प्रदीप सिंह/जिरह
उत्तराखंड में हरीश रावत के नेतृत्व वाली सरकार सदन में अपना बहुमत साबित करने से पहले ही बर्खास्त कर दी गई और राष्ट्रपति शासन लग गया। केंद्र सरकार का यह कदम संविधान सम्मत है या नहीं इस पर संविधान के जानकारों की राय बंटी हुई है। हरीश रावत, कांग्रेस के बागी विधायकों, भाजपा नेतृत्व, राज्यपाल और केंद्र सरकार सभी से सवाल किया जाना चाहिए। लेकिन एक बात बिना किसी विवाद के कही जा सकती है कि उत्तराखंड की घटना ने एक बार फिर साबित किया है कि दलबदल कानून अपने मकसद को हासिल करने में नाकाम रहा है। हरीश रावत से पूछा जाना चाहिए कि वे अपनी ही पार्टी के विधायकों को साथ क्यों नहीं रख पाए। क्या इसके लिए उनकी कार्यशैली और व्यवहार जिम्मेदार नहीं है। बागी विधायकों से पूछा जाना चाहिए कि वे राज्य में राजनीतिक अस्थिरता पैदा करके किसका भला कर रहे हैं। भाजपा से पूछा जाना चाहिए वह संसदीय जनतंत्र की कौन सी परम्परा स्थापित कर रही है। इस घटना ने एक और बात फिर से साबित की है कि केंद्र की सत्ता खोने के बाद कांग्रेस हाईकमान का रुक्का अपनी ही पार्टी के लोगों पर नहीं चलता।
असम, अरुणाचल, पंजाब, केरल और उत्तराखंड इसके ताजा उदाहरण हैं। केंद्र सरकार और राज्यपाल की कार्रवाई के समय को समझना तो और भी कठिन है। अट्ठारह फरवरी को विधानसभा में विनियोग विधेयक पर मतदान के दौरान मत विभाजन की मांग विधानसभा अध्यक्ष ने नहीं मानी। राज्यपाल को भेजी अपनी लिखित रिपोर्ट में उन्होंने माना है कि सदन में मत विभाजन की मांग हुई थी लेकिन प्रस्ताव को ध्वनिमत से पारित मान लिया गया। मत विभाजन की मांग के बाद पीठासीन अधिकारी के पास उसे मानने के अलावा कोई और विकल्प नहीं होता है। इसलिए सरकार तो उसी दिन गिर गई थी। सवाल है कि फिर राज्यपाल केके पॉल ने मुख्यमंत्री को सदन में बहुमत साबित करने के लिए 28 मार्च तक का समय क्यों दिया। एक बार समय दे दिया तो उससे चौबीस घंटे पहले राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश करने का औचित्य क्या था।
अरुणाचल के बाद उत्तराखंड की घटना ने दलबदल कानून को एक बार फिर विमर्श के केंद्र में ला दिया है। दलबदल के विरोध में कानून बनाने के मुद्दे पर पहली औपचारिक चर्चा 1977 में जनता पार्टी सरकार के समय शुरू हुई। इसके लिए एक विधेयक का मसौदा भी तैयार हुआ। इसके विरोधियों में सबसे आगे समाजवादी चिंतक मधु लिमये थे। विरोध करने वालों का कहना था कि यह कानून सांसदों, विधायकों को राजनीतिक दलों का बंधुआ बना देगा। वैचारिक और नीतिगत मतभेद की गुंजाइश ही खत्म हो जाएगी। मधु लिमये का कहना था कि सत्ता के लालच में दल बदल करने वालों और वैचारिक आधार पर पार्टी के खिलाफ मतदान करने वालों में फर्क किया जाना चाहिए। उनका सुझाव था कि सत्तालोलुप लोगों पर अंकुश लगाने के लिए यह व्यवस्था की जानी चाहिए कि दल बदल के बाद आप कोई सरकारी पद नहीं ले सकते। लेकिन आमराय न बन पाने के कारण यह विधेयक कानून का रूप नहीं ले सका। 1985 में बने और 2003 में संशोधित इस कानून ने दरअसल व्यक्तिगत सौदेबाजी की जगह सामूहिक सौदेबाजी को संवैधानिक मान्यता दे दी। इसलिए समय आ गया है कि इस कानून पर नये सिरे से विचार हो। इसके साथ ही दल बदल की स्थिति में पीठासान अधिकारी क्या करेगा इसके लिए एक स्पष्ट दिशा निर्देश हो जो उसकी मनमर्जी पर अंकुश लगा सके। उत्तराखंड में जो हुआ वह राजनीति, नैतिकता, संविधान और जनतंत्र किसी लिहाज से अच्छा नहीं हुआ। इस तरह की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने का मतलब होगा छोटे राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता को स्थायी बना देना। यह खतरनाक प्रवृत्ति है कि केंद्र में जिस दल की सरकार होगी वह छोटे राज्यों में तख्ता पलट करवा सकती है। लेकिन यह घटना राजनीति में 1967 से 77 के दौर की आया राम, गया राम की राजनीतिक संस्कृति के लौटने का संकेत है और वह भी दल बदल कानून के होते हुए।
अरुणाचल हो या उत्तराखंड, जिस घर में भितरघात करने वाले सतत सक्रिय हों वह घर एक नहीं रह सकता। हरीश रावत हों या नबाम टुकी दोनों की नाव उनके अपनों ने ही डुबोई। ये घटनाएं नई राजनीतिक संस्कृति की देन हैं, जिसमें सत्ता में रहने या हासिल करने के लिए सब कुछ जायज है। कांग्रेस का आरोप है कि भाजपा ने उसके विधायकों को खरीदा। लेकिन कांग्रेस को उन्हीं ‘बिके’ हुए विधायकों को फिर से खरीदने में कुछ भी अनैतिक नहीं लगता। भाजपा को इन्हीं ‘बिकाऊ’ विधायकों के साथ सरकार बनाने की कोशिश करने में कुछ गलत नहीं लगता। उम्मीद करना चाहिए कि इस विधानसभा में अब सरकार बनाने की कोशिश करने की बजाय भाजपा और कांग्रेस जनता के पास जनादेश लेने के लिए जाएंगे। मतदाता जवाबदेही और जिम्मेदारी दोनों तय कर देगा। केंद्र सरकार और भाजपा की मुश्किल यह है कि राष्ट्रपति शासन लगाने के फैसले को संसद में ले जाए बिना विधानसभा भी भंग नहीं की जा सकती। संसद के उच्च सदन में यह प्रस्ताव पास होना संभव नहीं लगता। इसलिए एक नया संवैधानिक संकट मोदी सरकार का इंतजार कर रहा है।