अवमानना है। भारत के मुसलमान और ईसाई अपने धर्मों की इस संकीर्ण व्याख्या को छोड़कर अपने-अपने धर्मों का भला ही करेंगे।
भारत को भारत माता के रूप में देखना हमारी सभ्यतागत दृष्टि रही है। भारतीय समाज मां के संबंध को सबसे महत्वपूर्ण संबंध इसलिए मानता है कि वह सबसे नैसर्गिक संबंध है। मां जननी है, इसलिए उसमें आत्मभाव देखना स्वाभाविक है। संसार के सभी लोग अपनी जन्मभूमि को अपने लिए सबसे पवित्र भूमि मानते आए हैं। फिर भी अपनी जन्मभूमि की वनस्पति, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, नदियों-तालाबों, पहाड़ों, अपने आसपास के समाज और अपनी सभ्यता की परिधि में आने वाले अन्य लोगों से जैसा आत्मीय संबंध भारतीय सभ्यता में जोड़ा गया, वैसा कहीं नहीं जोड़ा गया। यह एक सभ्यतागत प्रश्न है कि हम अपनी जन्मभूमि से और उसके सभ्यतागत विस्तार से कैसा संबंध बनाते हैं। आधुनिक शिक्षा ने उसे मात्र एक राजनीतिक संबंध बना दिया है। अगर आप अपने देश को केवल एक राजनीतिक इकाई के रूप में देखते हैं और उसके प्रति अपने संबंध को राष्ट्र निष्ठा में सीमित कर लेते हैं तो आपका वह संबंध अपने देश से नहीं, देश की राज्यसत्ता से ही होता है। इस संबंध की बिना पर आपसे निरर्थक राजनीतिक युद्धों के लिए बलिदान देने को कहा जाता है, तब इस संबंध पर प्रश्न उठाने की छूट किसी को नहीं दी जाती। हम यह भूल जाते हैं कि राष्ट्र निष्ठा मात्र में इस संबंध को सीमित करके देखना, इस संबंध को संकीर्ण करना है। अपने सभ्यतागत विस्तार से हम जो संबंध बनाते हैं, वही हमें शेष जातियों और शेष दुनिया से सकारात्मक संबंध बनाने के लिए प्रेरित करता है।
इसी तरह का दूसरा विवाद गौ-पूजा को लेकर उठता रहा है। भारत को भारत माता के रूप में देखने को लेकर जिस तरह की मजहबी आपत्तियां की जाती रही हैं, उसी तरह की आपत्तियां गौ के प्रति पूजा भाव को लेकर की जाती रही हैं। हमारे यहां गौ-ब्राह्मण सदा अवध्य माने गए। यहां तक कि मध्यकाल में हिन्दू राजाओं ने मुस्लिम शासकों से जो संधियां कीं, उनमें भी यह मनवाया जाता रहा। ब्राह्मण हमारे यहां ज्ञान के वाहक के रूप में देखे गए। हमारी सभ्यता में ज्ञान को सर्वोपरि महत्व दिया जाता रहा है। उसी की परिणति ब्राह्मण को अवध्य मानने में हुई। इसी तरह गौ हमारे यहां पशु मात्र की प्रतिनिधि है। गौ भक्ति के द्वारा हमने अपने समाज की पशु मात्र के प्रति दृष्टि स्थिर कर दी। यूरोप में पशु को एक ही तरह से देखा गया- वह खाने के लिए मांस उपलब्ध करता है। इसलिए 16वीं शताब्दी में जब उन्होंने अमेरिकी महाद्वीप पर नियंत्रण किया तो वहां के 10 करोड़ लोगों का ही सफाया नहीं किया, पशु-पक्षियों सबका सफाया कर दिया। यूरोपीय लोगों के पशुओं से इस हिंसक संबंध को देखकर हम अपनी सभ्यता में निरंतर किए गए गौ भक्ति के आग्रह का महत्व समझ सकते हैं। आज चिकित्सा संबंधी प्रयोगशालीय अनुसंधानों के लिए पशुओं के साथ जैसा हिंसक व्यवहार किया जाता है, उसे देखकर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को ग्लानि होगी। यूरोपीय सभ्यता के यह सब विद्रूप छिपे रहते हैं और हम अपनी सभ्यता की उन्नत विधियों का मखौल उड़ाते रहते हैं।
भारतीय सभ्यता को सबसे अच्छी तरह संबंधों में ही निरूपित किया जा सकता है। हम सबसे नैसर्गिक संबंध से आरम्भ करते हैं और फिर उस संबंध का विस्तार करते हुए पूरी सृष्टि को अपने आत्मभाव की परिधि में ले आते हैं। हमारी सभ्यता शेष सभी के प्रति हमारे कर्तव्यों के निरूपण से ही निर्धारित हुई है। यूरोपीय सभ्यता की तरह हमारी सभ्यता का स्वरूप नियंत्रणकारी नहीं है। हम संबंध बनाते हुए उत्तरोत्तर अपने और पराए का भेद करते हैं, पर वह व्यावहारिक भेद ही है। हमारे लिए कोई निपट पराया नहीं है, जबकि यूरोपीय लोगों के लिए अपने और पराए की दो बिल्कुल अलग-अलग कोटियां हैं। उनके लिए संसार अपने और पराए दो ध्रुवों में विभाजित है। यह विभाजक दृष्टि उनकी राजनीति से हमारी राजनीति में आ गई है और अब वह अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से हमारे पढ़े-लिखे लोगों के एक वर्ग के अवचेतन में घर करती जा रही है।
हमने सार्वजनिक बहस में अपनी सभ्यतागत दृष्टि का प्रतिपादन करना छोड़ दिया है। उसका एक कारण हमारा अपनी भाषा से कटते चले जाना भी है। भारत माता की जय कहते समय हम भारत माता को किसी दूसरी राजनीतिक इकाई पर विजय दिलवाने की बात नहीं कर रहे होते, बल्कि भारत माता के मंगलकारी अस्तित्व के बने रहने की ही बात कर रहे होते हैं। जय का हमारी सभ्यता में अर्थ विक्टरी नहीं है। हमारे यहां अभिवादन के लिए भी जय शब्द का उपयोग होता रहा है। जब तक हम सार्वजनिक बहस में अपनी सभ्यतागत दृष्टि का समावेश नहीं करते, हर सार्वजनिक बहस एक राजनीतिक कुश्ती में बदलकर रह जाएगी। इससे समाज की एकता सिद्ध नहीं होगी, वह समाज को विभाजित ही कर रही होगी।
अगर यह सब प्रश्न केवल बौद्धिक बहस से निर्णीत हो रहे होते तो कुछ दिनों में हमारी सभ्यता की सामाजिक स्मृति ही शेष हो गई होती। हमारा बौद्धिक जगत अपनी सभ्यता और परंपरा से इतना कट गया है कि वह हमारी मूल आस्थाओं को भी नहीं पहचानता। भारतीय समाज सदा एक ज्ञानवान समाज रहा है। हमारे साधारण लोगों ने अपनी परंपरा से अपनी सभ्यता की मूल आस्थाओं को अच्छी तरह ग्रहण कर रखा है और वह उन आस्थाओं पर आग्रह छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। इसी से भारत माता की जय कहने में जिन लोगों को आपत्ति है, वे भी उसका मुखर विरोध करने से डरते हैं। गौ भक्ति तो हमारे समाज की आस्थाओं के केंद्र में है। इसलिए उसे लेकर समाज में बहुत जल्दी आवेश पैदा हो जाता है। इन सब मान्यताओं के लिए आग्रह बहुसंख्यक समाज के विश्वासों को अल्पसंख्यक समाज पर लादना नहीं है। यह सब हमारी सभ्यता की मूलभूत धारणाएं है और अगर कुछ समुदाय उन धारणाओं से पूरी तरह नहीं जुड़े तो उन्हें इन धारणाओं से धैर्यपूर्वक जोड़ना हमारा कर्तव्य है। ऐसे लोगों के बहाने आस्थाओं को छोड़ा नहीं जा सकता। यह आस्थाएं हमारा सभ्यतागत दाय हैं, उन्हें छोड़कर हम सभ्य बने नहीं रह सकते।

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